गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है -11 तेजपाल सिंह ‘तेज’
: श्रृंखला – 11
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की ग्यारहवीं किश्त है।
धर्म का काम आप करें, मैंने तो मेहनत की है…
यह 1967 की बात है। उन दिनों मैं कक्षा ग्यारह का विद्यार्थी था। मेरे बड़े भाई साहब गाँव के प्रधान थे। जाहिर है, उनका आस पड़ोस के काफी लोगों से भाईचारा था। लोग उनकी इस भाईचारे का फायदा भी खूब उठाते थे। जहाँ किसी ने उन्हें प्यार से दो-चार बार प्रधान जी कहा तो उनका अपनापन आकाश हो जाता था। लोग धर्म के नाम पर फ्री उनसे काम करा लेते थे। वो नल लगाने के पेशेवर मिस्त्री थे। इसी कारण मैं भी नल लगाने का काम सीख गया था। दसवीं कक्षा के बाद जब भाई साहब ने आगे पढ़ाने को मना कर दिया था तो मैं नल लगाकर ही 11वीं और 12वीं की शिक्षा के लिए पैसों का जुगाड़ किया करता था।
एक दिन कुछ यूँ हुआ कि भाई साहब ने मुझे सठला कस्बे के एक मंदिर पर नल लगाने का आदेश दिया। छुट्टी का दिन था। भाई साहब इतने निष्कृय हो गए थे और मुझे काम पर भेजने के मौके की तलाश में रहते थे। मैं अपने एक साथी उदयराम को अपने साथ लेकर मंदिर पर नल लगाने चला गया। नल लगाने में पूरा दिन गुजर गया। जब काम पूरा हो गया तो मैंने मंदिर के मुखिया से नल लगाने की मजदूरी मांगी तो वो बड़े ही मासूम होकर बोले, ‘ भैया! ये तो धर्म का काम है। इसके भी पैसे……? “ इतना सुनकर पहले तो मैं कुछ सकपकाया और फिर मैंने मुखिया जी से कुछ कर्कश स्वर में कहा,’पंडित जी! धर्म का काम तो आप कर रहें हैं, हमने तो कमरतोड़ मेहनत की है। हमें तो अपने मेहनताने के रूप में 40 रुपए चाहिए ही।“ अरे भैया! तेरे बड़े भाई ने तो कभी ऐसे बात नहीं की,” पंडित बोले।
मैंने उनकी बात का फिर प्रतिरोध किया और पैसे लेने की बात पर अड़ा रहा। अंतत: पंडित जी ने बड़ी चिकचिक करने के बाद केवल 30 रुपए दिए। किंतु मेरी शिकायत मेरे बड़े भाई से करदी। भाई साहब ने पंडित जी की बात को बल देते हुए कहा, ‘क्या हो जाता जो तू एक जगह पैसे छोड़ भी देता।‘ उनकी ये बात मुझे नागवार गुजरी और मैंने भाई साहब से तुनक कर कहा कि यदि आपको उनसे इतना ही प्रेम है तो आप उन्हें अपने पास से उनको पैसे लौटा दें। मैं तो पैसे लौटाने वाला नहीं। ज्ञात हो कि मैंने और उदयराम ने पाँचवी तक की शिक्षा साथ-साथ प्राप्त की थी। बाद में उसने पढ़ाई छोड़ दी और अपनी खेती-बाड़ी के काम में लग गया। भाई ने मुझे स्वतंत्र भारत इंटर कालेज , भवन बहादुर नगर ( बी. बी. नगर) में कक्षा मै दाखिला दिया था।
