हिन्दी कहानी का प्रेम पथ में पढ़िये विजय दान देथा की कहानी ‘दुविधा’

हिन्दी कहानी का प्रेम पथ में पढ़िये विजय दान देथा की कहानी ‘दुविधा’
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एक मायापति सेठ था। उसके इकलौते बेटे की बरात धूमधाम से ब्याह करके वापस आ रही थी। ज़रा सुस्ताने के लिए बरात एक ठौर रुकी। घेर-घुमेर खेजड़ी की घनी छाया। सामने हब्बाहोल ठाटें मारता तालाब। काच-सा निरमल पानी। सूरज सर पर चढ़ आया था। झुलसते जेठ की लुएँ साँए-साँए बज रही थीं। खा-पीकर आगे चलें तो अच्छा। दूल्हे के बाप के कहते ही सब राजी ख़ुशी मान गए। दुल्हन के साथ पाँच डाविड़याँ थीं। वे सब खेजड़ी की छाया में जाजम बिछाकर बैठ गईं। पास ही एक बड़ा बबूल था। पीले फूलों से अटा हुआ। चाँदी के उनमान धवल हिलारियाँ। बाक़ी बरातियों ने बबूल की छाया पर क़ब्ज़ा किया। कुछ देर बिसाई करने के बाद खाने-पीने का सराजाम होने लगा।

दुल्हन बरातियों की ओर पीठ करके घूँघट उघाड़कर बैठ गई। ऊपर देखा—साँगरियाँ ही साँगरियाँ। पतली हरीचैर। देखते ही पुतलियाँ ठंडी हो गईं। संजोग की बात कि उस खेजड़ी पर एक भूत रहता था। इत्र-फुलेल से महकता दुल्हन का चेहरा देखकर उसकी आँखें चुँधियाँ गई। क्या लुगाई का ऐसा रूप और यौवन होता है? गुलाब के फूलों की कोमलता, सौरभ और रस-कस ही जैसे साँचे ढला हो। देखकर भी भरोसा नहीं होता। बादलों का ठीया छोड़कर बिजली तो नहीं उतर आई? इन मिरगनैनों की तो थाह ही नहीं! जैसे समूची क़ुदरत का रूप उसकी देह में समा गया हो। हज़ारों लुगाइयों का रूप देखा, पर इसकी तो रंगत ही न्यारी! खेजड़ी की छाया भी दिप-दिप करने लगी। भूत की जून धन्य हो गई! दुल्हन को लगने का विचार किया तो भूत को फिर चेत हुआ। इस से तो यह कष्ट पाएगी। ऐसे रूप को तकलीफ़ कैसे पहुँचाए! भूत गताघम में पड़ गया। यह तो अभी चली जाएगी। फिर? न लगते बनता है न छोड़े बनता है। इधर कुआँ, उधर खाई। ऐसी दशा तो कभी नहीं हुई। तो क्या दूल्हे को लग जाऊँ? पर तब भी दुल्हन को दुख होगा! इस रूप को दुख हुआ तो न बादल बरसेंगे, न बिजलियाँ चमकेंगी। न सूरज उगेगा, न चाँद। सारी क़ुदरत उलट-पुलट हो जाएगी। भूत को ऐसी दया माया तो कभी नहीं आई। इस रूप को दुख देने से तो ख़ुद दुख उठाना अच्छा है। ऐसा दुख भी कहाँ नसीब होता है! इस दुख परस से भूत की जून सफल हो जाएगी।

वहाँ कित्ती देर रुकते! आख़िर तो चलना ही था। दुल्हन पाँवों पर खड़ी होकर आगे बढ़ी तो भूत की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। रात को स्पष्ट देखने वाली आँखें जवाब कैसे दे गई? आकाश के बीच चमकते सूरज पर कालस कस पुत गया?

रुनझुन चलती दुल्हन दूल्हे की बहल पर चढ़ी। यह दूल्हा कित्ता सभागिया है! कित्ता सुखी है! भूत के रोम-रोम में सूलें खुबने लगीं। हिए में भट्टी दहक उठी। बिछोह की जलन के मारे न जीया जाता है न मरा जाता है। जीते जी यह जलन कैसे सहे! और मरने के बाद यह जलन भी कहाँ! ऐसी ऊहापोह में तो कभी नहीं फँसा। बहल के अदीठ होते ही वह बेचेत हो गया।

और उधर बहल में बैठे दूल्हे की उलझन भी कम न थीं। दो घड़ी हो गई सर खपाते, पर ब्याह के ख़रच का हिसाब नहीं मिल रहा। भायजी गुस्सा होंगे। ख़रच भी कुछ बेसी हो गया। ऐसी भूल-चूक से वे बहुत नाराज़ होते हैं। हिसाब और बिणज का सुख ही असली सुख हैं। बाक़ी सब पंपाल। ख़ुद भगवान भी पक्का हिसाबी हैं। एक-एक की साँस का पूरा हिसाब रखता है। बरसात की बूँद-बूँद का, हवा के रेशे-रेशे का और धरती के कण-कण का उसके पास सही पोता है। क़ुदरत के हिसाब में भी भूल नहीं चल सकती तब बनिए की बही में भूल कैसे खप सकती है!

माथे में बल डाले दूल्हा आँकड़ों का जोड़-तोड़ बिठा रहा था दुल्हन ने बहल का परदा उघाड़कर बाहर देखा। चिलकती तीखी धूप। हरियल केरों पर कसूँबल ढालू दिप-दिप कर रहे थे। कित्ते सुहाने! कित्ते मोहक! मुस्कराते ढालू-ढालू में दुल्हन की जोत पिरो गई। दूल्हे की बाँह पकड़कर अबूझ बच्चे की नाई बोली, “बही से नज़र तो हटाकर ज़रा बाहर तो देखो! कित्ते सुंदर ढालू हैं! नीचे उतरकर दोएक धोबे ढालू ला दो! ऐसी चिलचिलाती धूप में भी ये फीके नहीं पड़े। ज्यूँ धूप पड़ती है ज़्यादा लाल होते हैं।

दूल्हा आदमियों जैसा आदमी था। न सुंदर न भौंडा। भरी जवानी में ही ब्याह हुआ था, पर ब्याह की कोई खास ख़ुशी नहीं थी। पाँच बरस नहीं होता तब भी चल जाता। और हो गया तो बहुत अच्छा! कभी न कभी तो होना ही था। बड़ा काम निपटा। नवलखे हार पर हाथ फिराते हुए बोला, “ढालू तो गँवार खाते हैं। तुम्हें इसकी चाह कैसे हुई? खाने की इच्छा हो तो रक्खी में से खारक खोपरे निकालूँ? जी भरकर खाओ!

दुल्हन भी निरी गँवार निकली। हठ करते हुए बोली, “नहीं, मुझे थोड़े ढालू ला दो! आपका बहुत गुण मानूँगी। आप तकलीफ़ न उठाना चाहें तो मुझे आज्ञा दें। मैं ले आती हूँ।

दूल्हा अपनी बात पर अड़ा रहा, “इन काँटों से कौन उलझे! जंगली ही ढालू तोड़ते हैं और जंगली ही खाते हैं। मखाने खाओ। पतासे खाओ। इच्छा हो तो मिसरी अरोगो। गुट्टे ढालुओं की घर पर बात ही मत करना। लोग हँसेंगे।

हँसे तो हँसे। यह कहकर दुल्हन बहल से कूद पड़ी। तितली की तरह केर-केर पर उड़ती रही। कुछ ही देर में पल्लू में लाल चुट्ट ढालू लेकर वापस आई।

बुगती के पानी से ढालू धोए। ठंडे किए होंठों और दालुओं का रंग एक जैसा। पर दूल्हे को न दालुओं का रंग भाया, न होठों का। वह अपने हिसाब में उतना रहा। दुल्हन ने बहुत निहोरे किए, पर उसने ढालुओं को छुआ तक नहीं।

आपकी मरजी! अपनी-अपनी पसंद है। इन ढालुओं के बदले अपना नवलाख हार केर में टाँक दूँ तब भी कम है।

ढालू खाती दुल्हन के चेहरे को ताकते हुए दूल्हा कहने लगा, ऐसी फूहड़ बात फिर मत करना। भायजी बहुत गुस्सा होंगे। वह रूप की बजाय गुणों की ज़्यादा कदर करते हैं।

वह मुस्कराते हुए बोली, “अब समझी। उनके डर से आप हिसाब-किताब में डूबे हैं! पर सब काम अपनी-अपनी ठौर अच्छे लगते हैं। ब्याह की बेला हिसाब में रुँधना कहाँ का न्याय है!

