अब कंपनियों के मजदूर और कर्मचारी करेंगे 90 घंटे नौकरी?

क्या आप चाहते हैं कि आप हफ़्ते में 48 घंटे के बदले 90 घंटे, सातों दिन बिना छुट्टी के काम करें। क्या आपको पता है कि मज़दूरों और कर्मचारियों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है? शायद आपको पता न हो क्योंकि जो लोग इसका सामना कर रहे हैं, उनकी आवाज़ किसी भी प्लेटफार्म से नहीं उठाई जाती।।। न तो मीडिया इसे कवर करता है, न ही यह धर्म और राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा बन पाता है, लेकिन मजदूर और कर्मचारी अपने शोषण के बारे में सोचना और बोलना तो चाहते हैं।।। मगर आजकल वो भी अपने हकों के बारे में बोलना वे भूल गए हैं। दरअसल उन्हें बोलना चाहिए। अखबारों में उनकी बातें भरी होनी चाहिए। लेकिन उनकी जगह कुछ लोग हैं जो इन दिनों भारतीयों को काम करने का उपदेश दे रहे हैं।
भारत को नंबर वन बनाने के नाम पर कंपनियों और मध्यम वर्ग के कर्मचारियों और मजदूरों को संविधान के तहत निर्धारित काम के धंटों से ज्यादा काम करने का निर्देश दिया जा रहा है। इसे आम भाषा में खून चूसना कहते हैं। धनिक और बड़े-बड़े उद्योगपति अचानक से लेक्चर देने लगे हैं कि यदि हमें अपने देश को नंबर वन बनना है तो मजदूरों और कर्मचारियों को हफ़्ते में 90 घंटे काम करना होगा। इसके बदले मजदूरों और कर्मचारियों को कुछ नही बताते। ।।।क्यों?
एसएन सुब्रमण्यन कै बारे में यह भी जानलें कि वो आज भी गुलाम बनाने यकीन रखत हैं। पिछले दिनों भारत की सबसे बड़ी मैन्युफैक्चरिंग और टेक कंपनी लार्सन एंड टूब्रो के प्रमुख एसएन सुब्रमण्यन ने कुछ ऐसा कहा जिससे पता चलता है कि उनके जीवन में प्यार की कमी है। और अगर ऐसा नहीं है तो अपने आस-पास के लोगों के प्यार का हिस्सा लेकर वे शेयर बाजार में उससे पैसे बना रहे हैं। एलएंडटी की एक आंतरिक बैठक में जब एसएन सुब्रमण्यन से पूछा गया कि अरबों डॉलर की यह कंपनी अपने कर्मचारियों को शनिवार को भी क्यों बुलाती है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि इससे पता चलता है कि कर्मचारियों को गुलाम समझने की मानसिकता आधुनिक युग की चीज नहीं है अर्थात कर्मचारियों को गुलाम समझने की मानसिकता हमारी पुरातन की परंपरा है।
कोई आपको सातों दिन काम करने की सलाह देता है। तो कोई आपको 80/90 घंटे काम करने की सलाह दे रहा है। आपको जान लेना चाहिए कि ऐसे नियमों के प्रस्तावक केवल बकवास नहीं कर रहे हैं। रवीश कुमार आफीसियल के अनुसार लार्सन एंड टूब्रो के चीफ एस एन सुब्रमण्यम कहते हैं कि उन्हें दुख है कि मजदूरों और कर्मचारियों से रविवार को आपसे काम नहीं करवा पा रहे हैं। वह आपसे रविवार को भी काम करवाना चाहता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस कंपनी के चेयरमैन ऐसी बातें कर रहे हैं। उनकी कंपनी ने निवेशकों को पिछले एक साल में अच्छा रिटर्न नहीं दिया है। कुछ दिन पहले जब इंफोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति ने युवाओं को 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी। तब सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी भी खिंचाई की थी। एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन अब अपने बयान से घिर गए हैं। उनके 90 घंटे काम करने की सलाह का सोशल मीडिया पर कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है।