यहाँ यह भी बता दूं कि नल लगाने का काम न केवल जटिल था अपितु मेहनत भरा भी था। नल लगाने से पहले जमीन में ढाई इंची बोर करना होता है। इसकी गहराई अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग होती है। फिर लोहे के 20 फिट लम्बे ढाई इंची पाइपों को निकाल कर उस बोर में आवश्यक लम्बाई के सवा इंची पाइप डाले जाते हैं। तत्पश्चात अंतिम फिटिंग की जाती थी। लोहे के पाइपों के उठाने व फिट करने का काम मेरा हुआ करता था। ऐसा करने में बहुत बार पाइपों के हाथों से फिसलने या गिरने के कारण चोट भी लग जाती थी।
ठीक से देख ले! इधर मैं भी खड़ा हूँ…
जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि अपनी पढ़ाई का खर्चा पूर्ति के लिए अवकाश के दिनों में नल लगाने का काम कर लिया करता था। और अक्सर सहकर्मी के रूप मे उदयराम को ही ले जाया करता था। कारण कि उदयराम मेरे मुकाबले शारीरिक दृष्टि से कद-काठी से सबल और शांत प्रवृति के थे। यह 1968 की बात है। तब मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था। हम दोनों एक दिन हमारे गाँव के पास के कस्बे सठला के मुख्य मार्ग पर एक दुकान के सामने नल लगाने गए। अब क्योंकि मुख्य मार्ग पर तरह-तरह के वाहन और बाजार होने के कारण लोगों का आना-जाना लगा ही रहता था/है। इस कारण हमें काम करने में काफी दिक्क्तों का सामना करना पड़ रहा था। नल लगाने का काम लगभग पूरा हो चुका था। अब हम सामान समेटने का काम कर रहे थे कि संयोगवश तमाम सावधानी बरतने बावजूद एक लोहे के पाइप को उठाते समय बिजली के तारों से जा टकराया।अच्छी बात ये रही कि उस समय बिजली के तारों में करंट नहीं आ रहा था। खैर! हम एक अनहोनी से बच गए। किंतु एक दुकानदार ने तंज कसते हुए हमारी कार्यप्रणाली पर बेहद बचकानी और शर्मनाक टिप्पणी करदी।
जिसके चलते मेरा पारा चढ़ गया और मैंने बिना कुछ सोचे-समझे उसकी कमर पर अपना 18 इंची पाइप रिंच दे मारा। इस पर वह बिलबिलाने लगा। फिर क्या था वो तो अपनी दुकान के पिछ्ले हिस्से में जाकर छुप गया किंतु बाजार होने के कारण आने-जाने वाले लोगों और पड़ोस के दुकानदारों की भीड़ जमा हो गई। जिसको मारा था, उसका भाई भी आ गया। इससे पहले कि वो मेरी ओर मार-पिटाई करने के मकसद से बढ़ता तो शांत स्वभाव रखने वाले उदयराम ने उसकी ओर आँखें तरेरते हुए कहा कि देख! अभी मैं भी खड़ा हूँ….जो आगे एक भी कदम बढ़ाया तो फिर देख लेना, तेरा क्या हाल करूँगा। फिर क्या था.. सारी भीड़ तो छंट ही गया और उसका भाई भी अपनी दुकान के अंदर चला गया। यहाँ यह उल्लेख करना भी विषयांतर पैदा नहीं करेगा कि हमारे गाँव वालों की दबंगई के चर्चे आम थे। उसका दवाब भी आस-पड़ोस के गाँवों पर बना ही रहता था। हालाँकि हमारे गाँव में उस समय लगभग 40-45 ही घर थे।
अपने घर पर तो कुत्ता भी शेर बनता है…..