“ब्याह होना था सो हो गया। पर हिसाब तो अभी बाक़ी है। ब्याह के खरचे का हिसाब सँभलाकर मुझे तीज के दिन दिसावर जाना है। ऐसा शुभ महूरत फिर सात साल नहीं आएगा।

पर गँवार दुल्हन को शुभ महूरत की ख़ुशखबरी सुनकर ज़रा भी ख़ुशी नहीं हुई। ढालुओं का स्वाद बिगड़ गया। दिल बैठने लगा। यह क्या सुना! एकाएक भरोसा न हुआ। पूछा, “क्या कहा, दिसावर जाएँगे? सुना है आपके यहाँ तो धन के भंडार भरे हैं?

“इसमें क्या शक है! ख़ुद अपनी आँखों से देख लेना। दूल्हा गुमान भरे सुर में कहने लगा, “हीरे-मोतियों से तहख़ाने भरे हैं। पर धन तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ता हुआ ही अच्छा लगता है। बिणज ब्यौपार ही बनिए का धरम है। अभी तो बहुत धन कमाना है। ऐसा नामी महूरत कैसे छोड़ा जा सकता है!

दुल्हन ने बात नहीं बढ़ाई। बात बढ़ाने में सार ही क्या था! एक-एक सारे करके ढालू फेंक दिए। दूल्हा मुस्कराया, “मैंने तो पहले ही कहा था। ढालू तो गँवार खाते हैं। हम बड़े लोगों को अच्छे नहीं लगते। आख़िर नहीं खाए गए तो फेंकने पड़े न! धूप में जली सो नफ़े में!”

इत्ता कहकर दूल्हे ने धूप का तूमार जोहने के लिए बहल से बाहर देखा। नज़र सुलग उठे जैसी धूप। पीले फूलों से छाए हींगानियों के अनगिनत झाड़ ऐसे लग रहे थे मानो ठौर-ठौर आग की लपटें उठ रही हों। व्यंग्य से बोला, “अब इन हींगानियों के लिए तो हठ नहीं करोगी? इन में गुण होते तो गड़रिए कब छोड़ते!

दुल्हन ने कोई जवाब न दिया। अबोली बैठी पीहर की बातें सोचने लगी। इस धणी के भरोसे घर-आँगन छोड़ा। माँ-बाप का बिछोह सहा। सहेलियों का संग, भाई-भतीजे, तालाब की पाल, गीत, गुड्डे-गुड्डियाँ, झुरनी, आँखमिचौनी सब छोड़कर इस धणी का हाथ थामा। माँ की गोद छोड़कर पराए घर से आस लगाई। और ये तीज के दिन शुभ महूरत की घड़ी बिणज के लिए दिसावर जाना चाहते हैं! फिर बेहिसाब धन किस सुख के लिए है? जीते जी काम आता नहीं। मरने पर कफ़न-काठी की गरज भी सरती नहीं। किस सुख की आस में इनके पीछे आई? किस अदीठ सुख और संतोख के भरोसे पराई ठौर का निवास कबूल किया? कमाई, बिणज-ब्यौपार और धन-माया फिर किस दिन के लिए हैं? इस असली सुख के बदले तीन लोक का राज मिले तब भी किस काम का! दुनिया की समूची धन-संपत देकर भी बीता हुआ पल लौटाया नहीं जा सकता। आदमी पैसे के लिए है या पैसा आदमी के लिए, बस यही हिसाब समझना है। इसके बाद कौन-सा हिसाब बाक़ी रह जाता है। कंचन बड़ा कि काया? साँस बड़ी कि माया? इसके जवाब में ही मानुस के तमाम जवाब समाए हुए हैं।

दूल्हा अपने हिसाब में फँसा था। दुल्हन अपने ख़यालों में डूबी थी। और बैल अपनी चाल में मगन थे। जो चलेगा वह मुक़ाम पर पहुँचेगा ही। आख़िर सेठ की हवेली के आगे बरात रुकी। गाजे-बाजे ढोल-ढमंकों के साथ दुल्हन को बधाकर अंदर लिया। जिसने भी देखा, देखता रह गया। नज़र उतारी। रूप हो तो ऐसा रंग हो तो ऐसा!

साँझ को मेड़ी में घी के दीए जले। घड़ी तीनेक रात ढले दूल्हा मेड़ी में आया। आते ही सीख-नसीहतों की झड़ी लगा दी, “घर की इज़्ज़त का ध्यान रखना। सास-ससुर की सेवा करना। अपनी लाज अपने हाथ। दो दिन के लिए चौपड़-पासे का चस्का क्यूँ लगाएँ! दो दिन की अंगरलियाँ पाँच बरस दुख देंगी। बरस बीतते क्या देर लगती है! देखते-देखते पाँच बरस निकल जाएँगे। फिर कैसी कमी! यही मेड़ी। यही दीए। यही रातें। और यही सेज। वह बिलकुल चिंता न करे। पलक झपकते पाँच बरस बीत जाएँगे।

सीख की अनमोल बातें दुल्हन चुपचाप सुनती रही। कुछ कहना या करना तो उसके बस में था नहीं। जो धणी की मरजी वह उसकी मरजी। जो भायजी की मरजी वह बेटे की मरजी। जो लिछमी की मरजी वह भायजी की मरजी। और जो लोभ की मरजी वह लिछमी की मरजी। सीख की बातों में रात अलोप हो गई। रात के साथ झिलमिलाते नवलख तारे भी अलोप हो गए।

और उधर खेजड़ी के ठीए मूरछा टूटने पर भूत की आँखें खुलीं। चौफेर देखा। सूनी काँकड़। सूनी रिंधरोही। घनी खेजड़ी। घनी छाया। लटकती सागरियाँ। कहाँ दुल्हन? कहाँ मिरगनैन? कहाँ सुहाना मुखड़ा? कहाँ गुलाबी होंठ? कहीं वह सपना तो नहीं था? उसे लगा कि उसका कपटी मन सेडाऊ दूध में नहा गया है। ऐसा सूरज तो पहले कभी नहीं उगा! गोल-गट्ट गुलाबी घेरा। पूरी दुनिया में उजाला ही उजाला। मंद-मंद बयार। हवा की अदीठ तनियों पर झूलती अढ़ार हरियाली। उसका मन अनगिनत रूप धरकर क़ुदरत के कण-कण में समा गया।

अरे, सूरज इस तरह तो पहले कभी नहीं डूबा। पच्छम दिस में गुलाल ही गुलाल छा गया। धरती पर न चमचमाता उजास। न गगन में चाँद। न सूरज और न एक ही तारा। न पूरा अँधेरा। जैसे क़ुदरत ने झीना घूँघट निकाला हो। चेहरा भी दिखता है। घूँघट भी दिखता है। अब क़ुदरत ने चुनरी बदली। नवलख तारे जड़ी साँवली चुनरी। धुँधली चेहरा दिखता है। घुले रुख हरियाली। जैसे सपनों का ताना-बाना बुना जा रहा हो। क़ुदरत पहले तो कभी इत्ती सुहानी नहीं लगी। यह दुल्हन के रूप का चमत्कार है।

और उधर दुल्हन का भरतार उस रूप से मुँह मोड़कर दिसावर के मारग चल पड़ा। कमर से बँधी हीरे-मोतियों की नोली। कंधे पर रक्खी। और सामने आसमान में चमकता बिणज का अखंड सूरज। सुख, लाभ और कमाई का क्या पार!

चलते-चलते वह उसी खेजड़ी के पास से निकला। भूत ने उसे अदेर पहचान लिया। आदमी का रूप धरकर उस से ‘जैरामजी’ की। पूछा, अभी तो हथलेवे की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा, काँकण-डोरड़े भी नहीं खुले, इत्ती जल्दी कहाँ चल दिए?

सेठ के बेटे ने कहा, “मेंहदी को जब उतरना होगा उतर जाएगी। और कोकण-डोरड़े क्या दिसावर में नहीं खुल सकते?