सुब्रह्मण्यन को एक वीडियो में कर्मचारियों से यह कहते हुए सुना गया कि मुझे खेद है कि मैं आपको रविवार को काम नहीं करवा सकता। अगर मैं आपको रविवार को काम करवा सकता, तो मुझे ज्यादा खुशी होती, क्योंकि मैं रविवार को काम करता हूं। उन्होंने आगे कहा था कि आप घर पर बैठकर क्या करते हैं? आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक घूर सकते हैं? पत्नी अपने पति को कितनी देर तक घूर सकती है? एसएन सुब्रमण्यन की महिलाओं विषय में कही गई ये बात बहुत बुरी बात है। बुरी ही नहीं, घिनौनी बात कहना ज़्यादा ठीक होगा। इससे पता चलता है कि भारत में 1 लाख करोड़ की नेटवर्थ वाली कंपनी का मुखिया, जो 51 करोड़ रुपए सैलरी लेता है, महिलाओं के बारे में इतनी बुरी राय रखता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस कंपनी के चेयरमैन ऐसी बातें कर रहे हैं। उनकी कंपनी ने निवेशकों को पिछले एक साल में अच्छा रिटर्न तक नहीं दिया है। L&T के शेयर ने पिछले एक साल में 0।10% का निगेटिव रिटर्न दिया है। हालांकि इसके निवेशकों को बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन कमाई भी नहीं हो पाई है। कुछ दिन पहले जब इंफोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति ने युवाओं को 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी। तब सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी भी खिंचाई की थी।
मजदूर और कर्मचारियों को ये जान लेना चाहिए कि ये लोग गंभीरता से अपने बारे में बात कर रहे हैं, कोई बकवास नहीं कर रहे। आपने जितने मर्जी मीम्स बनाए होंगे और उनके बयानों को बेकार और बकवास बताया होगा। लेकिन क्या आपने देखा कि इन मीम्स से वेतन और मज़दूरी का बुनियादी सवाल गायब हो गया है? जिस तरह से सरकार से मिलकर कॉरपोरेट मजदूरों और कर्मचारियों का शोषण कर रहा है और उस तरह से लोगों की आय नहीं बढ़ रही है। आप ये खबर कैसे भूल गए? आपने एक मीम क्यों नहीं बनाया कि कॉरपोरेट का मुनाफ़ा 15 साल में सबसे ज़्यादा बढ़ा है और कर्मचारियों की तनख्वाह कम हो गई है? 2016 में कॉरपोरेट टैक्स तब बढ़ाया गया जब उन पर टैक्स कम किया गया था। आज के दौर में जब हज़ारों करोड़ की कंपनियाँ कम टैक्स देती हैं भारत में काम करने वाले लोग सरकार को इनकम टैक्स जैसे अनेक टेक्स मिलाकर इन कम्पनियों से ज्यादा टेक्स दे रहे हैं। कई सालों से ये ख़बरें आ रही हैं कि सरकार जो टैक्स वसूल रही है, उसमें कॉरपोरेट का हिस्सा कम हो गया है और पर्सनल टैक्स बढ़ रहा है।
रवीश कुमार बताते है कि फिक्की का एक सर्वे बताता है कि कॉरपोरेट का मुनाफा 4 गुना बढ़ गया है और कर्मचारियों की तनख्वाह में एक अंक की वृद्धि हुई है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इसी वजह से बाजार में मांग कम हुई है क्योंकि लोगों के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। सबको पता है कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। अब इस सवाल से बचा नहीं जा सकता कि इस देश का आम आदमी कब तक घंटों काम करेगा और उसे अच्छी तनख्वाह नहीं मिलेगी? उसे जो भी तनख्वाह मिलेगी, उसका एक बड़ा हिस्सा टैक्स में चला जाएगा। टैक्स का जितना फायदा कॉरपोरेट को मिला, उतना आम आदमी को नहीं मिला। मैं पिछले 10 सालों की बात कर रहा हूँ।
