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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है – 10

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है – 10

देश में गरीबी का ग्राफ हमेशा से ही ऊपर रहा है। इस बात से  कोई विमुख नहीं  हो सकता और यह बात तब है, कि हमारी तमाम राजनीतिक शक्तियां  गरीबी को भगाने का वादा करते रहे हैं। आज भी 140 करोड की आबादी में से 80 करोड़ आबादी को पाँच  किलो आनाज पर जीवित रहना पड़ रहा है।

इस संदर्भ को यहाँ उल्लेख करने के पीछे एक घटना जुड़ी है। वह यह कि जब मेरा तुगलकाबाद वाला मकान बन रहा था तो मजदूरी करने वाले लोग बिहार के रहने वाले थे। वहीं रहते-सहते और कामकाज करते और आराम करते थे। एक दिन हुआ यूं कि मेरी जन्माष्टमी की छुट्टी पड़ गई। सो मैं उस दिन दोपहर के समय पर मकान का काम देखने चला गया। रास्ते में मजदूरों को बांटने के भाव से दो-तीन किलो सेब खरीद लिए। मकान पर पहुंचा तो मैंने सेब उनमें बांट दिया। वो सेब को बड़े ही अचरज से देख रहे थे तो मैंने उनसे पूछा.” बताओ… ये क्या है?” उनमें एक बूढ़ा मजदूर बोला,” बाबू! ये तो मेवा है….मेवा।“  उनकी इस बेबसी को देखकर मन ही मन बहुत दुखी हुआ और गहरा सा सांस लेने के बाद सामान्य स्थिति में आया।

आज जब मुझे अपने गुजरें हुऐ दिन याद आते हैं, कि जब मेरे संगी-साथियों ने ये कहना शुरू कर दिया कि अब तो तेरी जिंदगी का आधा मकसद पूरा हो गया है… सब बेहद ही खुश थे कि नौकरी के साथ-साथ मकान भी बन गया, दो पुत्र भी हो गए और परिवार भी पूरा हो गया और क्या चाहिए। किंतु हुआ क्या?  बता दूँ कि घर के मुख्य द्वार पर कोई दरवाजा नहीं था। जब लोग पानी भरके चले जाते तो मुख्य द्वार पर खाट खड़ी कर दी जाती थी। एक दिन हुआ यूं कि मेरे आफिस जाने के बाद आस-पड़ोस के लोग पानी तो भरकर ले गए किंतु मुख्य द्वार पर खाट खड़ी नहीं की।… पत्नी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया।  बामुश्किल तुगलकाबाद वाले नवनिर्मित  मकान में आए हुए लगभग 15/20 दिन ही हुए होंगे  कि  छोटे बेटे ‘विवेक’ का घर के दरवाजे पर ही ट्रक से एक्सीडेंट हो गया और उसकी मौके पर ही मौत हो गई।  उसकी उम्र दो साल कम ही थी। इस गलती का खामियाजा हमें इस रूप में मिला। उस समय बड़े बेटे मनोज की उम्र भी तीन वर्ष से कम ही थी।

इस घटना के पूर्व मैं भी सोचा करता था कि नौकरी के साथ-साथ मकान भी बन गया, दो पुत्र भी हो गए यानि कि परिवार भी पूरा हो गया। लेकिन इस घटना के बाद सारी खुशी  काफूर हो गई। उस दिन की याद में आज मुझे संतोष आनंद जी के एक बहुत ही चर्चित गीत की रह-रह कर याद आ रही है – “एक प्यार का नगमा है मौजों की रवानी है/ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है/ कुछ पाकर खोना है कुछ खोकर पाना है/ जीवन का मतलब तो आना और जाना है/दो पल के जीवन से इक उम्र चुरानी है/ ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है।“

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आम तौर  पर कहा जाता है, कि किसी का कोई काम बिगड़ता है तो फिर उसके भविष्य में एक के बाद एक काम बिगड़ता ही जाता है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। एक समय ऐसा भी आया कि जब  कलोनी में  दिल्ली नगर निगम द्वारा डिमोलिशन का अभियान चला दिया।डिमोलिशन की प्रक्रिया दिन-रात चलती थी। मैं हाउसिंग वैलफेयर सोसाइटी में सम्मिलित था। एक दिन अपने आफिस से निकला और सीधा लाजपत नगर (दिल्ली) डाकघर गया और तब के प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई और राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी को डिमोलिशन को रोकने को निवेदेन करते हुए दो ‘तार’ किए।