भूत उसके साथ हो लिया। सारी बातें जान लीं। वह पाँच बरस दिसावर में बिणज करेगा। यह महूरत निकल जाता तो सात साल तक ऐसा महूरत नहीं आता। सेठ के बेटे की बोली चाली और उसके स्वभाव की ज़रूरत मुताबिक जानकारी करके यह दूसरे मारग मुड़ गया। मन-ही-मन सोचने लगा कि सेठ के बेटे का रूप धरकर हवेली पहुँच जाए तो पाँच बरस तक कोई पूछने वाला नहीं। यह छींका तो ख़ूब टूटा। आगे की आगे देखी जाएगी। भगवान ने विनती सुनी तो सही फिर तो उस से एक पल भी न रुका गया। हूबहू सेठ के बेटे का रूप धरकर गाँव की ओर चल पड़ा। मन में न ख़ुशी का पार था न आनंद का।

दो-तीन घड़ी दिन बाक़ी था, तब भी अच्छा-खासा अँधेरा हो गया। काली-पीली उत्तरादी आँधी के गोट पर गोट घुमड़ते दिखे। आँधी तर तर ऊँची उठती गई। तर-तर अँधेरा बना होता गया। सूरज के रहते अँधेरा! हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। क़ुदरत को भी कैसे-कैसे सपने आते हैं! क़ुदरत के इस सपने के बिना धरती पर बिछी पाँव तले की धूल को सूरज ढकने का मौक़ा कब मिलता! धरती पर पसरी रेत आसमान में पहुँच गई। हवा खें-खें बजने लगी। पहाड़ के पहाड़ उथल दे ऐसी आँधी! थोथी अकड़वाले जंगी रूख़ चरड़-चरड़ टूटने उखड़ने लगे। नमनेवाली लोचदार झाड़ियाँ कभी इधर झुकतीं कभी उधर, पर उनका कुछ नहीं बिगड़ा। पाँवों तले रौंदी जानेवाली घास का तो बाल भी बाँका नहीं हुआ। खेमकुशल पूछती, दुलारती, सहलाती आँधी ऊपर से निकल गई। सारी वनराय जैसे पालने में झूलने लगी। पत्ते-पत्ते और कोंपल-कोंपल की सार-सँभाल हो गई। बड़े पछियों के झपीड़ उड़ने लगे। छोटे पंछी डालियों से चिपककर बैठ गए। उड़ना दूभर हो गया। समूचे आसमान पर आँधी का राज थरप गया। चारों-मेर सूँ-सूँ, खें-खें। सूरज के तप-तेज को धरती की धूल निगल गई! अज़ब है आँधी का यह नाच! अज़ब है रेत की यह घूमर समूची क़ुदरत इस तांडव से ढँक गई। सारा विरमांड एकमेख हो गया न आसमान दिख रहा है न सूरज न पहाड़ न वनराय। और न धरती। निराकार अगोचर क़ुदरत की इस नाकुछ उबासी के आगे न मानुस के ज्ञान की कोई हस्ती है, न उसके आपे की औक़ात, न उसके गुमान का कोई जोर, न उसकी खटपट की कोई बिसात।

क़ुदरत की कावड़ का दूसरा चित्राम-हौले-हौले फिर उजाला होने लगा। हाथ को हाथ सूझने लगा। तर-तर उजाले का आपा पसरने लगा। हौले-हौले क़ुदरत की छवि साफ़ दिखने लगी। पहाड़ की ठौर पहाड़ सोने के पात जैसा गोल गोल सूरज। रुँख़ की ठौर रुँख़। झाड़ियों की ठौर झाड़ियाँ हवा की ठौर हवा यह कैसी माया! कि सहसा तड़-तड़-तड़ बड़ी-बड़ी बूँदें बरसने लगीं। बूँद से बूँद टकराने लगी। परनालों मेह बरसने लगा। क़ुदरत स्नान कर रही है। उसका रोयाँ-रोयाँ धुल गया। नाले-खाले बहने लगे। जल-थल एक हो गया। जलबंब ही जलबंब नहाती क़ुदरत को निहारकर सूरज का उजाला सारथक हुआ।

थोड़ी ही देर में क्या से क्या हो गया! देखकर भी भूत को भरोसा न हुआ। क़ुदरत की यह कैसी दिल्लगी है? यह क्या हुआ? कैसे हुआ? कहीं उसके मन की आँधी ही तो बाहर प्रकट नहीं हुई? क़ुदरत का यह कौतुक उसके मन में ही दुबका हुआ तो नहीं था? इस भरम की झोंक में वह तेज-तेज चलने लगा।

सीधे हवेली न जाकर पहले वह पेढ़ी पर गया। हिसाब करते सेठ ने बेटे को देखा तब भी एकाएक मन नहीं माना। दिसावर गया बेटा वापस आया तो आया ही कैसे? पहले तो कभी उसका कहा नहीं टाला! ब्याह के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता। जल्दी ब्याह रचाकर राम जाने सेठानी ने किस जनम का बदला लिया? है हो चुकी कमाई! या तो बिणज की हाजरी बजा लो या लुगाई की।

बाप के होंठों तक आई बात वह बिना कहे ही समझ गया। हाथ जोड़कर बोला, पहले मेरी बात सुन लें! बिणज की सलाह-सूत करने के लिए ही वापस आया हूँ। आपका हुकम नहीं होगा तो घर गए बिना ही लीट जाऊँगा। मारग में समाधि लगाए एक महात्मा के दरसन हुए। पूरे शरीर पर दीमक जमी हुई थी। मैंने सुथराई से माटी हटाई। कुएँ से पानी सींचकर स्नान कराया। पानी पिलाया। खाना खिलाया। मेरी सेवा से प्रसन्न होकर महात्मा ने वरदान दिया कि मुझे रोज़ तड़के पलंग से उतरते ही पाँच मोहरें मिलेंगी। दिसावर में यह वरदान नहीं फलेगा। अब फरमाएँ आपका क्या हुकम है?

ऐसे अचीते वरदान के बाद जो हुकम होना था वही हुआ। सेठ ख़ुशी-ख़ुशी मान गया। सेठानी की ख़ुशी का तो कहना ही क्या इकलौता बेटा आँखों के आगे रहेगा। और कमाई की ठौर कमाई का जुगाड़ भी हो गया। दुल्हन को ख़ुशी के साथ-साथ अचरज और गुमान भी हुआ कि यह रूप छोड़कर कोई दिसावर जा सकता है भला! तीसरे दिन ही वापस आना पड़ा।

दुकान के सौदे-सूत, हिसाब और ब्यालू से निपटकर वह घड़ी-दो घड़ी रात मेड़ी में आया। चारों कोनों में घी की पीलजोतें जल रही थीं। हींगलू सेज पर फूल बिछे हुए थे। इस इंतज़ार से बढ़कर कोई आनंद नहीं। रिमझोल की रुनझुन सुनाई दी। इस रणकार से बढ़कर कोई नाद नहीं। सोलह सिंगार से सजी दुल्हन मेड़ी में आई। इस नज़र से बढ़कर कोई जोत नहीं। समूची मेड़ी इत्र-फुलेल से महक उठी। इस सौरम से बढ़कर कोई गंध नहीं। इसी महक ने खेजड़ी के ठीए मन में आग लगाई थी। और आज मेड़ी में प्रत्यक्ष नज़रों का मिलन! इत्ती जल्दी कामना फलेगी यह तो सपने में भी नहीं सोचा था।

दुल्हन निसंकोच उसकी बगल में बैठ गई। घूँघट क्या हटाया जैसे तीन लोक का परम आनंद जगमगा उठा। इस रूप की तो छाया भी दिप-दिप करती है। दुल्हन ने मुस्कराकर कहा, मैं जानती थी कि आप बीच राह से लौट आएँगे। यह तारों जड़ी रात ऐसी साइत में आगे नहीं बढ़ने देती। ऐसा ही जोम था तो मेरी इच्छा के खिलाफ़ गए ही क्यूँ? आख़िर मेरी मन्नत फली।

भूत के मन में बवंडर-सा उठा। इस सेडाऊ दूध में कीचड़ कैसे मिलाए। इसे छलने से बड़ा कोई पाप नहीं। यह तो असली धणी समझकर इत्ती ख़ुश हुई। पर इस से अधम झूठ और क्या होगा यह तो झूठ की हद है। इस अबूझ प्रीत से बात कैसे करे। प्रीत के परस से भूतों का मन भी घुल जाता है। कोई बराबरी का हो तो छल-बल का जोर भी बताए। पर नींद में सोए हुए का गला सूँतने से तो तलवार का मान भी घटता है।

भूत थोड़ा दूर सरकते हुए बोला, कौन जाने मन्नत फली कि नहीं! अच्छी तरह तपास तो कर लो! कोई दूसरा आदमी तुम्हारे धणी का रूप धरकर तो नहीं आ गया?

