नई शिक्षा नीति में समाज के कमजोर तबके को पीछे धकेलने का खतरा है
किसी भी तानाशाह की पहली सोच होती है कि जब भी सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो तोन विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें। मीडिया और अन्य जाँच एजेंसियों को अपने काबू में ले। इतना ही नहीं न्याय प्रणाली को अपने आधीन करले और 95% जनता को भिखारी बना दे। उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी। इस संदर्भ में क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारे प्रधान मंत्री की कार्यप्रणाली भारतीय लोकतंत्र को तानाशाही का जामा पहनाने की ओर अग्रसर है? इस लेख में केवल नई शिक्षा प्रणाली को लेकर ही बात की जा रही है।
नागरिकों के बुनियादी अधिकारों में शिक्षा भी शामिल है और बेहतर नागरिक बनाने के लिए शिक्षा ही एकमात्र औजार है, लेकिन अफसोस ये है कि चुनावी विमर्श और वोट की राजनीति में शिक्षा कभी प्रमुख मुद्दा नहीं बनता है। विश्वविद्यालय के छात्र और अध्यापक सिर्फ वोट बैंक की तरह ट्रीट किए जाते हैं। चुनावी राजनीति में बस उनका इस्तेमाल किया जाता है।
मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा संविधान में किया गया है। इसे दस साल में पूरा करने का लक्ष्य भी तय किया गया था, जो पूरा नहीं हो सका। सभी बच्चे स्कूल जाएँ और सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले।।।ये दो धाराएँ न होकर एक-दूसरे से परस्पर संबंधित और अपरिहार्य शर्तें हैं। इनमें से किसी एक को पूरा करके संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। बच्चों की असफलता का दोष केवल स्कूल के संस्थागत कारणों को नहीं दिया जा सकता। दोष प्रायः संसाधनों के अभाव और शिक्षकों के अकुशल रवैये को दिया जाता है। लेकिन यह भी तय है कि केवल इन्हें ही दोषी मानकर इस समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता। इस समस्या का समाधान यही है कि अध्यापकों पर संदेह करने और उनके कार्यों की निगरानी के बजाय उन पर भरोसा किया जाए और उन्हें समर्थ और कुशल बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए जाएँ। सिद्धांतत: यह एक आदर्श विचार हो सकता है किंतु अध्यापकों में जो समाज के गैरदलित वर्ग से आते हैं, उनका गरीब बच्चों के प्रति सामाजिक प्रतिकार का स्वभाव हमेशा बना रहता है।
अक्सर देखने को मिलता है कि आधिकारिक स्तर पर मिड-डे मील स्कीम के कार्यान्वयन को लेकर ठोस योजना का अभाव एक बड़ा गतिरोध है।ग्रामीण स्कूलों में मिड-डे मील संचालन के तौर-तरीके भी हमेशा सवालों के घेरे रहते हैं। कहना न होगा कि स्कूलों में बच्चों को खाना खिलाने में ही शिक्षकों का काफी समय व्यर्थ हो जाता है। और बच्चों का ध्यान भी मिड-डे मिल की ओर लगा रहता है। होता क्या है कि ग्रामीण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे समाज के गरीब और निरीह वर्गों के परिवारों से आते हैं। मुझे तो कभी-कभी आशंका होती है कि ग्रामीण स्कूलों में मिड-डे मील संचालन की व्यवस्था ऐसे बच्चों में शिक्षा के प्रति मोह भंग करने की एक साजिश है।
इसके अलावा पाठ्यक्रम के बोझ को कम करना, पास-फेल की नीति में बदलाव या बाल केंद्रित शिक्षा के बहाने संसाधनों की भरमार के बावजूद यह विचार करना होगा कि कैसे शिक्षा की प्रक्रिया में गाँव और शहर का अंतर कम किया जा सके। ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षणिक स्तर ऊंचा उठाने के लिये हर हाल में प्राथमिक शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा। लेकिन इस दिशा में न तो जनप्रतिनिधि पर्याप्त रुचि दिखाते हैं और न ही शिक्षा विभाग के अधिकारी। सरकार की ओर से कई तरह की सुविधाएँ देने के प्रावधानों के बावजूद धरातल पर स्थिति में बहुत सुधार नज़र नहीं आते।
