गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-8

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-8

जैसा कि मैंने श्रृंखला – 7 में बताया है कि कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार) में लगभग एक वर्ष तक नौकरी करते हुए रिश्वतखोरी की एक ऐसी घटना मेरे सामने आई जिससे मेरे भीतर का मानव ग्लानी से भर गया। अब तक मैं उस कार्यालय की ऐसी गतिविधियों से वाकिफ नहीं हो पाया था। और जब मुझे पता चला कि मैं अंदर तक हिल गया कि सारी उम्र नौकरी करने के बाद भी अपना ही पैसा लेने के लिए इतना अमानवीय कृत्य झेलना पड़ता है। इस घटना के बाद मेरा मन ऐसा उचटा कीं मैंने मन ही मन कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार) के आफिस से नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया और फिर से कोई और नौकरी की तलाश में लग गया। ज्ञात हो  कि रामभज जी  चपरासी से प्रमोशन लेकर, उस समय कनिष्ट लिपिक थे। किंतु अब  रामभज जी मेरी इस कवायद से कुछ-कुछ खफा से दिखने लगे थे। एक बार तो उन्होंने बातों-बातों में कह भी दिया था  कि बारहवी करके, अब तू कलेक्टर बनेगा क्या।

यह उनकी ही नहीं, अक्सर हर व्यक्ति के व्यवहार में देखने को मिलता है कि उससे ऊपर कोई और न पहुँचे, शायद उनके मन में भी कुछ  ऐसी ही भावना घर कर गई हो। लेकिन मैं उनकी बातों को हंसकर टाल देता था। दरअसल वो मुझे पुत्र तुल्य और मैं उन्हें पिता तुल्य समझता था।  किंतु मैंने किसी और अच्छी नौकरी की तलाश जारी रखी । अंतत:  मुझे बैंक आफ इंडिया, भारतीय जीवन बीमा निगम और भारतीय स्टेट बैंक यानी  एक साथ तीन जगह से नौकरी का बुलावा आ गया जिनमें से मैंने भारतीय स्टेट बैंक को चुना क्योंकि उस समय देश में वेतन के हिसाब से भारतीय स्टेट बैंक तीसरे  स्थान पर था।  

 अंतत: मैंने भारतीय स्टेट बैंक को चुना जहाँ जाइन करने के एक नियत तिथि थी। अत: मैंने अपने हैड क्लेर्क श्री मोहन लाल सूद जी सलाह मशविरा करने के बाद ई.पी.एफ. (भारत सरकार) की नौकरी से त्याग पत्र देने का मन बना लिया और नौकरी छोड़ने के लिए एक माह का नोटिस दे दिया।  किंतु महीना बीत तक भी मेरे त्याग पत्र को स्वीकार नहीं किया गया। मैंने सूद साहेब से इस बारे में बात की तो पता चला कि मेरा त्याग पत्र एकाउंट्स आफिसर के पास उनकी संस्तुति हेतु लम्बित पड़ा है। सूद साहेब ने मुझे एकाउंट्स आफिसर से व्यक्तिगत रूप से मिलने को कहा। अत: जब मैं एकाउंट्स आफिसर से मिला तो एकाउंट्स आफिसर, जो दक्षिण भारत से थे, ने मुझसे बड़ी ही सादगी से कहा कि मैं तुम्हारा त्याग पत्र की संस्तुति नहीं करूँगा क्योंकि मुझे एक अरसे बाद स्वतंत्र रूप से काम करने वाला कोई क्लर्क मिला है। हाँ! मैं तुम्हारी प्रमोशन के लिए संस्तुति कर सकता हूँ।  में उनकी इस बात को सुनकर तपाक से बोल पड़ा,”सर! क्या ईमानदारी से काम करना गलत है।”  इतना सुनकर एकाउंट्स आफिसर ने प्रत्युत्तर में कहा,” No..no my son…it is not recommended”| उन्होंने अपनी मेज की दराज से मेरा त्याग पत्र निकाला और संस्तुति करने के बाद मुझे देते हुए बोले,” Take it and proceed forward….|” इस प्रकार मेरा त्याग पत्र को मंजूरी मिल गई। और मैं भारतीय स्टेट बैंक की नौकरी जाइन करने की दिशा में बढ गया।