यदि आप अपने आप को कमजोर समझते हैं तो इसमें लोगों की गलती नहीं है। आप अपने आप को कमजोर मत समझिये, आप अपने सभी काम इमानदारी से कीजिये। अपने काम बनाइये। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो दुनिया कोई भी आपकी मदद को नहीं आएगा। यदि आप अपने आप कमजोर नहीं समझते हैं तो दुनिया आपकी मदद को आगे आने को तत्पर रहेगी। समझलें कि दुनिया और दुनिया के लोग एक दूसरे के पूरक हैं। यदि बर्बाद होने के विचार आप के मन में हैं तो आप होंगे और यदि यह विचार आप के मन में नहीं हैं तो कोई आपका कुछ नही बिगाड़ सकता है । कहने का मतलब यह है आप आपने को कमजोर मत समझिए।
1969 की बात है। मैं 12वीं कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों मुझे पड़ोस के मण्डौना गांव में नल लगाने जाना पड़ा। मेरे साथ उदयराम था। काम करते- करते दोपहर हो गई। गर्मियों के दिन थे। सो पसीनों में लथपथ हाथ-पैर धोए और घर के बरामदे में पड़ी एक खाट पर सुस्ताने लगे। इतने में हमें खाना भी परोस दिया। हमने खाना शुरू ही किया था कि मण्डौना का रहने वाला ही एक जाट व्यक्ति हमारे पास आया और बोला – आज मेरा काम करके घर जाना। उदयराम ने पहले उसके मूँह की ओर देखा और कुछ गुस्से में उससे बोला,’ देखते नहीं हम खाना खा रहे हैं। पहले यहां का काम खत्म करेंगे फिर समय मिला तो आपका काम करेंगे।’ वह जाट पुत्र बुरा मान गया। बोला ,’ देखता हूं कि तुम मेरा काम कैसे नहीं करोगे। मैं तुम्हें बिना मेरा काम किए यहां से जाने नहीं दूंगा और न तुम्हारा बारदाना ले जाने दूंगा।’ इस पर उदय राम भड़क गया। उससे बोला,’ अच्छा यह बात है। जो तुझे देखना है… देख लेना। अब हम तेरा काम भी नहीं करेंगे और सामान ले जाएंगे।
तुझमें हिम्मत है तो अपने और हमारे गांव के बीच पड़ने वाले बाग पर आ जाना। मैं भी अकेला और तू भी अकेले मिलना। फिर देखते हैं कि तू क्या करेगा। अपने घर पर तो कुत्ता भी शेर बनता है। उस व्यक्ति का इतना सुनना था कि बड़बड़ाता हुआ अपने घर चला गया। हमें काम करते-करते रात होने लगी। काम खत्म करने पर अपना सामान समेटा और उससे पंगा लेने की तैयारी के साथ वहाँ से अपने गांव की ओर चल पड़े। आते समय उदय राम ने मुझसे कहा – चाचा! अगर वो साला रास्ते में मिल जाए तो उससे बिना कोई बात किए बिना उसे लंबा कर देना। मिल गया तो उसे आज सबक सिखाना है। और हम बातचीत करते हुए अपने गांव आ गए।
काम के सिलसिले में एक दिन ऐसा भी हुआ…
आपने सुना होगा कि कामगारी दुनिया में किसी सुधी मिस्त्री के साथ लम्बे समय तक काम करते-करते उसके सहकर्मी भी नौसिखिया मिस्त्री बन जाते हैं। ऐसा हमारे गाँव में भी हुआ। मेरे भाई या मेरे साथ काम करने वाले सहकर्मी भी स्वघोषित मिस्त्री बन चुके थे और उनमें से कई जनों ने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया था। उनमें से एक लीले नाम के सहकर्मी भी थे जो स्वतंत्र रूप से काम करने लगे थे।