नई एकीकृत शिक्षा योजना
केंद्र सरकार ने 1 अप्रैल 2018 से 31 मार्च, 2020 के लिये नई एकीकृत शिक्षा योजना बनाई है। इस योजना में सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक शिक्षण अभियान समाहित हैं। इस योजना के लिये 75 हज़ार करोड़ रुपए मंजूर किये गए हैं। इस योजना का लक्ष्य सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा देना तथा पूरे देश में प्री-नर्सरी से लेकर 12वीं तक की शिक्षा सुविधा सबको उपलब्ध कराने के लिये राज्यों की मदद करना है। एकीकृत स्कूली शिक्षा योजना में शिक्षकों और प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने पर खास ज़ोर दिया गया है।
गुणवत्ता युक्त शिक्षा की व्यवस्था और छात्रों के सीखने की क्षमता में वृद्धि स्कूली शिक्षा में सामाजिक और लैंगिक असमानता के अंतर को कम करना स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर समानता और समग्रता सुनिश्चित करना, स्कूली व्यवस्था में न्यूनतम मानक सुनिश्चित करना, शिक्षा के साथ व्यवसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देना और नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार, 2009 को लागू करने के लिये राज्यों की मदद करना राज्यों की शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषदों, शिक्षण संस्थाओं तथा ज़िला शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थाओं को शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिये नोडल एजेंसी के रूप में सशक्त और उन्नत बनाना। नई एकीकृत शिक्षा योजना के योजना के प्रमुख उद्देश्य माने गए हैं।
योजना के प्रमुख लाभ
शिक्षा के संदर्भ में समग्र दृष्टिकोण : पहली बार स्कूली शिक्षा के लिये उच्चतर माध्यमिक और नर्सरी स्तर की शिक्षा का समावेश संपूर्ण इकाई के रूप में स्कूलों का एकीकृत प्रबंधन गुणवत्ता युक्त शिक्षा पर ध्यान, सीखने की क्षमता को बेहतर बनाने पर जोर शिक्षकों के क्षमता विकास को बढ़ाना शिक्षक प्रशिक्षण गुणवत्ता सुधार के लिये प्रशिक्षण संस्थाओं को सशक्त बनाना, डिजिटल बोर्ड और स्मार्ट क्लासरूम के ज़रिये शिक्षा में डिजिटल प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, विद्यालयों को स्वच्छ बनाए रखने के लिये स्वच्छता गतिविधियों की विशेष व्यवस्था करना इस नई एकीकृत शिक्षा योजना के मुख्य के लाभ बताए जाते हैं।
सरकारी स्कूलों में बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता सुधारने के चलते ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान की प्रतिबद्धता को बढ़ावा देने के लिये कक्षा 6 से लेकर 12वीं कक्षा तक कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों का उन्नयन और स्कूलों में कौशल विकास पर ज़ोर देना और शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े ब्लॉकों, चरमपंथ प्रभावित राज्यों, विशेष ध्यान देने वाले राज्यों/ज़िलों और सीमावर्ती इलाकों तथा विकास की आकांक्षा वाले 115 ज़िलों को प्राथमिकता देना इस योजना का प्रमुख उद्देशय बताया गया है। ( स्रोत: ASER रिपोर्ट 2018 तथा PIB से मिली जानकारी पर आधारित)
बजट 2024
पिछले 10 साल में मोदी सरकार के एजुकेशन बजट में क्या-क्या बदला? यह भी जानना बहुत जरूरी है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है 2024 के अंतरिम बजट में लोगों को ज्यादा बड़े ऐलानों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बहरहाल, पिछले दो वित्त वर्ष में शिक्षा, कौशल विकास आदि के आवंटन में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। अगले साल का अंतरिम बजट भारतीय जनता पार्टी की सरकार का 10वां बजट होगा। हम आपको यहां पिछले दशक के दौरान बजट में शिक्षा से जुड़े किए गए अहम प्रावधानों के बारे में जानकारी पेश कर रहे हैं।।।2023 के बजट में शिक्षा मंत्रालय को 1,12,899 करोड़ रुपये का आवंटन मिला और इसमें 13 पर्सेंट की बढ़ोतरी हुई।