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इस तरह मैं 29 अप्रैल 1974 को भारतीय स्टेट बैंक में बतौर  टंकड़-लिपिक भर्ती हो गया। लेकिन बैंक में नौकरी लगने के बाद रामभज जी जाने क्यों, मुझसे इतने खफा हो गए कि मुझे अपने घर से निकल जाने की जिद पर अड़ गए और उन्होंने मुझे उसी दिन घर से निकाल कार ही सांस लिया। तब मैं कालका जी (दिल्ली) के पास बसी बस्ती गोविंद पुरी में अपने एक रिश्तेदार की मदद से किराए पर मकान लिया और करोल बाग, टैंक रोड से तांगे में अपना सामान लेकर गोविंदपुरी रहने के लिए आ गया।

मेरी पहली पोस्टिंग बैंक की ओखला शाखा में हुई किंतु यहाँ के तब के शाखा प्रबंधक मि. कौल  ने यह कहकर कि उन्हें तो अंगेजी टाइपिंग जानने वाले कर्मचारी की आवश्यकता है, मुझे जोइन नहीं कराया। अब मैं मानसिक रूप से बहुत  परेशान था क्योंकि इससे पहले वाली नौकरी में छोड़ चुका था। अब मैं वापिस बैंक के संसद मार्ग स्थित हैड आफिस गया और संबंधित अधिकारी से मिलकर सारी गाथा सुनाई। संबंधित अधिकारी का उपनाम ‘रतनम’ था। उन्होंने तुरंत ओखला के शाखा प्रबंधक को फोन किया और शाखा प्रबंधक को आदेश दिया कि इसे आज ही भर्ती करने के बाद आपको शाखा बंद करनी है। क्या आपको पता नहीं कि नए भर्ती लिपिक का टाइपिंग टैस्ट जाइन करने के छ: महीने बाद लिया जाता है? और ये ही हुआ… मैं ओखला शाखा में वापिस गया और इस तरह मैं 29.04.1974 को  बैंक में भर्ती हो गया।

कुछेक महीनों बाद ओखला से मेरा स्थानातरण नई-नई खुली बदरपुर शाखा में कर दिया गया। इस शाखा में मुझे शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में रखा गया। अब तक मैं अंग्रेजी टाइपिंग भी सीख गया था। शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में मेरी तैनाती अन्य लिपिकों को खलने लगी क्योंकि  इस शाखा में मेरे साथ भर्ती हुए सभी कर्मचारी बी. ए. या फिर एम. ए. थे। वे सब थे भी दिल्ली  के ही…. और थे भी अपने दलित समाज के ही। उनमें मैं ही केवल बारहवीं पास था वो भी दिल्ली के बाहर बुलंदशहर के एक छोटे से  गांव का। मेरे शैक्षिक स्तर को लेकर वो आपस में कुछ  न कुछ अप्रिय बातें करने से बाज नहीं आते थे। उनकी ऊल-जलूल बातों का मुझे ये लाभ मिला कि 1975 में मैंने स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त  करने के लिए मेरठ यूनिवर्सिटी (अब: चौधरी चरण सिंह  यूनिवर्सिटी) में दाखिला लिया और  पत्राचार पद्धति के तहत जरिए 1977 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। इसके मुझे दो फायदे तो मिले ही: एक- मैं अपने कार्यालयीन दोस्तों के तानों से भी बच गया ; दो- मुझे दो एडीशनल इंक्रीमेंट भी मिल गईं।

25 जून, 1975 को आंतरिक अशांति के आधार पर देश में आपातकाल की घोषणा की गई थी। 1975 में ही मैंने स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मेरठ यूनिवर्सिटी (अब: चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी) में दाखिला लिया था। जाहिर है कि पत्राचार पद्धति के तहत हर तीन महीने के समयकाल मे विश्वविद्यालय से पाठ्यक्रम से संबंधित पठनीय सामग्री भेजी जाती थी। साथ-ही-साथ उनके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर हरेक तिमाही की समाप्ति पर देने होते थे।