जिस बात को आप मज़ाक समझ रहे हैं, सूट बूट के उद्यमी चाहते हैं कि आप मज़ाक उड़ाएँ, ज्यादा से ज्यादा मीम बनाएँ ताकि सच्चाई जन सामान्य के सामने न आ पाए। यह नहीं कहना चाहिए कि आपका मुनाफ़ा 4 गुना बढ़ गया और कर्मचारियों की तनख्वाह सिंगल डिजिट से बढ़ गई। वो भी महंगाई और टैक्स को छोड़कर। जान लें कि आज जो 1 लाख रुपए मिल रहे हैं, वो 2008 के 38,000 रुपए के बराबर हैं। असली सवाल वो नहीं है जो मूर्ति, सुब्रमण्यन, अग्रवाल और मस्क ने उठाया है। मस्क ने भी कहा है कि जी-जान से काम करो।।।इसका मतलब है कमरतोड़/ कड़ी मेहनत करना। सरकार ने टैक्स बढ़ा दिया, मजदूरों/कर्मचारियों की सैलरी नहीं बढ़ाई और अब काम के घंटे बढ़ाना चाहते हैं।
रवीश कुमार 10 जनवरी का एक वीडियों में गुरुग्राम में मारुति से बड़ी संख्या में निकले गए कर्मचारियों द्वारा एक विरोध आंदोलन में शामिल मजदूरों का रेला दिखाते हैं।।।।।उनकी क्या स्थिति है? क्या उनसे बात की जा रही है? इन मज़दूरों को 90 घंटे काम करना पड़ता है। उन्हें कहा जाता है कि वे अपनी पत्नी का चेहरा न देखें। उन्हें रविवार को काम करने के लिए भी कहा जाता है। मीडिया में भी इस प्रकार के आंदोलनों को नहीं दिखाया जाता है। कहना होगा कि मीडिया ने लोकतंत्र की इस हद तक हत्या कर दी है। लोग सोशल मीडिया पर मीम्स बना रहे हैं। 5 जनवरी को मारुति के ऐसे लोगों की एक नई यूनियन बनी – “ मारुति सुजुकी आस्थाई मजदूर संघ”। 5 जनवरी को जब यूनियन का औपचारिक गठन हुआ तो मज़दूरों को उम्मीद नहीं थी कि इतने सारे मज़दूर आएंगे। 2012 में मारुति सुज़ुकी ने श्रम कानूनों का उल्लंघन करके इन स्थायी मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया। जबाब में मज़दूरों ने मानेसर प्लांट में विरोध प्रदर्शन किया। 100 से ज़्यादा मैनेजरों पर हिंसा की गई। एक सीनियर मैनेजर की मौत हो गई। कुछ लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
500 स्थायी कर्मचारियों को बिना सुनवाई के हटा दिया गया। कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और मामला चल रहा है। कर्मचारियों के खिलाफ हत्या का मामला खत्म हो गया है। लेकिन हटाए गए कर्मचारियों की सुनवाई अभी भी चल रही है। मज़दूर संघर्ष समिति को किसी बड़े ट्रेड यूनियन का समर्थन नहीं था। न तो उनके पास कोई नौकरी थी और न ही उन्हें वेतन मिलता था। 12 सालों से ये मज़दूर अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठा रहे हैं जो अलग-अलग जगहों पर स्थायी रूप से काम कर रहे हैं। उन्हें या तो नौकरी चाहिए या फिर उचित मुआवज़ा। एक पोस्टर पर लिखा है कि मज़दूरों से काम करवाकर उन्हें फ़ुटबॉल की तरह लात मारने की नीति नहीं चलेगी। इसी पोस्टर पर लिखा है कि जापान का संविधान भारत में नहीं चलेगा। यह पोस्टर सिर्फ़ मारुति सुजुकी के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए है। इसमें लिखा है कि देश के युवा सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार और प्राइवेट नौकरियों में धोखाधड़ी करते हैं। रविश आगे बताते है कि उन्हें यह वीडियो दो अलग-अलग यूट्यूब चैनल मारुति सुजुकी अवस्थी मजदूर संघ और वर्कर यूनिटी से मिला है।
