क्या इस बार सपा का सरदर्द साबित होंगे राजा भैया

क्या इस बार सपा का सरदर्द साबित होंगे राजा भैया

राजनीति में रिश्ते स्थाई नहीं होते हैं। आवाजाही और संबंध समय सापेक्ष बदलते रहते हैं। कुछ इसी तरह छ साल बीजेपी के करीबी बनने की कोशिश में गुजार चुके प्रतापगढ़ की कुंडा विधानसभा के बाहुबली विधायक राजा भैया एक बार फिर सपा के खेमें में अपनी जगह बनाने में लग गए हैं।

तमाम लोगों और मीडिया को यह लग रहा है कि राजा भैया के सपा के समर्थन में आ जाने से भाजपा का बड़ा नुकसान और सपा को बड़ा फायदा होगा। फिलहाल इस सपा के फायदे वाले विश्लेषण को मैं पूरी तरह से निराधार ही नहीं मानता हूँ बल्कि यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं है कि राजा भैया के सपा के समर्थन में आने से सपा का बड़ा नुकसान होता दिख रहा है।

जाति की राजनीति में बटे उत्तर प्रदेश में राजा भैया को फिलहाल किसी जाति का प्रदेश स्तरीय नेता नहीं माना जा सकता है। राजा भैया का कुल राजनीतिक प्रभाव महज दो विधान सभा सीटों तक ही सीमित है। उनके समर्थक भाजपा और सपा के पारंपरिक वोटर हैं जो स्थानीय परिस्थितियों बस उनके खेमे में खड़े होते रहे हैं। उनके मूल प्रभाव को सिर्फ ठाकुर जाति के वोट के रूप में ही देखा जाना ज्यादा बेहतर होगा। दोनों विधानसभाओं का ठाकुर वोट फिलहाल उनकी मुट्ठी में दिखता है शेष जो वोट उन्हें मिलता रहा है वह उन्हें भले ही मिलता है पर यह ऐसा वोट भी नहीं है कि उसे एक मुश्त राजा भैया किसी के पक्ष में ट्रांसफर करा सकें।

विधान सभाओं में राजा का मुखर विरोध करती रही है। यह विरोध अब महज राजनीतिक विरोध नहीं रह गया है बल्कि यह विरोध बहुत हद तक निजी विरोध में तब्दील हो चुका है।

यही वजह थी कि राजा भैया के सपा के करीब आने कि सुगबुगाहट मात्र से सपा के युवा भड़क गए थे। युवा आक्रोश को देखते हुए कौशांबी लोकसभा चुनाव लड़ रहे सपा प्रत्याशी पुष्पेंद्र सरोज के पिता और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव इंद्रजीत सरोज के पाँव भी फूल गए थे जिसकी वजह से सपा मुखिया को हस्तक्षेप करना पड़ा था और दोनों विधानसभा के पदाधिकारियों को लखनऊ बुलाकर समझाना पड़ा था।

वहाँ से पार्टी के पदाधिकारी भले ही अपने नेता की बात मानकर वापस लौट आए हों पर उनके मन में जो आशंका उभर आई थी वह इस रूप में जरूर बलवती हो गई थी कि अगर राजा भैया के समर्थन की वजह से सपा का उम्मीदवार जीत गया तो पार्टी में राजा भैया के लिए एक बड़ा स्पेश क्रियेट हो सकता है जो दोनों ही विधानसभा के नए उभर रहे नेता किसी भी सूरत में नहीं चाहते हैं।

सपा के कार्यकर्त्ताओं ने पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से राज्य भैया की घेराबंदी की और राजा भैया को कुंडा में गली-गली प्रचार करने पर मजबूर कर दिया उससे सपा के समर्थक चुनाव भले ही हार गए थे पर आत्मविश्वास जीत गए थे। वजह साफ थी की लाखों वोटों के अंतर से जीतने वाले राजा भैया और उनके समर्थित प्रत्याशी विनोद सरोज पहली बार मामूली अंतर से ही जीत हासिल कर सके थे। पहली बार लोगों को सपा के कार्यकर्त्ताओं ने यह आभास करा दिया था कुंडा और बाबागंज की सीटें अपराजेय नहीं हैं बल्कि राजा भैया को हराया जा सकता है।

फिलहाल राजा भैया की करीबी से कौशांबी में जीत के करीब दिखती सपा अचानक जीत से दूर होती दिखने लगी है। कौशांबी चुनाव तक राजा भैया का समर्थन ऊहापोह वाला था पर केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने जब राजा भैया पर विषैले तीर चला दिए तो राजा भैया तिलमिला उठे और मौके का फायदा उठाते हुए वह अनुप्रिया पटेल के खिलाफ खोलकर अपने लिये सपा तक पहुँचने का रास्ता बनाने लगे। यहाँ तक कि जनसत्ता दल के तमाम समर्थक झण्डा उठाकर सपा मुखिया अखिलेश यादव की जनसभा तक जा पहुंचे। बहुत हद तक बिन बुलाये उस मेहमान की तरह जो 11 रूपये लिफ़ाफ़े में लिए तब तक घूमता रहता है जब तक कि मेजबान परिवार की तरफ से कोई आवभगत के लिए खड़ा न हो जाए। मीडिया ने इसे तमाशे की तरह पेश किया। सपा कार्यकर्त्ताओं ने जनसत्ता समर्थकों की खिदमत नहीं। सपा प्रमुख के सामने समर्थक बार-बार राज्य भैया अखिलेश यादव का साझा नारा लगाते रहे पर सपा कार्यकर्त्ताओं के मां को पढ़ते हुए सपा मुखिया ने तमाम प्रयासों के बावजूद जुबान पर अब तक राजा भैया का नाम नहीं आने दिया है।

भाजपा  के साथ किसी तरह का समीकरण न साध पाने के बाद राज्य भैया ने सपा में सेंध लगाने का जो प्रयास किया है उसका अंतिम उत्तर अब तक भले ही नहीं मिला है पर इतना तो तय है कि सपा को राजा  भैया के समर्थन से खासा नुकसान हो चुका है।

राजा भैया अब तक राजनीति में अपनी कीमत महसूस कराने में कभी नहीं चूकते थे पर इस बार वह निहायत बैकफुट पर पहुँच गए हैं। फिलहाल अब उनके समर्थन के बाद जिन लोकसभाओं में चुनाव होना है वहा उनका कोई सम्मान जनक जनाधार नहीं है जिससे सपा को कोई फायदा हो सके। अखिलेश यादव उनके लिए सपा की कुंडी खोलेंगे या बंद रखेंगे यह तो अभी तय नहीं हुआ है पर यह जरूर हुआ है कि जनसत्ता के समर्थक आपस में कह रहे हैं कि अभी तक न अस्तबल में जगह मिली है न यही पता चल पाया है कि लगाम थामनी है कि थमानी है।

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