साल 2020 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के केन्द्र में दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश किया। इसमें 99,300 करोड़ रुपये शिक्षा के क्षेत्र के लिए आवंटित किए गए थे। यह आवंटन सालाना आधार पर 5% ज्यादा था। इसके अलावा, कौशल विकास के लिए 3,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। बजट में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश लाने और नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP 2020) को लागू करने पर फोकस किया गया था। मई 2019 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा जारी किया गया था, जिसमें शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत खर्च करने का प्रस्ताव दिया गया था। इसके विपरीत Union Budget 2021-22: 2021 का बजट के अनुसार शिक्षा मंत्रालय को 93,224 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जो एजुकेशन सेक्टर में पिछले साल के वास्तविक खर्च से 2।1% ज्यादा था। 2021 के बजट में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत नए स्कूलों और लेह में सेंट्रल यूनिवर्सिटी की स्थापना के जरिए स्कूली और उच्च शिक्षा की पहुंच बढ़ाने का ऐलान किया गया था। इस बजट में स्कूली शिक्षा के लिए 54,874 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। यह आवंटन वित्त वर्ष 2021 के वास्तविक खर्च से 2.2% ज्यादा था। उच्च शिक्षा के लिए पिछले वित्त वर्ष के वास्तविक खर्च से 1।9% ज्यादा (38,351 करोड़) का आवंटन किया गया। जो 2024 के बजट से ज्यादा है।
2022 के बजट में शिक्षा मंत्रालय को 1।04 लाख करोड़ का बजट आवंटित किया गया, जोकि 2021-22 के संशोधित खर्च के मुकाबले 18.5% अधिक था। इसमें स्कूली शिक्षा के लिए 63,449।37 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जो वित्त वर्ष 2022 के संशोधित अनुमानों से 22.1% ज्यादा था। उच्च शिक्षा का बजट 40,828 करोड़ रुपये था, जो वित्त वर्ष 2022 के संशोधित अनुमानों से 13.3% ज्यादा था। बजट में मॉडल स्कूलों, शिक्षकों की ट्रेनिंग और कुछ खास संस्थानों को स्कॉलरशिप के आवंटन पर जोर दिया गया था। वर्ष 2023 में शिक्षा मंत्रालय को 13% की बढ़ोत्तरी के साथ 1,12,899 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया। यह वित्त वर्ष 2024 के लिए सरकार के कुल अनुमानित खर्च का 2।9% था। इस बजट में समग्र शिक्षा अभियान के लिए बड़ी रकम (37,453 करोड़ रुपये) आवंटित की गई। बजट में एकलव्य स्कूलों के लिए 38,000 से भी ज्यादा शिक्षकों की भर्ती करने का ऐलान भी किया गया था। इस साल स्कूली शिक्षा के लिए 68,805 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जो वित्त वर्ष 2023 के संशोधित अनुमानों से 16.5% ज्यादा है। इसके अलावा, उच्च शिक्षा के लिए 44,095 करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो वित्त वर्ष 2023 के संशोधित अनुमानों के मुकाबले 8% ज्यादा है।
- पिछले सालों में देशभर में बंद हो गए 20 हजार से अधिक स्कूल, शिक्षकों की संख्या में भी आई गिरावट भारत में स्कूली शिक्षा के लिये एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली प्लस (यूडीआईएसई-प्लस) की 2021-22 की बृहस्पतिवार को जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया कि 2021-22 में स्कूलों की कुल संख्या 14.89 लाख है जबकि 2020-21 में इनकी संख्या 15.09 लाख थी।