वह चौंकी। हींगलू सेज पर बैठे मानुस को सर से पाँव तक गौर से देखा। वही शकल-सूरत वही रंग-रूप वही नज़र वही बोली अदेर समझ गई कि धणी उसके सत की परख करना चाहता है। मुस्कान का उजाला छितराते हुए बोली, “सपने में भी पराए मानुस को अपनी छाया न छूने दूँ, फिर खुली आँखों यह कैसे हो सकता है! दूसरा आदमी होता तो मेरे सत के जोर से कब का भस्म हो जाता।

पहले तो यह बात उसे चुभी। होंठों तक आए बोल तुरंत वापस निगल गया कि तब तो उसका सत खोटा है। वह भस्म हो जाता तो उसका सत खरा था। वास्तव में दूसरा आदमी होते हुए भी वह भस्म नहीं हुआ तो उसका सत खोटा है। पर अगले ही छिन बात के दूसरे पहलू का ध्यान जाते ही उसकी खीझ निथर गई। उलटा राजी हुआ। फ़कत शकल-सूरत से क्या होता है! सच्चा धणी होता तो लुगाई की यह माया छोड़कर जाता भला! क्या विछोह के लिए ही चँवरी में हाथ थामकर अपने पीछे लाया था? कोई अंधा भी रूप की इस झाँई को नहीं ठुकराता। तब वह दीठ के रहते कैसे अंधा बना! सात फेरे खाए तो क्या, उसकी प्रीत सच्ची कहाँ! और उसने भूत होकर इस से सच्ची प्रीत की। छल करते जी छटपटाता है। उसकी प्रीत सच्ची है। उसका नेह खरा है। तभी तो दोनों का सत बच गया। फिर भी आपस में दुराव रखने से प्रीत की मरजाद घटेगी। साँच को आँच लगेगी। सच्ची बात बताए बिना वह इस मेड़ी में साँस भी नहीं ले सकता। वापस पास सरकते हुए कहने लगा, सचमुच दूसरा आदमी होते हुए भी तुम्हारा सत खरा है। क्योंकि मेरी प्रीत सच्ची है। सात फेरे के असली धणी की प्रीत झूठी है। तभी तो इस रूप से मुँह मोड़कर वह दिसावर चला गया।

पर दुल्हन सच-झूठ की पहचान कैसे करे? कुछ भी पल्ले न पड़ा। ख़ुद माँ-बाप जिसे अपना बेटा समझते हैं, हूबहू सूरत वाले इस बंदे को अपना धणी मानने में कैसी झिझक सूरत और रंग-रूप ही तो रिश्ते-नातों की सबसे बड़ी पहचान है।

फिर भूत ने उसे एक-एक बात ब्यौरेवार बताई कि खेजड़ी के नीचे उसका रूप निहारकर उसकी क्या हालत हुई। उसके अदीठ होते ही कैसे बेचेत हुआ। वापस कब होश आया। दिसावर जाते थणी से उसने क्या बातें कीं। फिर उसका रूप धरकर कैसे यहाँ आने का फैसला किया। राह में आई आँधी-बरसात की बात भी नहीं छिपाई। दुल्हन काठ की पुतली की नाई सुनती रही। क्या यही सच्चाई सुनने के लिए विधाता ने उसे कान दिए?

उसकी कलाई सहलाते हुए वह आगे कहने लगा, माँ-बाप को तो नित-हमेस पाँच मोहरों के साथ पेढ़ी के लाभ की दरकार है। असलियत से उन्हें कोई वास्ता नहीं। पर तुम से सच बात छिपाता तो प्रीत के चेहरे पर कालिख पुत जाती में भेद नहीं बताता तो तुम्हें पाँच बरस तक सपने में भी सच्चाई का पता न चलता। तुम तो असली धणी समझकर ही घरवास करती। पर मेरा मन न माना। मैं अपने मन से सच्चाई कैसे छिपाता! इस से पहले बहुत-सी लुगाइयों को लगा। उन्हें बहुत दुख दिया। पर मेरी ऐसी हालत कभी नहीं हुई। राम जाने इत्ती दया माया मेरे मन में कहाँ ओटी हुई थी? तिस पर भी तुम्हारी इच्छा नहीं होगी तो मैं इसी पल वापस चला जाऊँगा। जीते जी इस ओर मुँह भी नहीं करूँगा तुम्हें पीड़ा पहुँचाकर मुझे प्रीत का आनंद नहीं चाहिए। तब भी आख़िरी साँस तक तुम्हारा एहसान मानूँगा। तुम्हारे कारण मेरे हिवड़े का विष इमरत में बदल गया। नारी के रूप और पुरुष के प्रेम की यही तो सच्ची मर्यादा है।

रूप की पुतली के होंठ खुले, समझ नहीं पड़ता कि यह भेद छुपा रहता तो अच्छा था या प्रकट हो गया तो अच्छा हुआ। कभी पहली बात ठीक लगती है तो कभी दूसरी।”

दुल्हन की आँखों में आँखें पिरोकर भूत कहने लगा, बाँझ औरत जच्चा की पीड़ा क्या जाने! इस पीड़ा में ही कुख का आनंद छिपा हुआ है। साँच और कूख के प्रसव की पीड़ा एक सरीखी होती है। इस साँच को छिपाने में न तो पीड़ा थी, न आनंद। वह तो फ़कत साँच का भरम होता। आनंद का स्वाँग होता। में कई लुगाइयों को लगा तब कहीं असलियत को जान पाया में कई ऐसी सती साध्वियों को जानता हूँ जो अंगरलियों की बेला घणी के चेहरे में अपने वार का चेहरा खोजती हैं। यूँ कहने को तो वे पराए मरद की छाया भी नहीं छूतीं, पर धणी के बहाने दूसरे पुरुष के ध्यान में कितना सत है, इसकी असलियत जित्ती में जानता हूँ उत्ती माता भी नहीं जानती। सती-सावित्रियों के चरित का दिखावा मैंने बहुत देखा है। डर तो बस लोकलाज का होता है। किसी को पता न चले तो स्वयं भगवान भी पाप करने से न चूकें। अब जो तुम्हारी मरजी हो बता दो। मैंने तो भूत होकर भी कुछ नहीं छुपाया।

ऐसी पहेली कभी किसी औरत को सुलझानी नहीं पड़ी होगी। ठौर-कुटीर मुँड मारने की किसे हवस नहीं होती? पराई औरत और पराए आदमी के लिए किसका जी नहीं ललचाता? पर लौकिक के डर से ढक्कन हटाए नहीं बनता। ढक्कन के भीतर जो पकता है, वह तो पकता ही है। सोच-विचारकर ऐसी बातों का जवाब देना कित्ता मुश्किल है! वह इस तरह गुमधाम बैठी रही मानो बोलना बिसर गई हो।

दुल्हन की समझ में अचीता सोता फूटा। सोचने लगी, उसके जनम पर थाल की ठौर सूप बजा। घरवालों को कोई खास ख़ुशी नहीं हुई। बेटा होता तो अच्छा था। माँ-बाप की नज़र में घूरा बढ़ते देर लगे तो बेटी बड़ी होते देर लगे। दसवाँ बरस उतरते न उतरते माँ-बाप उसे हाथ पीले करके पराए घर पहुँचाने की चिंता करने लगे। न आँगन में समाती थी, न आसमान में छाछ और लाछ माँगने में कैसा संकोच! रिश्ते पर रिश्ते आने लगे। उसके रूप की ख्याति चौफेर हवा में घुली हुई थी। सोलह बरस बिताने दूभर हो गए। माँ की कूख में समा गई, पर घर-आँगन में न समाई। तभी इस हवेली से नारियल आया। उसके बड़भाग जो माँ-बाप ने सावा कबूल कर लिया। कोई दूसरी घर-गवाड़ी होती तब भी उसे तो जाना ही था। धणी बिणज और लेखे-जोखे में ही मगन है। उसकी नज़र में हाँड़ी के पैंदे और लुगाई के चेहरे में कोई फ़रक नहीं। दरकता यौवन और दरकती माटी दोनों एक सरीखी। न बहल में लुगाई के मन की बात समझा, न मेड़ी में। मेड़ी और सेज सूनी छोड़कर बिणज के लिए चला गया। एक बार मुड़कर भी न देखा और आज भूत की प्रीत का उजाला हुआ तो सूरज भी फीका पड़ गया। हथलेवे का ब्याहता जबरन चला गया तब भी उसका बस न चला। भूत की प्रीत के आगे भी उसका बस कहाँ चला! जानेवाले को रोक न सकी तो मेड़ी में आए को कैसे रोके! यह प्रीत की बात करता है तो कानों में तेल कैसे डाले! धणी होकर यूँ मझधार में छोड़ गया, भूत होकर यूँ प्रीत दरसाई! कैसे बरजे? क्यूँ बरजे?

