औद्योगिक कचरे से कितने बड़े खतरे की ओर बढ़ रहा है समाज
दिशा छात्र संगठन द्वारा डाक्यूमेंट्री फिल्म का प्रदर्शन और परिचर्चा का आयोजन किया गया
बनारस। दिशा छात्र संगठन और बनारस सिनेफाइल्स की ओर से अरीब हाशमी द्वारा निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘गंगनौली – लाइफ इन चोक्ड डेसोलेशन’ और ‘ऐन अनइक्वल फाइट’ का प्रदर्शन और बातचीत की गयी। फिल्म पर चर्चा करते हुए दिशा छात्र संगठन की नीशू ने बताया कि यह फिल्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश में औद्योगिक कचरे के बिना शोधित किये नदियों में फेंके जाने की वज़ह से आसपास के गाँवों में फैली हुई कैंसर, हड्डियों में टेढ़ापन, टीवी, विकलांगता जैसी भयंकर बीमारियों और इंसानी जीवन की तबाही को केंद्र में रख कर बनाई गयी है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन इलाकों में लगभग 350 से अधिक गाँव हैं जहाँ लगभग 60 लाख लोग इन बीमारियों से जूझ रहे हैं।आसपास के औद्योगिक इकाइयों का सारा कचरा बिना शोधित किये सीधे नदियों में डाल दिया जाता है। यह कचरा पानी में घुलते हुए भूजल में भी मिल गया है जिसका इस्तेमाल करने वाली आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है। सरकार द्वारा पानी के इस सैम्पल को न केवल पास कर दिया गया है, बल्कि साथ ही इस बात से भी इनकार कर दिया गया है कि इन इलाकों में ऐसी कोई समस्या है. फिल्म में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने अपने इंटरव्यू में बताया कि जब उन्होंने इस इलाके में बहने वाली हिंडन और कई नदियों के सैम्पल को लैब में भेजा तो रिपोर्ट में यह सामने आया कि यह पानी जैसी कोई चीज़ नहीं है बल्कि रसायनों का मिश्रण है।
डाक्यूमेंट्री फिल्म के निर्माताओं ने जब इसके लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों से बात की तो उन्होंने ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसी संस्थाओं द्वारा भी इन मुद्दों पर होने वाली कवायदें भी रस्मी साबित होती हैं। उन्होंने आगे बताया कि ऐन अनइक्वल फाइट प्रदूषण के खिलाफ़ चार दशक लम्बे कानूनी संघर्ष की कहानी है। यह कहानी कोर्ट और अन्य प्रदूषण नियामक संस्थाओं की सीमाओं को दर्शाती है। फ़िल्म में साफ़ दर्शाया गया है कि कैसे निजी मुनाफे की हवस के आगे कोर्ट के फ़ैसले से लेकर हर तरह के कानूनी प्रावधान बेबस साबित हो जाते हैं।
ध्रुव ने कहा कि यह फिल्म तो एक ख़ास इलाके को केन्द्र में रखकर बनाई गयी है पर इस तरह के क्षेत्र पूरे देश में मौजूद हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में औद्योगिक कचरों को उचित तरीके से निस्तारित करने के लिए बहुत से नियम-कानून बने हुए हैं, लेकिन यह सारा कुछ केवल किताबों तक सीमित रहता है अमल में नहीं आता। उद्योगपति अपने मुनाफ़े को बरकरार रखने के लिए सामानों की लागत कम करने की होड़ में कारखानों से निकलने वाला सारा कचरा शोधित करने की बजाय सीधे नदियों में फेंक देते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत में क्षरण जैसी समस्याएँ इसी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की देन हैं। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से प्रकृति और श्रमशक्ति को लूटने की खुली छूट दे दी गयी है। इसका नतीजा है कि आज पूरे देश में हर औद्योगिक इलाके के पास गंगनौली जैसी तस्वीर दिखाई देती है। पर्यावरण प्रदूषण पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले सरकार के भाड़े के अर्थशास्त्री कभी भी इस व्यवस्था के चरित्र की ओर इशारा नहीं करते बल्कि जनता को ही इन तमाम समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं।
दिशा छात्र संगठन के ज्ञान ने कहा कि उद्योगपतियों-नेताओं-अधिकारियों का गंठजोड़ मिलकर ऐसे तमाम नियमों-क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर प्रकृति के साथ-साथ मानवीय जीवन को भी तबाह कर रहा है। अभी पिछले दिनों वेदांता कंपनी के प्लांट द्वारा द्वारा तूतीकोरीन में प्रदूषण के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर स्नाइपर्स लगाकर गोलियां बरसाई गई. ऐसे में अपने निजी हित के लिए लोगों को मौत के मुंह में ढकेलने वाली व्यवस्था की जगह एक समानता और न्याय पर टिके समाज को बनाने की लिए आगे आना होगा। परिचर्चा में संगठन के छात्रों के साथ परिसर के अन्य छात्र भी शामिल रहे।
‘न्याय तक’ सामाजिक न्याय का पक्षधर मीडिया पोर्टल है। हमारी पत्रकारिता का सरोकार मुख्यधारा से वंचित समाज (दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक) तथा महिला उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना है।