शिक्षा मंत्रालय की एक नई रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई कि देशभर में 2020-21 के दौरान 20,000 से अधिक स्कूल बंद हो गए, जबकि शिक्षकों की संख्या में भी पिछले वर्ष की तुलना में 1।95 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। भारत में स्कूली शिक्षा के लिये एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली प्लस (यूडीआईएसई-प्लस) की 2021-22 की बृहस्पतिवार को जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया कि 2021-22 में स्कूलों की कुल संख्या 14।89 लाख है जबकि 2020-21 में इनकी संख्या 15।09 लाख थी।
स्कूलों की संख्या में गिरावट मुख्य रूप से निजी और अन्य प्रबंधन के तहत आने वाले विद्यालयों के बंद होने के कोरोना जैसी घटनाओं के साथ-साथ और कई कारण बताए गए किंतु देखने की बात है कि स्कूलों की यह दुर्दशा केवल ग्रामीण इलाकों में क्यूँ देखी गई है। इतना ही नहीं शासकीय उदासीनता के कारण अनेक स्थानों पर बंद होते सरकारी स्कूल चिंता बढ़ा रहे है। देश में स्कूल शिक्षा के संदर्भ में एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद किया गया है या फिर उन्हें दूसरे स्कूलों में समायोजित किया गया है जो वाकई चिंताजनक है। लेकिन बीते कुछ वर्षो में सरकारी स्कूलों की संख्या में हो रही कमी चिंता का विषय है और 2020-21 में बंद किए जाने के कारण लगभग सभी राज्यों में सरकारी स्कूलों की संख्या में कमी हुई है, जबकि इसके विपरीत निजी स्कूलों की संख्या में इजाफा हुआ है।
यह बात स्कूल शिक्षा विभाग की इकाई यूनाइटेड डिस्टिक्ट इन्फार्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन प्लस (यूडीआइएसई प्लस) 2020-21 की रिपोर्ट में सामने आई है। हालांकि यह यूडीआइएसई के प्राथमिक गणना के आंकड़े है, लेकिन अंतिम आंकड़ों में भी कोई विशेष बदलाव नहीं होगा। लिहाजा इस रिपोर्ट के अनुसार देशभर में सरकारी स्कूलों की संख्या 2018-19 में 10,83,678 थी, जो साल 2019-20 में घटकर 10,32,570 रह गई है। यानी इस सत्र के दौरान देशभर में 51,108 सरकारी स्कूल बंद या फिर उनका किसी अन्य स्कूल में समायोजन कर दिया गया। वहीं यह संख्या 2020-21 में घटकर 10,32,049 रह गई है।
वहीं दूसरी तरफ अगर प्राइवेट स्कूल की बात करें तो इनकी संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। देशभर में प्राइवेट स्कूलों की संख्या सत्र 2018-19 में 3,25,760 हुआ करती थी, जो 2019-20 में बढ़कर 3,37,499 हो गई है। इस तरह केवल इन दो सत्रों में प्राइवेट स्कूल की संख्या में 3।6 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है, वहीं सत्र 2020-21 में यह संख्या बढ़कर 3,40,753 तक पहुंच गई। हालांकि इसके विपरीत चंद राज्यों में सरकारी स्कूलों की संख्या में वृद्धि भी देखी गई। इस दौरान बंगाल में सरकारी स्कूलों की संख्या 82,876 से बढ़कर 83,379 हो गई, जबकि बिहार में 72,590 से बढ़कर 75,555 हो गई। निजी स्कूलों की भारी भरकम फीस के कारण गरीब और पिछड़ा तबका हमेशा से शिक्षा से वंचित रहा है। ऐसे में उनके लिए सरकारी स्कूल की नि:शुल्क शिक्षा व्यवस्था ही शिक्षा प्राप्त करने का एकमात्र सहारा रहा है।
दरअसल, सरकारी स्कूलों में व्यवस्था के प्रति शासकीय उदासीनता के चलते अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। वहीं नियमित शिक्षकों की नियुक्ति में सरकारों की विफलता और गैर शैक्षणिक कार्य में शिक्षकों की नियुक्ति ने शिक्षण और सीखने की गुणवत्ता को प्रभावित किया, जिससे माता-पिता निजी स्कूलों की ओर देखने के लिए मजबूर हो गए। फिर सरकारी स्कूलों में कम एनरोलमेंट होने के कारण इन स्कूलों को पास के बड़े स्कूलों के साथ विलय करके बंद करने का बहाना ढूंढ लिया गया है।