यह भी कि मीडिया ने कार्यकर्ताओं को भुला दिया है। मजदूरों/कर्मचारियों के हकों की बात करने के लिए उनके पास सिर्फ़ यही चैनल हैं। जिनकी पहुँच अभी भी सिमित क्षेत्र तक ही है इसलिए इस देश के युवाओं को सड़कों पर बैठना पड़ रहा है। और उनको लेक्चर दिया जा रहा है कि अगर भारत को नंबर वन बनना है तो 7 दिन काम करना होगा। सीईओ की सैलरी और कर्मचारी की सैलरी इतनी अलग-अलग की जा रही है कि कंपनियों के CEO की आय तो निरंतर बढ़ रही है। और मजदूरों/कर्मचारियों की सैलरी ना के बराबर बढ़ रही है फिर भी ये करोड़ों कमाने वाले CEO और हज़ारों की कंपनियों के मालिक उन्हें दिन रात काम करने का ज्ञान दे रहे हैं। वे यह नहीं कहते कि लोगों की सैलरी बढ़नी चाहिए। हम बहुत कम सैलरी दे रहे हैं। वे यह भी नहीं कह पाएंगे कि भारत में ज़्यादातर कॉलेज थर्ड क्लास हैं। उन्हें अच्छा करना चाहिए। लेकिन इसके उलट वे युवाओं को लेक्चर दे रहे हैं।

हिंदुस्तान टाइम्स में सानिया जैन की रिपोर्ट कहती है कि सुब्रमण्यम की सैलरी 51 करोड़ है। 2024 में उनकी एक साल की सैलरी 51 करोड़ होगी। वो हर दिन 14 लाख कमाते हैं।
2023 की तुलना में उनकी सैलरी में 43% की बढ़ोतरी हुई है। इकोनॉमिक टाइम्स में लिखा है कि सुब्रमण्यन की औसत सैलरी सीईओ से 534 गुना ज़्यादा है। उनका नाम है एस एन सुब्रमण्यन। क्या उनके कर्मचारियों का वेतन कभी इतना बढ़ सकता है? कोई भी यह तय नहीं कर सकता कि सुब्रमण्यन को जीवन यापन के लिए और कितने पैरों की जरूरत है। लेकिन एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि अब तक उनके पास 200-300 करोड़ रुपये तो जमा हो ही गए होंगे। इतने में जिंदगी गुजर जाएगी। किंतु सुब्रमण्यन अपनी 51 करोड़ की सैलरी नहीं छोड़ सकते। पर कर्मचारियों को दिन-रात 90 घंटे काम करते हुए देखना चाहता है। वो ये नहीं जानता कि कर्मचारियों की जेबें खाली पड़ी हैं। यही वजह है कि भारत में लोग खरीदारी नहीं कर पा रहे हैं। उनकी कमाई कम हो रही है और काम के घंटे बढ़ रहे हैं। बॉम्बे शेविंग कंपनी के सीईओ शांतनु देशपांडे ने लिंक्डइन पर एक पोस्ट लिखी है। उन्होंने भारतीय कंपनियों में काम करने के माहौल के बारे में बात की है। उन्होंने लिखा है कि कंपनियों में काम करने में कई तरह की मुश्किलें आती हैं। आय में असमानता होती है और यह गलत धारणा है कि कठोर परिस्थितियों में भी काम करते रहना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि मैं समझ गया हूं कि ज्यादातर लोगों को अपनी नौकरी पसंद नहीं होती। अगर उनके पास आर्थिक सुरक्षा होगी तो 99% लोग अगले दिन काम पर नहीं जाएंगे। हर क्षेत्र में यही स्थिति है। देशपांडे ने लिखा है कि 2000 परिवार देश की 18% संपत्ति पर कब्जा करते हैं लेकिन वे 1।8% से भी कम टैक्स देते हैं।
मारुति के मजदूर आज तक अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं मारुति ही नहीं बाकी जगहों पर भी मजदूरों की हालत खराब है उनके चेहरे गायब कर दिए गए हैं। मारुति का पक्ष हमारे पास नहीं है लेकिन ये मजदूर जो अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं कंपनी का सबसे बड़ा घोटाला सीटी पेपर है जहां पर 25,000-30,000 लोगों को बुलाते हैं और 15,000-20,000 लोगों को परमानेंट करते हैं। हमें नहीं पता कि कर्मचारी कैसे काम कर रहे हैं। उनमें से ज़्यादातर कॉन्ट्रैक्ट पर हैं या छुट्टी पर हैं। कॉन्ट्रैक्ट पर उन्हें कितनी तनख्वाह मिलती है? काम और तनख्वाह में क्या फ़र्क है?