एक दिन अनायास ही वो मेरे पास आए और मुझसे कहा कि भाई ढकोली गाँव में नल लगाते हुए मेरा बारदाना जमीन में फंसकर रह गया है। मैं अपना बारदाना नहीं निकाल पा रहा हूं, तू मेरी मदद के लिए आज मेरे साथ चल और बारदाना निकालवा दे। मैं कुछ सोचें बिना ही लीले के साथ चला गया जबकि मेरे बारहवीं के सालाना पेपर चल रहे थे। काफी मसक्क्त के बाद लीले का बारदाना निकाला ही था कि मकान मालिक शर्मा जी भी अपने घर पर आ गए और उन्होंने आते ही मेरे गाल पर एक जोर का चांटा जड़ दिया…. और कहा,’ कल तेरा भौतिक विज्ञान का पेपर है और तू यहाँ काम पर लगा है। अभी तुरंत काम बंद कर और घर जाकर पेपर की तैयारी कर।‘
बतादूँ कि शर्मा जी मेरे गाँव के पड़ोसी गाँव चित्सौना के जूनियर हाई स्कूल में अध्यापक थे। वो अक्सर भाई साहब के प्रधान होने के कारण हमारे घर आया-जाया करते थे। और मुझे भी अच्छी तरह पहचानते थे। मैं स्तब्ध हो, असमान को ताकने के सिवा कुछ भी नहीं बोल पाया। लीले का काम तो हो ही गया था सो मैंने काम बंद किया… हाथ-मूहं धोए और शर्मा जी को हाथ जोड़कर नमस्ते किया और घर आकर भौतिक विज्ञान के पेपर की तैयारी में लग गया। खैर! मैं चार नम्बर कम से प्रथम श्रेणी में पास हो गया।
भैंस की पीठ पर बैठकर जोहड़ में नहाना भी क्या खूब था…
जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था, तब खाली समय में जंगल में भैंस चराने के काम में लगा दिया जाता था। और जंगल से लौटते समय हमारे घेर से सटी एक जोहड़ थी जिसमें बहुत पानी भरा होता था। मैं भैंसों निलहाने के मकसद से उस जोहड़ में उतार देता था और उनमें से एक की पीठ पर मैं बैठ जाता था। भैंस बड़े ही चाव से जोहड़ के पानी में तैरती थीं जैसे अपनी हरारत उतार रही हों। मुझे भी जोहड़ में नहाने का बड़ा ही अच्छा लगता था। हालाँकि जोहड़ का पानी मटमैला ही हुआ करता था। फिर भैंसों को घेर में बांधकर घेर में लगे हैंड पम्प के पानी में नहाकर घर आ जाया करता था। बताया जाता है कि अब तो वो जोहड़ लगभग बंद ही हो गई है। लोगों ने उस जोहड़ को मिट्टी से भरकर उस जगह पर मकान बना लिए हैं। अब क्योंकि मेरे भाई ने 80 के दशक में घर-घेर सब बेच दिए थे, सो गाँव का आना-जाना जैसे बंद ही हो गया था। लेकिन गांव से जुड़ी यादें मेरे जहन में सोते-जागते करवटें बदलती ही रहती हैं। जब कोई गाँव से कोई आता है तो बातचीत में ही रात गुजर जाती है। वो बात अलग है कि आजकल तो ये सिलसिला जैसे समाप्त ही हो गया है।
एक बात और याद आई कि जब मैं भैंसों को जंगल में चराने ले जाया करता था तो कई तरह की कुराफातें भी किया करता था। मुझे पकोड़े खाने का बड़ा शोक था। सो मैंनें लोहे की टिन का एक छोटा सी सिगड़ी बनाई और घर वालों से छुपाकर कुछ तेल और एक बड़ा सा कटोरा और आलू साथ ले जाया करता था। फिर आग जलाकर पकोड़े बनाने का उपक्रम किया करता था। पकोड़े तो बन नहीं पाते थे लेकिन समय इसी कुराफात में बीत जाया करता था। इस काम में एक दिन मेरे कमीज का कफ़ जल गया तो भाई से डांट खानी पड़ी। गाँव में साधारण सा एक दर्जी था। अब मुझे उसका नाम तो याद नहीं रहा। मैंने उससे अपनी जली हुई कमीज को ठीक कराया और भाई को जा दिखाई कि मैंने कमीज को ठीक करा लिया है। भाई ने तंज कसते हुए कहा कि ठीक है… ऐसे ही रोज जला लिया कर और ठीक करा लिया कर। मैं यह सुनकर स्तब्ध सा उनका मुंह देखता रहा और उस से पकोड़े बनाने जैसी शरारतें बंद करदीं।