मुझे यह मानने में कतई  भी झिझक नहीं है कि मेरा दिमाग बचपन से ही प्रतिक्रियात्मक रहा है। हालाँकि अपने आप ऐसी स्वीकृति की घोषणा करना तर्कसंगत नहीं है। बता दूं कि मैंने बी.ए. की कोई टेक्स्ट बुकस नहीं खरीदी थीं। केवल विश्वविद्यालय से  प्राप्त पाठ्यक्रम से संबंधित पठनीय सामग्री  को ही पढ़ा करता था। मैं सामाजिक शास्त्र का विद्यार्थी था। मेरी आदत थी कि मैं अक्सर किताबी उत्तर नहीं दिया करता था। किताबी शिक्षा के साथ-साथ समकालीन सामाजिक परिस्थितियों का व्यौरा भी निर्धारित .प्रश्नों के उत्तर में शामिल कर दिया करता था। लेकिन मुझे हमेशा एक शंका रहती थी कि यदि उत्तर पुस्तिका जाँचने वाला कोई अध्यापक मनुवादी प्रवृत्ति वाला हुआ तो मुझे अवश्य फेल कर देगा।

उदाहरणार्थ मैं एक लेख का उल्लेख करना चाहता हूँ। आपातकाल के दौर में प्रश्न पत्र में अक्सर प्रश्न या तो राजनीति से जुड़े होते थे या फिर धार्मिक मसलों से। एक बार गोस्वामी तुलसी दास पर निबंध लिखने संबंधी प्रश्न आया तो मैंने उस निबंध को प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से, संक्षिप्त में कहूँ तो, गोस्वामी तुलसी दास को रामायण के रचियता के रूप नकारने का काम किया। सारांशत: मैंने लिखा कि जिस तुलसी दास को लाश और लकड़ी के गट्ठे तथा  साँप और रस्सी में फर्क होने का भान तक न था, वो अपनी पत्नि के इस शब्दों “अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?“ का अर्थ ही समझ नहीं आ सकता। जबकि कहा ये जाता है कि तुलसी दास अपनी पत्नि के इस शब्दों को सुनने के बाद श्री राम की भक्ति में लीन हो गए और रामायण जैसे ग्रंथ की रचना कर दी। मैंने यह सिद्ध करने का दुस्साहस किया कि  रामायण जैसे ग्रंथ की रचना तुलसी दास के द्वारा नहीं, अपितु तुलसी दास की ज्ञानी पत्नि के द्वारा किया गया होगा। चूंकि उस समय मॆं स्त्री को अबला माना जाता था, रामायण की रचना का श्रेय उसको न देकर, पुरुष सत्ता के चलते रामायण की रचना का श्रेय गोस्वामी तुलसी दास को दिया गया।  और भी ऐसे बहुत से प्रश्नों के उत्तर मैं इसी तरह से लिख के आता था।

 उल्लेखनीय है कि छात्रों को अतिरिक्त सुविधा के लिए दिल्ली के आई. पी. एस्टेट क्षेत्र में  दीन दयाल उपाध्याय रोड पर स्थित बंगाली स्कूल में प्रति रविवार को क्लास लगाई जाती थीं जिसमें शिक्षा देने के लिए विश्वविद्यालय से अध्यापक-गण आया करते थे। एक दिन ऐसा आया कि सामाजिक ज्ञान के प्रेफेसर माननीय अग्रवाल ने क्लास में आते ही बड़े ताव से पूछा कि तेजपाल सिंह कौन है… खड़े हो जाओ। मैं अपना नाम सुनकर सुन्न सा हो गया और मुझे लगा कि शायद इन्होंने मेरे लेखन को लेकर कोई न कोई शिकायत जरूर होगी। खैर! मैं खड़ा हो गया। अग्रवाल जी ने अध्यापकीय लहजे में पूछा ,” कौन सी किताबें पढ़ते हो तुम?”  प्रत्युत्तर में मैंने कहा,” सर! मैंने तो कोई किताब बाजार से खरीदी ही नहीं। मैं तो केवल यूनीवर्सिटी द्वारा भेजी गई पठनीय सामग्री को ही पढ़ता हूँ।“ अग्रवाल जी ने फिर प्रश्न उछाला.” आपकी उत्तर पुस्तिका से तो ऐसा नहीं लगता।“  मैंने अग्रवाल जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि सर! मैं सवालों के उत्तर देते समय आज की सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखता हूँ और प्रश्नों के उत्तर देते वक्त प्रासंगिक तथ्यों को भी अपने उत्तर में जोड़ देता हूँ। इतना सुनकर अग्रवाल जी ने कहा – बहुत ठीक… सामाजिक ज्ञान कोई ठोस  ज्ञान नहीं होता यह समय के साथ-साथ परिवर्तनशील होता है। और उन्होंने अन्य छात्रों की ओर इशारा करते हुए कहा – सुना आप सबने… इसे कहते हैं – सही अर्थों में ज्ञानार्जन। उनकी   ये बात सुनकर मेरी सांस में सांस आई और परीक्षाफल के प्रति मेरे मन से सारे संश्य दूर हो गए। और अंतत: मैं 1977  में बी. ए. की परीक्षा मे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ।