रवीश जी आगे बताते हैं कि राजनीति अब आपकी नहीं अपितु धर्म की बात करती है। कुंभ में जाने की सलाह देती है लेकिन क्या सरकार ये बता सकती है कि ये मजदूर कुंभ में जाकर कंपनियों द्वारा किए जा रहे शोषण के चक्र से मुक्त जाएंगे। जहां आप हर दिन काम करने जाते हैं, क्या और कब तक आपको अच्छा वेतन मिलने लगेगा, कब आपका परिवार अच्छा होगा, कब आपको अच्छी शिक्षा और अच्छा अस्पताल मिल पाएगा? स्थिति ऐसी हो गई है कि लोगों के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं। उनका खून इस तरह चूसा गया है कि वे साधारण चीजें भी नहीं खरीद पा रहे हैं। इसका कारण यह नहीं है कि भारतीय कम काम करते हैं। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जो 8।5 करोड़ लोग भारत में छोटे लोन लेते हैं, उनमें से करीब 50 लाख लोगों ने 4 या 4 से ज़्यादा जगहों से लोन लिया है। अलग-अलग जगहों से लोन लेने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। जून में यह 4% थी, नवंबर में यह 6% हो गई है। इकोनॉमिक टाइम्स दिखा रहा है कि लोग साधारण लोन भी नहीं चुका पा रहे हैं। वे डिफॉल्ट कर रहे हैं। जिस लोन का भुगतान नहीं किया जाता है उसे बैड लोन कहते हैं और बैड लोन की संख्या बढ़ती जा रही है। इस कारण माइक्रो-फाइनेंस सेक्टर गंभीर चुनौतियों से गुजर रहा है। इसकी पूंजी पर दबाव है क्योंकि यह वापस नहीं आ रही है। सितंबर के अंत में सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां 18 महीने के शिखर पर 11।6% थी। भारत के लोग अपनी आर्थिक गिरावट को कब तक छिपाएंगे? सभी जानते हैं कि वह समय बीत चुका है। उनकी हालत खराब होती जा रही है, इसलिए आजकल टैक्स को लेकर चुटकुले बनाए जा रहे हैं। फिर वही चुटकुले, फिर वही मीम्स। क्या आज टैक्स बढ़ गया है?
इस दौरान पर्सनल लोन की मांग में 6% से भी कम की वृद्धि हुई है। पिछले साल की पहली तिमाही पर नज़र डालें तो गोल्ड लोन के बदले एनपीए में 30% की वृद्धि हुई है। यानि लोग पर्सनल लोन की जगह गोल्ड लोन ले रहे हैं और चुका नहीं पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि भारत के लोग काम नहीं करते हैं। वो बहुत काम करते हैं। काम ही उनकी पहचान है। अगर उन्हें यहां काम नहीं मिलता तो वे इजराइल चले जाते हैं। वे सैनिक बनकर रूस चले जाते हैं। काम की तलाश में वे बर्फीली सड़क पार करके अमेरिकी सीमा पार करते हैं। वे मर जाते हैं। वे जेल जाते हैं। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि भारत के लोग भारत को नंबर वन बनाने के लिए दिन-रात मेहनत नहीं करते?
जिस देश के युवा अवैध तरीके से काम करने के लिए अमेरिका जा रहे हैं। भारत में अगर कोई उन्हें काम दे तो क्या वे काम नहीं करेंगे? करेंगे और जरूर करेंगे लेकिन कंपनियां उनको काम देने के बदले 90 घंटे काम करने का लेक्चर देने का काम कर रही हैं। ये उन्हें काम और दाम नहीं दे रहे हैं। अमेरिका में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले शिक्षित लोगों में भारतीयों की संख्या बहुत बढ़ गई है। और ज्यादा दूर मत जाइए। अपने मोहल्ले की गलियों में दुकानदारों से पूछिए कि उन्होंने आखिरी छुट्टी कब ली थी। उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली। बस पूछिए कि पुलिस अधिकारी प्रतिदिन और प्रति सप्ताह कितना लेते हैं। म्युनिसिपैलिटी वाले कितना लेते हैं? लेकिन वो चुपचाप अपना काम कर रहा है। उसे पता है कि भारत में इस बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। 25,000 प्रति माह। उस देश में 90 घंटे काम करने के तरीके पर व्याख्यान देना क्या लोगों का मज़ाक उड़ाना नहीं है?