सपनों पर कोई बस चले तो ऐसी प्रीत पर बस चले। वह सुध-बुध बिसराकर उसकी गोद में लुढ़क गई।

कहीं यह उसके मन का भूत ही तो नहीं, जो साकार रूप धरकर प्रकट हुआ? फिर अपने मन से कैसी लाज! जहाँ वाणी अटकती है, वहाँ मौन काम सारता है। उसके उपरांत कुछ भी कहना-सुनना बाक़ी न रहा। आप ही एक-दूसरे के अंतस की बात समझ गए। दीए का उजास लोप हो गया। और अँधेरा उजास बनकर जगमगाने लगा। सेज के कुम्हलाए फूलों की कली कली खिल गई। मेड़ी का उजाला धन्य हुआ। मेड़ी का अँधेरा धन्य हुआ। आसमान के तारों का उजास दूना हो गया।

ऐसी अनमोल रातों में बखत बीतते क्या देर लगती है! चुटकियों में दिन फिसलने लगे। ख़ूब बिणज बढ़ा। ख़ूब लेन-देन बढ़ा। ख़ूब जस बढ़ा माँ-बाप ख़ुश थे सो तो थे ही, सारे इलाके के लोग भी सेठ के बेटे से बहुत ख़ुश थे। बखत-बेबखत सब के काम आता था। दूसरे बनियों की तरह गला नहीं काटता था। लंगोट का सच्चा। पेढ़ी पर आई लुगाई की ओर देखता तक नहीं था। छोटी को बहन और बड़ी को माँ सरीखी समझता था। उसका नाम लेते तो लोगों के मुँह में मिसरी घुल जाती। उस में खामी बस एक ही थी। दिसावर से सेठ के बेटे का काग़ज़ आता तो फाड़कर फेंक देता। वापस कोई जवाब नहीं।

इस आनंद और जस के पालने में देखते-देखते तीन बरस बीत गए। जैसे मीठा सपना बीता हो। भूत भी हवेली में रलमिल गया। मानो सेठ का सगा बेटा हो। बहू भी मेड़ी के नशे में डूबी हुई थी। रात के इंतज़ार में दिन उगते ही डूब जाता। मेड़ी में पलक झपकते रात ढल जाती।

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बहू के आसा ठहरी। तीसरा महीना उतरनेवाला था। ख़ुद सेठ ने अपने हाथ से सवा मन गुड़ बाँटा। लोगों ने सवा मन सोना समझकर कबूल किया। सेठ ने उमर में पहली बार दातारी दिखाई थी। आज हाथ खुला है तो आगे भी खुलेगा। बेटे-बहू ने चुपके-चुपके ख़ूब दान-पुन्न किया। हरख के नवलख तारों में नया चाँद जुड़ेगा! कूख का चाँद आसमान के चाँद से हमेशा बढ़कर होता है।

धणी-लुगाई दोनों को बेटी की बड़ी चाह थी। बहुत खुशियाँ मनाएँगे। बेटा कौन सरग ले जाता है! राम जाने किसके जैसा होगा? बच्चे के जन्म की बजाय उसकी आस में ज़्यादा आनंद है। कूख में बच्चे के साथ-साथ सपने पलते हैं।

दिन सरपट दौड़ने लगे। पाँच महीने बीते सात महीने संपूर्ण हुए। यह नौवा महीना उतरनेवाला है। बहू रात-दिन मेड़ी में सोई रहती। तीन-तीन दाइयाँ हाज़री में हर घड़ी जाग रहतीं।

धणी की गोद में सोई घरनी आँखें मूँदे-मूँदे ही बोली, कई बार सोचती हूँ, यदि उस दिन खेजड़ी के नीचे विसराम करने नहीं रुकते तो मेरे ये चार साल कैसे बीतते? शायद बीतते ही नहीं।

भूत ने कहा, “तुम्हारे दिन तो ज्यू-त्यू कट जाते, पर मेरा क्या होता? झाड़ी-झाड़ी खेजड़ी-खेजड़ी भूत की जून पूरी करता। उस दिन सुमत सूझी जो तुम्हें नहीं लगा। मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि सचमुच जीने का आनंद भोग रहा हूँ या सपना देख रहा हूँ!

चिकने बालों में अँगुलियाँ फिराते-फिरते रात फिसल गई।

उधर दूर दिसावर में बहू का ब्याहता तड़के घड़ी रात रहते उठा। आलस मरोड़ा। उबासी खाकर दीवड़ी से ठंडा पानी पीया। चारों-मेर एक सरीखा अँधेरा छाया हुआ था। टिमटिमाते हुए एक सरीखे तारे। कहीं किसी दिशा में उजाला नहीं। रात और छोटी होती तो कित्ता अच्छा रहता! क्या ज़रूरत है इत्ती बड़ी रात की सोने-सोने में आधी उमर निकल जाती है। नींद में बिणज ब्यौपार तो होने से रहा! वरना दूनी कमाई होती। तब भी माया कम नहीं जोड़ी भायजी बहुत ख़ुश होंगे।

बीच-बीच में आस-पड़ौस के साहूकार मिलते रहते थे। उसे वहाँ देखकर उन्हें बहुत अचंभा होता। पूछते कि वह गाँव से कब आया? यह सुनकर उसे भी कम अचंभा नहीं होता। कहता कि उसने तो गाँव की ओर मुँह ही नहीं किया। वे पागल तो नहीं हो गए। तब उन्होंने जोर देकर पूरी बात खुलासा करके समझाई। फिर भी उसे विश्वास नहीं हुआ। वह तो यहाँ से हिला ही नहीं, तब वहाँ कैसे पहुँच सकता है? कमाई देखी नहीं जाती इसलिए उल्टी-सुल्टी सुनाकर दुविधा में डालना चाहते हैं। पर वह इत्ता भोला नहीं। उनके कान कतरे जैसा है। कमाई और बिणज में ज़्यादा मन लगाने लगा।

पर आज अल्ल सवेरे एक खास पड़ोसी ने समाचार दिया कि बहू के बच्चा होनेवाला है। शायद हो गया हो।

वह बीच ही में बोला, ऐसी बात होती तो घरवाले मुझे ज़रूर ख़बर करते। मैंने पाँच-सात काग़ज़ दिए, पर वापस एक का भी जवाब नहीं।

पड़ोसी ने कहा, “भले मानुस, ज़रा सोचो तो…वे क्यूँ ख़बर करते? किसे ख़बर करते? उनका बेटा तो तीसरे दिन ही वापस आ गया। एक महात्मा के दिए मंतर से सेठजी को नित पाँच मोहरें देता है। हवेली में राम राजी है। सब मजे में हैं। मेड़ी में घी के दिए जलते हैं। हाँ, अब पता चला। सेठजी के बेटे की शकल हूबहू आप से मिलती है। विधाता की कारीगरी! ख़ुद सेठजी देखें तब भी पहचान न सकें। अब मालूम हुआ कि शकल तो ज़रूर मिलती है, पर आप दूसरे हैं।

“भला में दूसरा कैसे हुआ? लगता है, कल-परसों ही जाना पड़ेगा।

सो सेठ के बेटे ने बिणज-बौपार समेटा, मुनीम को भुलावन दी और अपने गाँव की ओर चल पड़ा। वही जेठ का महीना लूओं के खेंखाड़ बज रहे थे। केरों पर लाल-लाल ढालू देखकर उस दिन की बात याद आ गई। जब बहू की यहीं पसंद है तो अपना क्या जाता है! न हींग लगे न फिटकड़ी! पके हुए ढालू तोड़कर गम में बाँध लिए।

वह हवेली पहुँचा उस बखत वहाँ लुगाइयों का मेला लगा हुआ था। सेठ-सेठानी घबराए हुए मन्नत पर मन्नत बोल रहे थे। भूतवाला धणी मेड़ी के बाहर खड़ा था। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। बहू सौरी में टसक रही थी। बच्चा अटक गया था। दाइयों अपने हुनर में लगी थीं।

इस चकचक के बीच चैवरी का ब्याहता धूल से अटा हुआ, बेझिझक चौक में आ खड़ा हुआ। कंधे पर ढालुओं का गमछा लटक रहा था। माँ-बाप के चरण छूए। यह कैसा तमाशा? हूबहू बेटे से शकल मिलती है! खंख से सना है तो क्या! कोई ठग तो नहीं? बेहद अचरज भी गूँगा होता है। माँ-बाप चाहकर भी कुछ बोल न सके। लुगाइयों की चकचक का राग बदल गया। हाय दैया, एक ही शकल के दो धणी! कौन सच्चा कौन झूठा? यह कैसी लीला? यह कैसा कौतुक? कोई इधर भागी, कोई उधर सौरी में लुगाई का टसकना सुनकर वह अदेर सारी बात समझ गया। ख़बर ग़लत नहीं थी। ऐसा छल किसने किया? कैसे हो इसकी पहचान? लोग किसके कहे पर भरोसा करेंगे? तभी मेड़ी के बाहर खड़े मानुस पर उसकी नज़र पड़ी। हूबहू उसका रंगरूप! छलिया के छल को कौन जान सका है! नसों का लहू जम गया। भला यह क्या हुआ?

प्रीतवाले धणी के कानों में फ़कत जच्चा की टसक गूँज रही थी। और किसी बात का उसे चेत न था। हवा थम गई थी। सूरज थम गया था। कब यह टसकना बंद हो और कब क़ुदरत का पेंखड़ा छूटे!

बेटे ने बाप से कहा, मैं तो चार बरस से दिसावर था, फिर बहू के पाँव कैसे हुए? आपने कुछ तो सोचा होता?