जब मैं भारतीय स्टेट बैंक की बदरपुर शाखा में शाखा प्रबंधक  के सहायक के रूप में तैनात था तो बैंक में भर्ती का दौर चल रहा था। अब क्योंकि बदरपुर शाखा नई-नई खुली थी तो हमारी  शाखा में पंजाब के दो युवा डयूटी ज्वाइन करने आए। जांच में पता चला कि उन दोनों के पास शिक्षा संबंधी मूल-प्रमाण पत्र नहीं थे। मैंने ये बात शाखा प्रबंधक  को बताई किंतु शाखा प्रबंधक महोदय ने उन लड़कों को भर्ती करने या न करने का दायित्व  मुझ पर ही छोड़ दिया। लेकिन जब मैंने उन लड़कों  ने मूल-प्रमाण पत्र  लाने को कहा तो उन लड़कों ने बताया कि वे तो पंजाब से आए है। आने-जाने में कम से कम दो दिन तो लग ही जाएंगे। यह सुनकर मैं पुन: शाखा प्रबंधक  के पास गए और उनके पंजाब से आने वाली बात बताकर उनको जॉइन कराने का प्रस्ताव रखकर कहा कि जब वो शनिवार को अपने घर जाएंगे तो अपने मूल कागजात ले आएंगे। सो इन्हें आज ही आज ही  ज्वाइन करा देता हूं। हाँ!  जब तक ये कागजात नहीं दिखाएंगे, तब तक इनकी हाजरी नहीं लगवाएंगे। शाखा प्रबंधक  ने  कहा, ‘जाओ जैसा ठीक लगे कर लो।’ इस प्रकार उन दोनों को ज्वाइन तो करा लिया। अब उनके सामने रात को रुकने की समस्या थी, सो मैं उन दोनों को अपने किराए के एक कमरे के मकान पर साथ ले आया और उन्हें दो दिन तक अपने पास ही रखा।  न जाने ऐसे कितने ही किस्से  मेरे  साथ जुड़े हुए हैं।

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यहाँ दिए तथों से आगे अभी बहुत कुछ बाकी है। माँ के बारे में न जाने कितनी ही ऐसी घटनाए हैं कि यदि उन सबका उल्लेख करने लग जाऊँ तो शायद ही मैं उन्हें पूरी कर पाऊँ….कुछ का उल्लेख मैं पहले भी कर चुका हूँ। फिर भी चलते चलते एक और घटना का जिक्र इसलिए करना चाहूँगा कि उड़ान के लिए ताकत की कम, धैर्य और हौसले की ज्यादा आवश्यकता होती है। आपने भी सुना होगा कि गए समय में लूट-खसोट करने वालों के अपने-अपने इलाके होते थे। देहातों में तो शायद आज भी होते हैं। हमारे इलाके में एक जाना-माना चेहरा था….सोबना डाकू…।  सब उसे डाकू कहते थे पर काम करता था राहजनी या फिर लूट-खसोट  का …… लेकिन इलाके भर में था नामी। सर्दियों के मौसम में, एक दिन की बात है कि मैं और माँ चूल्हे में आग जलाकर बैठे थे…. अंदाजे से रात के करीब नौ-दस बज रहे होंगे…. गाँव का एक आदमी दौड़ा-दौड़ा हमारे घर आया और यह कहते हुए माँ के पाँवों में आ गिरा…उसके पाँव पीछे और सिर माँ के पैरों में था ….फूफी… फूफी…. आज बच गया मैं….. आज रास्ते में ‘सोबना’ ’मिल गया था…. उसने मेरे लत्ते-कपड़े सब उतरवा लिए थे…. एक बार को लगा कि वह मुझे मार डालेगा…. मेरी तो धिग्घी ही बन्ध गई थी….. घबराकर मेरे मुँह से निकल गया  कि भैया मैं तो मंडईयों का हूँ… इतना सुनकर वो रुका और मुझसे पूछा …… फिर ये बता तू फूफी को जानता है…मैने तपाक से कहा…हाँ! भैया मैं फूफी को जानता हूँ….फूफी के पड़ोस में ही हमारा घर है….। सबका बड़ा ख़याल रखती है फूफी…यकीन ना हो तो कल गाँव में आकर पूछ लेना…..। बस! फूफी!  उसने इतना सुना और मुझे छोड़ दिया… और कहा आज से आगे कभी रात-बिरात इस तरह घर से बाहर मत निकलना  ….नहीं तो…। 