वर्ष 2016 में सरकारी सचिवों के एक समूह ने कम एनरोलमेंट वाले स्कूलों को बंद करके पास के स्कूलों में विलय की सिफारिश की थी। नीति आयोग ने अगले वर्ष 2017 में इस प्रस्ताव का समर्थन किया। हालांकि यूडीआईएसइ प्लस की इस रिपोर्ट में सरकारी स्कूलों की संख्या में गिरावट के कारणों की व्याख्या नहीं की गई है, लेकिन तर्क यह दिया गया था कि शिक्षा का अधिकार कानून के तहत हर कक्षा में एक शिक्षक होना जरूरी है। लेकिन यदि प्राथमिक विद्यालय में सभी पांच कक्षाओं में 50 से कम बच्चे हैं, और वहां पांच टीचर कार्यरत हैं, तो सरकार के लिए ऐसे स्कूल का समर्थन करना बहुत महंगा हो जाता है। इसलिए इन्हें बंद करके पास के स्कूल में समायोजित कर दिया जाना चाहिए। परंतु यहां बड़ी बात यह है कि सबसे ज्यादा स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में बंद किए गए हैं और अगर वहां स्कूल बंद करके अन्यत्र समायोजित किया गया है, तो यदि वह स्कूल अधिक दूर है, लिहाजा अधिकांश बच्चे समायोजित हुए विद्यालय तक नहीं पहुंच पाते हैं और उनकी शिक्षा वहीं पर आकर थम जाती है।
समग्रता में देखा जाए तो बात यह भी है कि सरकारी स्कूलों में ज्यादातर गरीब व पिछड़े तबके के विद्यार्थी निशुल्क शिक्षा प्राप्त करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोरोना काल के बाद कई राज्यों में सरकारी स्कूलों के नामांकन में रिकार्ड वृद्धि हुई है। वहीं एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक अब भी देशभर में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या 60 लाख से अधिकहै। ऐसे में सरकारी स्कूल बंद करने का निर्णय एक बड़े वंचित तबके के बच्चों को शिक्षा की पहुंच से दूर करने वाला कदम है। ऐसे स्कूलों को बंद करने के बजाय वहां बजट बढ़ाकर सरकारी स्तर पर सारी सुविधाएं मुहैया करनी चाहिए जिससे ज्यादा से ज्यादा बच्चे उस स्कूल की तरफ आकर्षित हो सकें।
कई दफा यह देखने में आया है कि स्कूल में भौतिक सुविधाएं बढ़ाने और शिक्षकों की पर्याप्त संख्या होने पर वहां नामांकन में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई। शिक्षा का अधिकार कानून प्रत्येक बच्चे तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था, अब अगर इस तरह सरकारी स्कूल बंद किए जाएंगे तो एक बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित रह जाएगा, जिसकी जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा? इस पर विचार करना होगा।
इस नई शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन में नए-नए चीजों को सीखने के प्रति रुचि जगाना है। ताकि बच्चे जीवन में अपनी योग्यताओं के बलबूते एक अच्छे भविष्य का निर्माण कर सकें। इसके अतिरिक्त अपने मातृभाषा को बढ़ावा देना भी इस शिक्षा नीति का उद्देश्य हैं। जैसे बच्चों को भविष्य के लिए तैयार करना और इन कक्षाओं के बच्चों को गणित, कला, सामाजिक विज्ञान और विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाया जाएगा। इतना ही नहीं इन पाठ्यक्रम के अतिरिक्त बच्चो को टेक्निकल ज्ञान भी दिए जाएंगे। बच्चों को कोडिंग भी सिखाया जाएगा, जिससे वे भी चाइना के बच्चों की तरह ही छोटी उम्र में ही सॉफ्टवेयर और ऐप बनाना सीख पाएंगे। आगे के 9वीं से 12वीं तक की कक्षाओं को अंतिम स्तर में रखा जाएगा, जिसके दौरान बच्चे अपने मनपसंद विषयों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर पाएंगे। इस तरीके से नई शिक्षा नीति के माध्यम से न केवल बालकों के पाठ्यक्रम में बदलाव होगा बल्कि बच्चों के शिक्षण के तरीके में भी सुधार है। यहाँ सोचने बात यह भी है कि अपने घर के बजाए दूसरे के घरों में झाँककर सीमित संसाधनों के चलते नीतियाँ बनना कितना सार्थक और व्यावहारिक होगा।