यह एक भ्रम है कि भारतीय कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारी काम नहीं करते। श्रम कानूनों में सुधार पर चल रही बहस को देखिए। श्रम कानून किस तरह बदल रहे हैं। 8 घंटे का काम 12 घंटे करवाया जा रहा है। समय के साथ 12 घंटे का काम भी इसका हिस्सा बन गया है। फैक्ट्री में काम करने वाले बेरोजगार हो रहे हैं। इसे अंग्रेजी में कॉन्ट्रैक्टुअलाइजेशन कहते हैं। इसके अंदर कई नई शाखाएं हैं। पार्टनर, ट्रेनी, टेम्पररी, इंटर्न। अलग-अलग कैटेगरी बनाई जा रही है। ताकि किसी को भी रखने और हटाने का दरवाज़ा हमेशा खुला रहे। और हटाने के लिए कोई मुआवज़ा न मिले। श्रम कानूनों को कमजोर कर दिया गया है और काम के घंटे बढ़ा दिए गए हैं। और मजदूरों के अधिकारों में कटौती की गई है। लगातार हटाए जाने के कारण बड़ी संख्या में मजदूर गिग वर्कर बन रहे हैं। जो व्यक्ति एक ही कंपनी में काम करने के बजाय, कई क्लाइंट के लिए अल्पकालिक या प्रोजेक्ट-आधारित काम करता है, उसे गिग वर्कर कहते हैं।गिग वर्कर, पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों के बाहर काम करता है। गिग वर्कर्स, आमतौर पर सेवा क्षेत्र में स्वतंत्र ठेकेदार या फ़्रीलांसर के रूप में काम करते हैं। जहां शोषण का एक और चक्र उनके साथ इंतजार कर रहा है। सवाल यह है कि ये सारी बातें मीडिया में नहीं हैं। अगर वैकल्पिक मीडिया में ऐसी खबरें छपती भी हैं तो लोगों तक नहीं पहुंच पातीं। और लोगों को यह सब सोचना पड़ता है। कि धर्म की राजनीति में इसे झटका दिया गया है। फिर लोग अपनी मुक्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं।
( संदर्भ : रवीश कुमार आफीसियल )
यहाँ यह जानने की जरूरत है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने श्रम कानून बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिए थे जिनके आधार पर तमाम बहसों के बाद भारतीय श्रम कानून तैयार किए गए जिनके अनुसार, वयस्कों के लिए काम के घंटे इस प्रकार हैं:-भारत में, कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसईए) के मुताबिक, रोज़ाना काम करने के घंटे 9 घंटे और हफ़्ते में काम करने के घंटे 48 घंटे से ज़्यादा नहीं होने चाहिए. इसमें एक घंटे का आराम या भोजन अवकाश भी शामिल है. अगर कोई कर्मचारी सामान्य काम के घंटों से ज़्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम वेतन का हक़ मिलता है. ओवरटाइम वेतन आमतौर पर कर्मचारी के नियमित वेतन से दोगुना होता है। भारत में कुछ अन्य श्रम कानून भी हैं। जिनमें न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 जो कंपनियों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करना आवश्यक बनाता है। मजदूरी भुगतान अधिनियम 1936 जो कंपनियों को प्रत्येक महीने के अंतिम कार्य दिवस पर समय पर मजदूरी का भुगतान करना आवश्यक बनाता है। कारखाना अधिनियम 1948 जो कंपनियों को प्रत्येक वर्ष 18 दिन की सवेतन छुट्टी या अर्जित अवकाश, 7 आकस्मिक अवकाश और 7 सवेतन बीमार अवकाश प्रदान करना आवश्यक बनाता है। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम 2017 जो कंपनियों को महिला कर्मचारियों को 6 महीने का पूर्ण सवेतन मातृत्व अवकाश प्रदान करना आवश्यक बनाता है। लेकिन अधिकतर लोगों का कहना है कि भारत में श्रम कानूनों को ठीक से लागू नहीं किया जाता है। कर्मचारी अपनी नौकरी खोने के डर से अत्यधिक काम के घंटों या बर्नआउट के बारे में बोलने से डरते हैं। और सरकार है कि पूंजीपतियों के साथ खड़ी दिखती है।

वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अब तक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।