समाज से सियासत तक कैसे टूटे जाति?

समाज से सियासत तक कैसे टूटे जाति?

इस बार हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ द्वारा प्रेमचंद जयंती समारोह के अवसर पर 31 जुलाई 2024 को आयोजित वार्षिक संगोष्ठी का विषय “समाज से सियासत तक कैसे टूटे जाति” था। इस विषय पर बोलने वाले वक्ता बद्री नारायण तिवारी उर्फ़ NFS तिवारी या अपने ठाकुर चेलों के NFS गुरू, मनोज कुमार झा, सुरिन्दर सिंह जोधका, मीना कंडासामी, हिलाल अहमद और संचालक प्रियदर्शन थे।

सर्वप्रथम हंस पत्रिका की तरफ से उसके संपादक संजय सहाय ने जाति पर एक भूमिका रखी, उसी भूमिका को थोड़ा और विस्तार संचालक प्रियदर्शन ने दिया। पहले वक्ता के रूप में हिलाल अहमद ने मुसलमानों में उठने वाले जातीय विमर्श पसमांदा के दायरे में रहकर अपनी बात रखें। इनके बाद मीना कंडासामी ने जाति-व्यवस्था के वर्चस्व को पितृसत्ता से जोड़कर रेखांकित किया। यहाँ तक विषय की दिशा ठीक-ठाक थी।

इसके बाद जातीय श्रेष्ठता आधारित “द्विज आरक्षण” या गोश्वामी तुलसीदास की शब्दावली का “विप्र आरक्षण” का लाभ उठाकर प्रोफेसर बनाये गये बद्री नारायण तिवारी उर्फ़ ‘नॉट फाउंड सूटेबल शिष्य तैयार करने वाले एनएफएस गुरू’ बोलने के लिए अपने चरण कमलों को कष्ट देते हुए पधारते हैं, जिनका पहला वाक्य ही यह होता है कि जाति कैसे टूटेगी, इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकता है।

इसके बाद वे अपने शोध-कार्यक्षेत्र उत्तर भारत के साथ-साथ महाराष्ट्र की कई जातियों पर चर्चा करते हैं। उन्होंने जाति के व्यवसाय की तरफ इशारा किया लेकिन जाति को प्रकट करने वाले चुर्की, जनेऊ, टीका जैसे प्रतीक चिह्नों का जिक्र बिलकुल भी नहीं किया। क्योंकि इन्हीं में से किसी प्रतीक चिह्न से जुड़कर ही उन्हें आसानी से प्रोफेसरी की नौकरी मिली थी। उनका कुल वक्तव्य जलेबी की तरह गोल-गोल लिपटा हुआ था, जो मीठा बहुत था लेकिन उसका निचोड़ कुछ निकला नहीं। मेरे आस-पास बैठे श्रोताओं और बाद में बहुत से मित्रों ने कहा कि इस संगोष्ठी में कुछ हासिल नहीं हुआ। यही लग रहा था कि बड़े नाम वाले वक्ता बिना तैयारी के ही वक्तव्य देने के लिए आ गये थे।

सवाल-जवाब सत्र में जब पत्रकार नवीन कुमार ने नॉट फाउंड सूटेबल शिष्य तैयार करने वाले एनएफएस गुरू से यह सवाल पूछा कि जब आप गोविंद वल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान के डायरेक्टर थे तब आपने ओबीसी के 23 प्रोफेसर पदों पर एनएफएस किया था। आपके ऐसे कृत्य से जाति-व्यवस्था मजबूत होगी या टूटेगी? इस सवाल पर तिलमिलाते हुए प्रियदर्शन ने कहा कि व्यक्तिगत सवाल मत पूछिए। जाति पर व्याख्यान देंगे और जाति देखकर एनएफएस भी करेंगे लेकिन सवाल पूछने पर उत्तर नहीं देंगे। यह है – जातीय श्रेष्ठता की बौद्धिक बदमाशी।

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1- जाति के व्यवसाय पर आपने बात की लेकिन जाति आधारित मलाई खाने वाले प्रतीक चिह्नों चुर्की, जनेऊ, टीका पर आपने बात क्यों नहीं की? क्या इन प्रतीकों को समाप्त किये बगैर जातीय वर्चस्व को कमजोर किया जा सकता है?

2- हम विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों से दोस्ती या प्रिय गुरू-शिष्य संबंध विचारधारा के आधार पर बनाते हैं, हमें हमारी जाति वालों ने नहीं पढाया है, हम सवर्ण प्रोफेसरों से पढ़े हैं, ऐसी स्थिति में जब आप जैसे सवर्ण प्रोफेसर एनएफएस करते हैं तो वह शोधार्थियों का करते हैं या फिर उन तमाम सवर्ण प्रोफेसरों की मेरिट और योग्यता पर सवाल उठाते हैं, जिनसे हम पढ़े हुए हैं।

3- एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में डॉ अंबेडकर ने लिखा है कि मंदिरों में पुजारियों के चयन की व्यवस्था परीक्षा के जरिये करनी चाहिए। सभी हिन्दुओं को इस परीक्षा में सम्मिलित होने का अधिकार दिया जाना चाहिए। आजादी के 77 साल बाद बने राम मंदिर में एक ब्राह्मण कौन-सी परीक्षा पास करके पुजारी बना है? क्या इससे जाति टूटेगी या ब्राह्मण जाति का जातीय वर्चस्व और अर्थव्यवस्था मजबूत होगी?

मेरी एक टिप्पणी हंस पर थी कि आपको उत्तर भारत से कोई पिछड़ा या दलित बुद्धिजीवी क्यों नहीं मिला, जो इस मुद्दे पर अपने भोगे हुए अनुभव के साथ अपने विचार रखता। मैं अब तक हंस द्वारा आयोजित जितनी वार्षिक संगोष्ठियों में बतौर श्रोता उपस्थित हुआ था, उनमें यह सबसे बेकार थी।

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