कल जैसी ही है आज भी मानवीय प्रवृत्ति…
कहावत है कि अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को देय। क्या आपको इस प्रकार की प्रवृत्ति आज भी देखने को नहीं मिलती? यह प्रश्न शायद हर किसी को सकते में डाल सकता है। किंतु ऐसा नहीं है…दरअसल हमारी कोशिश यह रहती है कि बिना किसी का पक्ष लिए अपने को विवादों से अलग करलें। किंतु हमेशा कुछ लोग ऐसे रहे हैं तो हकीकत का बखान करने से कभी भी बचने का काम नहीं करते। उदाहरणार्थ सामाजिक और राजनीतिक अवस्था को देखें तो ‘अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को देय’ हरेक समय में देखने को यह कहावत सत्य को प्रमाणित करती दिखती है किंतु देखा गया है कि लोग सत्य से मूंह चुराने का काम करते हैं। अन्यथा यदि हम आज की राजनीतिक आचरण को देखें को सत्ता पक्ष ने हरेक संस्था/एजेंसियों/ शैक्षिणिक संस्थाओं/ न्यायलयों में अपने-अपने पक्ष के लोगों, चाहे वो गुन्डा तत्व हों अथवा झूठ बोलने की आदी, को ही तैनात किया जा रहा है। पूर्ववर्ती सरकारों की भी कमोवेश ऐसी ही प्रवृत्ति रही है। इस बात को नकारने की कोई कोशिश करता भी है तो यह नितांत अपने आचरण को छुपाने का प्रयास भर है।
यथोक्त के आलोक में मुझे अपने ही कालिज – स्वतंत्र भारत इंटर कालेज, बी. बी. नगर (बुलंदशहर) में घटित एक घटना याद आ रही है। हमारे कालिज में ‘आदर्श छात्र’ का पुरस्कार देने की प्रथा थी। उसके लिए किसी सर्वगुण सम्पन्न छात्र को चुना जाता था। कालेज में बहुत से सर्वगुण समपन्न छात्र थे जो इस पुरस्कार के योग्य थे। किंतु जब इस पुरस्कार हेतु विनोद (बदला हुआ नाम) को चुना गया तो जिसका नाम सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ क्योंकि वह छात्र हाड़मांस वाला, दंगाई, छात्रों में दादागिरी दिखाने वाला ही नहीं अपितु अक्सर अध्यापकों की नजर में भी एक फिसड्डी छात्र की छवि रखता था। उसकी एक मात्र योग्यता महज इतनी थी कि वह कालिज की संचालक समिति के अध्यक्ष का पुत्र था, और कुछ नहीं। जिस पर न केवल छात्र अपितु अध्यापक भी स्तब्ध थे। यह बात अलग है कि उस छात्र को पुरस्कार हेतु गठित समिति में सभी अध्यापक ही थे। यहाँ सवाल उठता है कि क्या आजकाल ऐसा नहीं हो रहा। आज तो और भी ज्यादा हो रहा है।
ऐसी ही एक और घटना याद आ रही है जिसके तहत कालिज में एक ऐसे अध्यापक को पुरस्कार दिए जाने का प्रावधान था जो अपना काम कुशलता और स्वच्छता पूर्ण करता है। यह पुरस्कार भी एक ऐसे अध्यापक को दिया गया जो न तो अध्यापन कार्य में ही निपुण थे और न ही छात्रों से संबंधित कागजी/किताबी कार्य को पूरा रखते थे। एक वरिष्ठ अध्यापक ने इस पुरस्कार हेतु चुने गए अध्यापक पर व्यंग्य भी कि जब किसी को कुछ करना ही नहीं होता तो उसका काम तो साफ-शुद्ध ही होगा। आजकल कालेज में क्या-क्या प्रावधान है, पता नहीं।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।