सेठ ने मन ही मन सारा हिसाब लगा लिया। बोला, तू है कौन? मेरा बेटा तो तीसरे दिन ही वापस आ गया था। यहाँ तेरी दाल नहीं गलेगी।

उसके अचरज का पार न रहा। चुप रहने से बात बिगड़ जाएगी तुरंत बोला, “क्या मैं इसलिए कमाई करने दिसावर गया था कि लौटूँ तो आप पहचानने से ही मना कर दें? आपने ही तो ज़बरदस्ती भेजा था।

सेठ ने कहा, नहीं चाहिए मुझे ऐसी कमाई। तू मुझे कमाई का क्या रोब दिखाता है? जिधर से आया है, उधर ही चलता बन! नहीं तो खाल में भूसा भरवा दूँगा।

भायजी का सर फिर गया लगता है। उसने माँ की ओर मुड़कर पूछा, माँ, क्या तू भी अपने बेटे को नहीं पहचानती?

माँ क्या जवाब देती! ऐसे सवाल का जवाब क्या कोई माँ दे भी सकती है? शायद अब तक किसी बेटे ने अपनी माँ से ऐसा सवाल नहीं किया होगा। उसकी जीभ तालू से चिपक गई। वह दुग-दुग धणी को देखने लगी। माँ को अबोली देखकर वह गताघम में पड़ गया। तभी उसे ढालुओं का ध्यान आया। काँपते हाथों से गमछा खोला। लाल-लाल ढालू भावजी को दिखाते हुए बोला, बहू को उस दिन के ढालुओं की बात याद दिलाइए। वह सब बता देगी। उस दिन उसने ख़ुद ढालू तोड़कर खाए थे। आज में तोड़कर लाया हूँ। उससे पूछकर तो देखो! आप कहें तो मैं बाहर से पूछ लूँ सेठ का चेहरा तमतमा गया। तैश में आकर बोला, पागल कहीं का! यह ढालुओं की बात पूछने का बखत है! बहू को तो जान की पड़ी है और तुझे ढालुओं की लगी है! दूर हटा अपने ढालुओं को मैं तो यह फूहड़ बात सुनते ही समझ गया कि मायापति सेठ की बहू गँवारों की तरह ख़ुद तोड़कर ढालू खाएगी? खैर चाहता है तो चुपचाप चला जा। नहीं तो इसे जूते पड़ेंगे कि गिननेवाला नहीं मिलेगा।

बेटे ने कहा, बाप के जूतों की परवाह नहीं, पर उस दिन मैंने भी बहल में यही बात कही थी।

सौरी में बहू उसी तरह टसक रही थी। दाइयों ने घड़ी-घड़ी बच्चे को काटकर निकालने की बात कही, पर वह तैयार न हुई। आख़िर मरते-मरते बड़ी मुश्किल से छूटापा हुआ। बहू की आँखों के आगे कभी अँधेरा छा जाता, कभी बिजलियाँ काँधने लगतीं।

चौक से भागी लुगाइयों के मुँह से दो धणियों की बात ऐसी उफ़नी कि घर-घर में कचकचाटा मच गया। देखते-देखते सेठ की हवेली के इर्द-गिर्द लोगों का मेला लग गया। ऐसी अनहोनी बात का स्वाद जीभ को बरसों से मिलता है। हरेक की जीभ को मानो पंख लग गए ! एक ही सूरत के दो धणी। एक तो चार बरस पहले मेड़ी चढ़ गया और एक आज अपना हक जताने आया है। बहू सौरी में जापे की पीड़ा से उसक रही है। अजब तमाशा हुआ! देखें, सेठ कैसे बात सँवारते हैं। कैसे ढाँपते हैं! भला ऐसी बातों को ढाँपने कौन देगा? लोग उस बात को चबा चबाकर फिर चबाते।

भीड़-भड़क्का देखकर सेठ आपे से बाहर हो गया। थूक उछालते हुए बोला, हमारे घर की बात है। हम आप निपट लेंगे। गाँववाले क्यूँ पंचायती करते हैं? मैं कहता हूँ बाद में आनेवाला झूठा है। मैं धक्के देकर निकलवा दूंगा। दिन-दहाड़े लुच्चाई नहीं चल सकती।

बेटा चिल्लाया, “आप क्या पागलपन कर रहे हैं? सूरज को तवा और तवे को सूरज बता रहे हैं? आप जैसे चाहें छानबीन कर लें। यह तो सरासर अन्याय है।

मायापति सेठ की पंचायती का ऐसा मौका कब मिलेगा! लोगबाग अड़ गए कि खरा न्याय होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी। कसूरवार को पूरा दंड मिले। यूँ दो धणियों का रिवाज कैसे चलेगा! अमीरों का तो कुछ नहीं, हम ग़रीबों का जीना हराम हो जाएगा। बस्ती से अलग नहीं टल सकते। कित्ता ही धन का जोर हो, कंधा देनेवाले भाई पर नहीं आएँगे।

मामला उलझा पर उलझा! कोई झुकने को तैयार न था न सेठ, न बस्ती के लोग। लोगों के मुँह थे और बहू के कान। सो उसे सौरी में ही सारे समंचार मिल गए।

लुगाई का जीवन मिला है तो राम जाने क्या-क्या सुनना होगा! क्या-क्या हाज़री उठानी होगी! क्या-क्या रामत देखनी होगी! आख़िर एक दिन तो यह होना ही था। चार बरस तो सपने की नाई अलोप हो गए। भला सपने का कैसा थावस! और कित्ती उसकी जड़ गहरी।

खंडहर में मँडराती चमगादड़ों की तरह लोग इधर-उधर चक्कर लगाने यह पंचायती सलटे बिना कौर भी गले न उतरेगा।

सौरी का किवाड़ उघाड़कर दाइयों ने समचार दिया कि बहू के लड़की हुई है। मौत की विकट घाटी टल गई। मौत में क्या कसर रह गई थी! बच गई सो बड़भाग। सौरी के बाहर भिनभिनाती लुगाइयों को बालसाद सुनाई दिया। मेड़ी की देहरी पर खड़े धणी को अब कहीं चेत हुआ। पर चेत होने पर जो बात उसके कानों में पड़ी उससे कलेजे में अचीती सुरंग छूटी। सुध-बुध पर पाला पड़ गया। एक बरस पहले यह गाज कैसे गिरी?

सेठ-सेठानी मुँह लटकाए खड़े थे। पूरे गाँव में हल्ला मच गया। कैसी अजानी आफ़त आई! नागखाधे ने जाने किस जनम का बदला लिया? बात तो बिगड़ती ही चली जा रही है। कैसे सँवारे? कौन जाने किसने दाँव-घात किया? मेड़ी तो पिछले चार बरस से आबाद है। इसे नज़रअंदाज करने पर तो हवेली की नाक कट जाएगी। ढालूवाला मान जाए तो बात दब सकती है। मुँहमाँगा अलल हिसाब देने को तैयार हैं। और क्या चाहिए?

न ढालूवाला माना, न बस्ती के लोग। अदल न्याय होना चाहिए। बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक न रहेंगे। चार यरस उपरांत कुख उपड़ी तो एक और धणी आ टपका! राम जाने कौन सच्चा है? एक तो झूठा है ही गाँव चिनचिनाटे चढ़ गया, जैसे बर्रों का छत्ता ज़मीन पर आ गिरा हो। ढालूवाले की तरफ़दारी नहीं की तो मामला टाँय-टाँय फ़िस्स हो जाएगा। सारा मजा किरकिरा हो जाएगा। यह सोचकर हर व्यक्ति आप ही ढालूवाले की तरफ़ हो गया।

सेठ हाथ जोड़कर भये सुर में बोला, “मेरी पगड़ी उछालने से आप लोगों को क्या मिलेगा? साथ बैठे भाई हैं। बख़त बेबख़त एक-दूसरे के काम आते हैं। मेरे बेटे के गुण आपसे छिपे नहीं हैं। उसके हाथ से किसका भला नहीं हुआ? इसी जल्दी गुणचोर मत बनो। मेरी पगड़ी आपके चरणों में है। किसी भी तरह बात बिठा दो। यह ढालूवाला जाली है। इसे धक्के देकर गाँव से निकाल दो!

बड़े-बुजुर्गो ने कहा, सेठजी, दिखती मक्खी कैसे निगलें! बख़त आने पर सर देने को तैयार हैं, पर पानी की गठरी कैसे बाँधे! यह बार-बार कह रहा है, बहू ढालुओं की बात पुछवाइए तो सही! इसमें क्या हरज़ है?

ऐसी बात कौन पूछे? कैसे पूछे? तब कुछ भली डोकरियाँ आगे आई। बख़त पर आदमी ही आदमी के काम आता है! सौरी का किवाड़ उघाड़कर भीतर गई। जच्चा के पेट में टीसें उठ रही थीं। पर अब जो बात उसके कानों में पड़ी तो वह जापे का दरद भूल गई। यह दरद उस से कहीं ज़्यादा था। दाँत भींचकर बड़ी मुश्किल से बोल पाई, “कोई मरद पूछता तो उसे हाँ ना का जवाब भी देती। लुगाई होकर यह बात पूछने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मुझे अपने हाल पर छोड़ दो। तुम्हें तंग करने का यही बख़त मिला? धन्य है तुम्हारी हिम्मत!