प्रो. उमेश कुमार सिंह के अनुसार ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ देश की तीसरी ऐसी शिक्षा नीति है जो पुरानी शिक्षा नीतियों के गुण-दोष पर समीक्षा कर अपने साथ एक नया दृष्टिकोण ले कर आई है। जिसमें अनेक संभावनाएं तो भरी हैं किन्तु कुछ संशय के बादल भी। इसलिए यह समझ लेना आवश्यक है की कब-कब क्या हुआ? स्वतंत्रता के बाद सर्वप्रथम 1948 में डॉ। राधाकृष्णन की अध्यक्षता में ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ का गठन हुआ था। 1952 में मुदलियार आयोग, फिर शिक्षा के क्षेत्र में पहला ‘कोठारी आयोग’ (1964-1966) आया जिसकी सिफारिशों पर आधारित 1968 में पहली बार महत्त्वपूर्ण बदलाव वाला प्रस्ताव पारित हुआ था। 1968 के बाद अगस्त, 1985 में ‘शिक्षा की चुनौती’ नामक एक दस्तावेज तैयार किया गया, जिसमें भारत के विभिन्न वर्गों (बौद्धिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यावसायिक, प्रशासकीय आदि) ने अपनी शिक्षा सम्बन्धी टिप्पणियाँ दीं और 1986 में भारत सरकार ने ‘नई शिक्षा नीति 1986’ का प्रारूप तैयार किया। इस नीति में सारे देश के लिए एक समान शैक्षिक ढाँचे को स्वीकार किया गया और अधिकांश राज्यों ने 10+2+3 की संरचना को अपनाया। बाद में 1992 में इस नीति में कुछ संशोधन किया गया था।
2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में एक ‘नवीन शिक्षा नीति’ बनाने का विषय था। अत: सत्ता में आने के बाद केंद्र सरकार (मोदी जी की नेतृत्व वाली सरकार) द्वारा ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण के लिए जून, 2017 में इसर (ISRO) प्रमुख डॉ। के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। 2019 में ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ ने ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के लिये जनता से सलाह माँगना प्रारम्भ किया और मई, 2019 में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ का मसौदा आया। 29,जुलाई-2020 को केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ (National Education Policy- 2020) को मंज़ूरी दी। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ पुरानी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों, वर्ष 1968 और 1986 [National Policy of Education (NPE), 2020] के बाद स्वतंत्र भारत की यह तीसरी शिक्षा नीति बनी। जिसमे ‘मानव संसाधन विभाग’ अब ‘शिक्षा विभाग’ में बदल गया।
हर शिक्षा नीति अपने विजन और आकांक्षाओं में अच्छी ही थी, लेकिन उसके धरातल पर उतरने में जमीन आसमान का फर्क रहा है। क्या यह शिक्षानीति भी समूचे समाज की आकांक्षाओं, आग्रहों और सोच को संतुष्ट कर पाएगी, क्योंकि व्यावहारिक जरूरतें कुछ और हैं और शिक्षा नीति अपने ढंग से चीजों को देखती है। तो क्या स्वतंत्र भारत की यह तीसरी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ नई सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगी? शिक्षा नीति का महत्त्वपूर्ण बिन्दु प्राथमिक स्तर पर भारतीय भाषाओं में शिक्षा देना है। किन्तु बीते दशक में जिस तरह से शिक्षा में निजीकरण और अर्थ व्यवस्था के कारपोरेटीकरण ने भारतीय भाषाओं की शिक्षा के आग्रह को अंगरेजी शिक्षा की जरूरत और जुनून ने लगभग दफन किया है, वह इसमें सबसे बड़ी बाधा है। अल्पसंख्यक विद्यालयों में मदरसों को छोड़कर क्या अन्य अल्पसंख्यकों के विद्यालयों में बहुसंख्यक विधार्थियों के प्रवेश पर कोई रोक या नियम बनेगें इसमें कही नहीं है। फिर मातृभाषा का क्या होगा।
त्रिभाषा फार्मूले का क्या होगा?