इतना सुनकर माँ बड़े आराम से बोली, “अरे! तो अब मरा क्यूँ जा रा…। उठ…..! तने तो मैंई डरा दई…तैने तो।  रात में कहाँ घूमता फिर रयो था….. चल घर जा… कोई चिंता की बात ना है…… अब कभी आगे ऐसा होवे तो फूफी का नाम ले दीजो… समझा कि नईं…। फूफी-भतीजे की बात तो खत्म हो गई……किंतु मैं सोचता रह गया कि ये पाँच फुटी औरत है…. या फिर कुछ और……..? इससे पहले मेरे ऐसे प्रश्नों का उत्तर मिल पाता…..माँ दुनिया से कूच कर गई…..।

आज जब मेरे संगी-साथी इस सत्य को जान गए हैं कि मेरे माता-पिता का देहांत मेरे बचपन में ही हो गया था। तो जाहिर है कि लोग आज मेरे विकल बचपन के बारे में न जाने कैसे-कैसे प्रश्न पूछते हैं….. यथा ऐसे में मेरे बचपन की प्राण-प्रतिष्ठा कैसे….और किसके द्वारा संभव हो पाई, तो मैं जैसे सकते में आ जाता हूँ… वह इसलिए कि अनाथ का कोई एक पालनहार नहीं होता….. और यदि ऐसा हो भी तो इस जिम्मेदारी को उठाने का क्लेम सभी घर वाले करते हैं……कोई कहेगा कि मैंने पढ़ाया था इसे…. नहीं तो….., कोई कहेगा कि तूने स्कूल में भेज तो दिया, पर फीस तो कई महीने की मैंने ही दी थी…… कोई कहेगा कि ठीक है…. मान लिया कि तुमने ही इसे पढ़ाया …… पर लत्ते-कपड़े की पूर्ति तो मैंने ही की थी…… उसके कामयाब होने पर न जाने कितने पैरोकार पैदा हो जाते हैं…. बेचारा अनाथ किस-किस का एहसान चुकाए….वो जीवन भर अपने अनाथ होने के भार के नीचे दबा ही रहता….है । किसी का भी एहसान नहीं चुका पाता… ऐसा दावा करने वालों में फिर चाहे बहन हो,  भाई हो या फिर कोई और… यह भी हो सकता है, जिसने कभी उसके मरने-जीने का खबर तक न ली हो…. वो भी उसे पालने के दावे ठोकता हो। ऐसा मेरे साथ भी रहा….. उस वक्त जब मैं खुद अपनी साँसे गिनने की अवस्था में आ गया था… मैं भी ऐसे ऋणों से आज तक मुक्त नहीं हुआ हूँ। किंतु मैं यह भी सोचता हूँ कि कोई न कोई तो इस प्रश्न के केन्द्र में होता ही है जिसकी चर्चा करना ही चाहिए। …तो वो थी मेरी भाभी…उसके एहसान अदायगी का मुझे इससे अच्छा कोई माध्यम नजर नहीं आ रहा है। मेरे इस लिखे का भाभी को तो कोई खबर नहीं होगी क्योँकि का भी 1980 में देहांत हो गया था। किन्तु इसे पढ़कर शायद मेरे मनत्व से आप परिचित हो जाएंगे। … और हाँ! आज जब मैं यह उल्लेख कर रहा हूँ…… मेरे भाई – बहनों में से कोई भी यह सुनने को बाकी नहीं है….. अन्यथा तो उनका पारा झेलना मुझे भारी पड़ जाता।…… सच्चाई कड़बी होती है ना…?

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