डोकरियाँ मुँह मस्कोरती हुई बाहर आई। कहा, ऐसी बातों में लुगाइयाँ कब सच बोलती हैं! हमें तो दूध में कालस दिखती है। बाक़ी आप जानो।

ऐसे मौकों पर ही तो अक्ल के धार लगती है। सूत बुरी तरह उलझ गया। बड़े-बूढ़ों ने फिर माथा लड़ाया, यह न्याय राजाजी ही निपटा सकते हैं। किसी और ने इस में टाँग अड़ाई तो पूरे गाँव को दंड मिलेगा। अपना भला-बुरा तो सोचना ही पड़ता है। दोनों धणियों को राजाजी के हवाले कर दें। फिर दरबार जानें और सेठजी जानें हम बीच में तिक-लिक क्यूँ करें। फिर बस्ती राम है जो सबको ठीक लगे वह करो।

जो बस्ती ने चाहा वही हुआ। भला वह अपना राम-पद कैसे छोड़ती। दोनों धणियों को रस्सी से बाँध दिया। मेड़ी के बाहर खड़े धणी को बाँधने लगे तब उसे चेत हुआ कि पानी सर से गुज़र चुका है उसने कोई ना-नुकर नहीं की सीढ़ियाँ उतरते हुए कलेजा होंठों तक लाकर बोला, “एक बार सौरी में जाने दो! माँ-बेटी की कुशल तो पूछ लूँ।

पर लोग न माने, “न्याय निपटने के बाद सारी उमर कुशल पूछनी ही है! इत्ती जल्दी क्या है?

लोगों का बवंडर आगे बढ़ा। दोनों धणी साथ बँधे थे। सेठ भी ख़ुर रगड़ते हुए साथ चल रहा था। पगड़ी बिखर गई थी। लंबे अरज की हवा पत्ते पत्ते को फंफेड़ती खें-खें बज रही थी। चलते-चलते अचानक उसी खेजड़ी पर भूत की नज़र पड़ी। एड़ी से चोटी तक बिजली दौड़ गई। पाँव जहाँ-के-तहाँ गड़ गए। माथा सुन्न हो गया। कानों में साँय साँय गूँजने लगी आँखों के आगे यादों के चित्र घूमने लगे तभी रस्सी का झटका पड़ा। पाँव आप ही हरकत में आ गए। दाँया-बाँया बाँया-दाँया। आदमी के माथे में यादों का लफड़ा नहीं होता तो कित्ता अच्छा रहता। यह याद तो जान ही ले लेगी।

साथ बँधे बिणजवाले धणी का मन तो जाग रहा था। आज साँच को यह कैसी आँच आई? यह ख़ुद भरम में पड़ गया। यह कैसी लीला है? यह आदमी तो ऐसा लगता है जैसे वह आरसी में अपनी छवि देख रहा हो। इससे पूछकर तो देखें शायद कोई सुराग मिल जाए। उसके गले में अटके सबद बड़ी मुश्किल से बाहर निकले, भाई, न्याय तो राम जाने क्या होगा, पर तू अच्छी तरह जानता है कि सेठजी का बेटा मैं हूँ, चँवरी का असली ब्याहता। पर तू कौन है, यह तो बता? यह कैसा मायाजाल है? बैठे-ठाले किस झंझट में फँस गया? बता, मुझे तो बता कि तू है कौन?

था तो भूत। न्याय करनेवाले पंचों की गरदनें एक साथ मरोड़ सकता था। कई लीलाएँ कर सकता था। किसी को लग जाए तो छठी का दूध याद दिला दें। पर चार बरस की प्रीत से उसका अंतस बदल गया। झूठ बोलना चाहने पर भी बोल न सका। और सच कहे तो कैसे! प्रिया की लाज तो रखनी ही थी। जुधिस्ठर वाली आन निभाई। बोला, मैं लुगाइयों की ग्राम के भीतर का सूक्ष्म जीव हूँ उनकी प्रीत का स्वामी। बिणज और कमाई की बजाय मुझे हेत- प्रीत की ज़्यादा लालसा है।

सात फेरों के धणी ने अधीर होकर बीच ही में टोका, दूसरी बकवास क्यूँ करता है! साफ़-साफ़ बता, क्या तूने चँवरी में हथलेवा जोड़ा था?

कोरे मोरे हथलेवे से क्या होता है? चँवरी की धौंस सारी उमर नहीं चलती। बिणज चीजों का होता है, प्रीत का नहीं। तुम तो प्रीत का भी बिणज करने लगे! इस बिणज में ऐसी ही बरकत होती है।

सेठ के बेटे का कलेजा तीरों से बिंध गया। यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं। सोचने का मौका ही कब मिला और आज मौका मिला तो ऐसे संकट में!

पंचों का बवंडर राजदरबार के न्याय की आस में तेज-तेज चला जा रहा था कि रास्ते में रेवड़ चराता एक गड़रिया मिल गया। हाथ में लंबा तड़ा। खिचड़ी दाढ़ी। खिचड़ी बाल। कसूँबल गोल साफा। हाथों में चाँदी के कड़े। ख़ूब लंबा रींछ की तरह पूरे शरीर पर घने बाल। घनी भौंहें कनवाल भी ख़ूब लंबे पीले दाँत आड़े तड़े से राह रोककर दैत्य के लहजे में पूछा, “इत्ते लोग इकट्ठे होकर कहाँ जा रहे हो? मौसर खाने के लिए?

दो-तीन बार समझाया तब कहीं बात उसकी समझ में आई। मूँफाड़ की बाजू से हँसी छलकाते हुए कहने लगा, इत्ती-सी बात के लिए बेचारे राजा को क्यूँ तकलीफ़ देते हो! यह न्याय तो मैं यहीं सलटा दूँगा। तुम्हें आँखों की कसम जो एक क़दम भी आगे रखा। नदी का ठंडा पानी पीओ थोड़ा सुस्ताओ ख़ूब नाम डुबोया अपने गाँव का! कोई माई का लाल यह न्याय न निपटा सका? खुर रगड़ते हुए सीधे राजा के पास चल दिए।

लोगों ने भी सोचा, अभी राजदरबार बहुत दूर है। इस गंवार की अक्ल से मामला सलट जाए तो क्या हरज़ है! नहीं तो राजाजी के पास तो जाना है ही। वे मान गए। तब गड़रिए ने बारी-बारी से दोनों को ध्यान से देखा। हूबहू एक-सी सूरत हवा भर भी फरक नहीं। वेमाता भी कैसी-कैसी खुराफ़ात करती है!

दोनों के बंधन खोलते हुए बोला, “भले आदमियो, इन्हें बाँधा क्यूँ? इत्ते लोगों के बीच ये भागकर कहाँ जाते!

फिर मुखिया से पूछा, ये गूँगे-बहरे तो नहीं हैं?

मुखिया ने जवाब दिया, नहीं, ये तो फ़र्राटे से बोलते हैं।

गड़रिया ठठाकर हँसा, फिर इसी तकलीफ़ क्यूँ उठाई? यहीं पूछ लेते। दोनों में से एक तो झूठा है ही!

पंच मन ही मन हँसे। यह गड़रिया तो निरा बौड़म है। ये सच बोलते तो फिर रोना ही क्या था! बस हो चुका इससे न्याय! न्याय करने लायक अक्ल होती तो भेड़ों के पीछे ढरर-ढरर करता क्यूँ डोलता?

रस्सी समेटते हुए गड़रिए ने कहा, समझ गया, समझ गया। बोलना तो जानते हैं, पर झूठ बोलना भी सीख गए हैं। कोई बात नहीं। सच उगलवाना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है। गले में तड़ा खसोलकर आँतों में उलझा सच अभी बाहर ला पटकता हूँ। देर किस बात की खेजड़ी की टहनियाँ भी इसके आगे नहीं ठहर सकती, फिर बेचारे सच की क्या बिसात! बोलो, पहले किसके गले में तड़ा खसोलूँ? जो पहले मुँह खोलेगा वही सच्चा!