तामिलनाडु इसके लिये तैयार नहीं। वह दो ही भाषा अंग्रेजी और तमिल पढ़ाना चाहता है। ऐसे ही कुछ और राज्यों की ओर से विषय आयेंगे। छठी के पूर्व बच्चे को क्रियेटिव बनाया जायेगा तथा कक्षा छह के बाद वोकेशनल। क्या यह सम्भव है और छठी कक्षा के विद्यार्थी को क्या यह बौद्धिक सामर्थ्य रहेगा? क्या ग्रामीण विद्यालयों के कक्षा छह के विद्यार्थियों को अपरेंटिस अवसर देने के लिए संस्थान और उद्योगिक संस्थाएं हैं?क्या प्रत्येक विद्यालय में सभी मनचाहे विषय को पढ़ने वाले शिक्षक होंगे? क्या प्रायवेट और शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों की अमीर- गरीब की खाई कैसे खत्म होगी? क्या निजीकरण के इस दौर में माता-पिता बच्चे को मातृभाषा में पढ़ाने को क्या तैयार होंगे? ऐसे प्रश्नों के समाधान तथा अपेक्षित परिणामों हेतु कुछ और नीतियाँ बनानी होंगी, ऐसा लगता है। इसके लिए यह जरूरी है कि ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ में शिक्षा अंतिम छात्र तक पहुँचे, यह समानता और गुणवत्ता वाली शिक्षा सभी के लिए सुलभ हो और उत्तरदायित्व का विकास करे। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ उच्चतर शिक्षा को अलग-अलग करके देखना होगा।
नई शिक्षा नीति में समाज के कमजोर तबके को पीछे धकेलने का खतरा साफ झलकता है। शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने वाली कस्तूरी रंगन समिति ने 2019 में नई शिक्षा नीति के चौथे ड्राफ्ट में नई शिक्षा नीति में समाज को पीछे धकेलने का खतरा है। शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने वाली कस्तूरी रंगन समिति ने 2019 में नई शिक्षा नीति के चौथे ड्राफ्ट मेंलेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि जिन बच्चों के परिजन शिक्षित नहीं रहे हैं, उनके ही बच्चे ऐसे केंद्रों में जाकर कम आय वर्ग और जातिगत पेशों में ही फंसे रह जाएंगे।
1990 के दशक में आर्थिक और राजनीतिक नीतियां समाज के संकटों का सामना करने में असफल रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं रहा है कि जटिल और अप्रत्याशित समस्याओं के इस दौर में नई पीढ़ी को एक वैश्विक समाज और वैश्विक अर्थव्यवस्था में जीवन-यापन करने के लिए सक्षम बनाना आज सबसे बड़ी चुनौती है। क्या हमने कभी इस बात पर गौर किया है कि कब लाइब्रेरी में गांधी, टैगोर और विवेकानंद को पढ़ने की जगह कुंजियों ने ले ली है। छात्र क्लास से गायब हो गए हैं और कोचिंग संस्थानों में सिर धुन रहे हैं। उस पर भी कोटा जैसा शहर कोचिंग का नहीं सुसाइड का सेंटर बनने लगा है तो इस पर सोचना चाहिए। क्या ऐसी शिक्षा की कल्पना की जा सकी है जिसका उद्देश्य सिर्फ नौकरी न हो, युवाओं के लिए ‘न’ और ‘नाकामी’ को जज्ब कर पाना आज मुश्किल हो गया है।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।