भूत ने सोचा, अकेले की बात होती तो कैसी भी जोखिम और दुख उठा लेता। पर अब भेद खुला तो मेड़ी की धणियाणी मुसीबत में पड़ जाएगी। ऐसा जानता तो खेजड़ी के काँटों में ही उलझा रहता। भूतों के छल-बल में तो वह पारंगत था, पर आदमी के दाँव-घात का उसे तिल भर भी इलम नहीं था। आदमी के मुँह से जो भी सुनता, सच मान लेता। तड़े से उसके गले का क्या बिगड़ता है! ऐसे सौ तड़े भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते। उसकी प्रीत हरगिज़ झूठी नहीं हो सकती। इसमें इत्ता सोचना क्या! वह झट मुँह फाड़ता ही नज़र आया। सेठ के बेटे ने तो होंठ ही नहीं खोले। गावदी गड़रिए को सिला पर बाँटकर चटनी बना दे। पर कहा कुछ नहीं।

मुँह फाड़ने वाले की पीठ ठोंकते हुए गड़रिया बोला, शाबास रे पट्टे! तेरे जैसे सच्चे मानुस को इन मूरखों ने इत्ता तंग किया ! फिर भी दो परख और करूँगा। न्याय तो अब जो होना है, वही होगा। पर मन की तसल्ली बड़ी बात है। राई-रत्ती भी वहम क्यूँ रखना?

उसकी भेड़ें दूर-दूर चर रही थीं। उनकी ओर हाथ घुमाते हुए बोला, मैं सात ताली बजाऊँ तब तक जो इन भेड़ों को इस खेजड़ी के नीचे इकड़ी कर देगा, वही सच्चा!

गड़रिए को कहते देर लगी और भूत ने बवंडर का रूप धरकर पाँचवी ताली बजने से पहले-पहले सब भेड़ों को इकट्ठा कर दिया। सेठ का बेटा मुँह लटकाए खड़ा रहा। ठौर से हिला ही नहीं जैसी गड़रियों की मोटी अक्ल वैसा ही फूहड़ उनका न्याय! मानना न मानना तो उसके हाथ में है।

गड़रिए ने कहा, वाह, क्या बात है! भला सच्चे घणी के अलावा इत्ता हौसला किसका हो सकता है। एक मामूली-सी परख और करूँगा तब तक थोड़ा सुस्ता लो।

फिर तड़ा बगल में दबाकर दीवड़ी का मुँह खोला। एक ही साँस में सारा पानी पी गया। जोर से डकार ली। फिर पेट पर हाथ फेरते हुए बोला, सात चुटकियों में जो इस दीवड़ी के भीतर घुस जाएगा, वही मेड़ी का सच्चा धणी है। मेरा न्याय न मानने वाले का गला तड़े के एक झटके में चाक कर दूँगा।”

लोगों ने तड़े के अंकोड़िए की ओर देखा। धार लगा हुआ। तीखा-तच्च। दूसरे अटके का काम ही नहीं मुंडी धूल चाटती नज़र आएगी।

लोगों को अंकोड़िए की आँट देखते देर लगी, पर भूत को दीवड़ी में घुसते कोई देर नहीं लगी। ये करतब तो वह जनम से जानता है। गँवार गड़रिए ने लाज रख ली। भूत ‘के अंदर घुसते ही गड़रिए ने एक छिन भी ढील नहीं की अदेर दीवड़ी का मुँह बंद करके कस्सा खींचकर बाँध दिया। फिर पंचों की ओर देखकर गुमान से बोला, न्याय करने में यह देर लगी दीवड़ी तो मेरी भी मुफ़तखाते में जाएगी, पर न्याय निपटाने का ज़िम्मा कुछ सोचकर ही लिया था। चलो अब सब मिलकर इस दीवड़ी को नदी में फेंक आएँ। आटा-पाटाँ गैगाट करती नदी इसे आप ही मेड़ी की सेज पर पहुँचा देगी। बोलो, हुआ कि नहीं अदल न्याय?

सबने एक साथ सर धुना। सेठ के बेटे की न ख़ुशी का पार था न आनंद का। ब्याह से भी हज़ार गुना उछाह उसके हिए में ठाटें मारने लगा। अंतस का आनंद छलककर होंठों से झरने लगा। हड़बड़ी में नग जड़ी अँगूठी निकालकर गड़रिए की ओर बढ़ाई गड़रिया बिना कहे ही उसके मन की बात समझ गया। पर अंगूठी क़बूल नहीं की। खिचड़ी दाढ़ी में पीले दाँतों की मुस्कान छितराते हुए बोला, “मैं राजा नहीं जो न्याय का मोल लूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अँगूठी मेरे किस काम की न अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह अबूझ हैं। लूँग खाती हैं, पर सोना सूँघती भी नहीं। ये फ़ालतू चीज़ें तुम अमीरों को ही फबती हैं।

अब कहीं भूत को गड़रिए के उज्जह न्याय का पता चला। पर बेकार बात बस के बाहर हो गई थी। फिर भी जोर से कूका, देवासी, तेरी मींडकी गाय हूँ, एक बार बाहर निकाल दे। जीऊँगा तब तक तेरा रेवड़ चराऊँगा।

अब भला भूत की कौन सुनता! ख़ुशी से झूमते हुए नदी के किनारे पहुँचे। दीवड़ी कल-कल बहती नदी के हवाले कर दी। प्रीत के क्षणी को आख़िर नदी की आटाँ-पाटाँ बहती सेज मिली। उसका जीवन सफ़ल हुआ। उसकी मौत सारथक हुई।

फिर गाँववाले, सेठ और सेठ का बेटा दूने वेग से गाँव की ओर चले।

हवेली में घुसते ही बेटा सीधा सौरी में गया। एक दाई बेटी के लोई कर रही थी। दूसरी चंदन की काँघसी से जच्चा के केश सुलझा रही थी। गड़रिए के अदल न्याय की एक-एक बात का खुलासा करके ही उसे चैन पड़ा। एक-एक सबद के साथ जच्चा के कलेजे पर चरड़-चरड़ डाम लगता। जापे की पीड़ा से भी यह पीड़ा हज़ार गुना ज़्यादा थी। पर वह न तो टसकी और न चुस्कारा ही किया। पाखाण-पुतली की नाई चुपचाप सुनती रही।

सारी रामायण उधेड़ने के उपरांत वह आगे कहने लगा, “पर तुम्हारा चेहरा क उत्तर गया? जनम देनेवाले माँ-बाप भी नहीं पहचान सके तो तुम कैसे पहचानतीं? इस में तुम्हारा कोई कसूर नहीं पर हरामी भूत में लच्छन मुताबिक ख़ूब बीती! दीवड़ी में बंदी बना बहुत चिल्लाया, बहुत गिड़गिड़ाया, पर फिर तो राम का नाम जपो। हम ऐसे भोले कहाँ! आख़िर नदी में फेंकने से पीछा छूटा और उसका चीखना-चिल्लाना बंद हुआ। चंडाल फिर कभी छल करेगा!

उसके बाद घरवालों ने जैसा कहा, जच्चा ने वैसा ही किया। कभी किसी बात का पलटकर जवाब नहीं दिया। सास ने जित्ती सुवावड़ बनाई, उसने चुपचाप खा ली। जब सास ने कहा तब स्नान किया। बाल सँवारे। सूरज पूजा बामन ने होम किया। लुगाइयों ने गीत गाए गुड़ की मांगलिक लपसी बनी। सास के कहने पर जलवा पूजी। पीला पोमचा ओड़ा। बेटी को पीली ओढ़नी में झुलाया। परींडा पूजा। कूँकूँ के माँडने उकेरे। मेंहदी लगाई। जैसा कहा वैसा सिंगार किया। गहने-गाँठे पहने। ऐसी सुलच्छनी बहू बड़े भाग्य से मिलती है!

जलवा पूजन की रात बहू पीला ओढ़कर झंमर-झंमर करती हुई मेड़ी चढ़ी। बगल में छोरी। हाँचल में दूध। सूनी आँखें सूना हिवड़ा। माथे में जैसे अनगिनत बुग भनभना रहे हों। बहू के इंतज़ार में धणी हींगलू सेज पर बैठा था। इस एक ही मेड़ी में उसे राम जाने कित्ते जीवन भुगतने होंगे? पर हाँचल चूँघती विटिया बड़ी होकर लुगाई की ऐसी ज़िंदगी न जीए तो माँ की सारी पीड़ा सार्थक हो जाए। यूँ तो ढोर-डाँगरों को भी उनकी मरजी के खिलाफ़ नहीं बरत सकते। एक बार तो सर धुनते ही हैं। पर लुगाई की अपनी मरज़ी होती ही कहाँ है? मसान न पहुँचे तब तक मेड़ी और मेड़ी से सीधे मसान!

( शीर्षक चित्र इसी कहानी पर आधारित फिल्म पहेली का है , जिसका निर्देशन अमोल पालेकर ने किया था।)

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कथाकार विजय दान देथा

विजयदान देथा (१ सितम्बर १९२६ – १० नवम्बर २०१३) जिन्हें बिज्जी के नाम से भी जाना जाता था राजस्थान के विख्यात लेखक और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित व्यक्ति थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और साहित्य चुड़ामणी पुरस्कार जैसे विभिन्न अन्य पुरस्कारों से भी समानित किया जा चुका था। १० नवम्बर २०१३ को ८७ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

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