उस समय फैक्स जैसी कोई व्यवस्था नहीं हुआ करती थी। ऐसा करने के बाद जब मैं घर पहुचा तो देखा रात के समय होने वाले एसोसिएशन का काम रोक दिया गया था। इसके पीछे राष्ट्रपति से डिमोलिशनरोकने के नगर निगम को फोन आने की चर्चा जोरों पर थी। मेरी शरारतों से कालोनी वासी अच्छी तरह वाकिफ थे।

उस दिन मेरा घर देर से पहुँचना उनके दिलों में हलचल पैदा कर रहा था। खैर! मैंने तार भेजने की कहानी एसोसिएशन के सचिव को इस शर्त पर बताया कि अभी इसका खुलासा न किया जाए। अगले दिन मुझे सचिव ने बताया कि आज से घर से आफिस जल्दी और आफिस से देर से घर आना। सुना है कि पुलिस रोजाना कुछ लोगों के नाम ‘जिंदा वारंट’ जारी करती है…उनमें तुम्हारा भी नाम है। आख़िर पुलिस का डर किसे नहीं सताता…. सो मैं रोज घर से आफिस जल्दी और आफिस से घर देर से आना-जाना शुरू कर दिया।

जब मुझे पता चला कि कोलोनी के डिमोलेसन काम में लगे निगम के एक अधिकारी अपने ही वर्ग के थे। सो एक रात मैं उनके एक मित्र के पास गया और निवेदन किया कि निगम अधिकारी को कहें कि कम से कम मेरे मकान का ध्यान रखें। हुआ उल्टा…अगले दिन मेरी गली में केवल मेरा ही मकान तोड़ दिया गया।

आफिस से घर पहुँचा तो देखा कि मेरे पड़ोसी धरती पर पड़े लिंटर को टुकड़ा-टुकड़ा कर समेटने में लगे थे। संयोगवश उस दिन के बाद समूची  कोलोनी मे डिमोलिशन काम पूरी तरह से रोक दिया गया। अब मेरे पास न घर था और न पैसे। बहुत महीनों तक तिरपाल की झोंपड़ी में समय को चकमा दिया। तब तक कोलोनी वासियों को एसोसिएशन के माध्यम से  पता चल चुका था कि कोलोनी में डिमोलिशन रुकवाने में पीछे टी. पी. सिंह का हाथ था। इसी कारण से वे नगर निगम और पुलिस के निशाने पर थे। जिसकी कीमत उन्हें अपने घर केडिमोलिशन के रूप में चुकानी पड़ी।

जीवन में उतार-चढ़ाव ही जीवन को खास बनाते हैं। कई बार हमें लगता है कि सब कुछ ठीक है, लेकिन अचानक कुछ ऐसा होता है कि जो हमें पूरी तरह से बदल देता है। यही जीवन की सच्चाई है। बेटे विवेक की मृत्यु के पहले मैं सोचा करता था कि नौकरी के साथ-साथ मकान भी बन गया, दो पुत्र भी हो गए यानि कि परिवार  पूरा हो गया। लेकिन इस घटना के बाद सारी खुशी  काफूर हो गई। किंतु इस घटना के बाद मेरे आस-पड़ौस और रिश्तेदारों मेरे नए घर को अपसकुनों से जोड़ दिया और मेरे घर आना-जाना तक भी छोड़ दिया। सबसे बड़ी बात ये भी थी कि पत्नी ने भी मकान को बेचने का मन बना रखा था।

बता दूं कि मेरे बॉस को मेरे हालात के विषय में सब कुछ पता ही थे। सो एक दिन मेरे बॉस यानि कि शाखा प्रबंधक ने एक दिन मुझे अपने केबिन में बुलाया और बड़े ही गंभीर अवस्था में पूछा कि तुम मुझे व्यक्तिगत रूप से किस रिश्ते में मानते हैं। मेरे मुंह से अनायास ही निकला.” उम्र के हिसाब से तो मैं आपको ‘पिता’ की संज्ञा ही दूंगा।“ इतना सुनकर मुझसे कहा तो फिर तू अपने तुगलकाबाद विस्तार वाले मकान को बेच दे। मैं तेरे लिए बैंक के स्तर पर रिहायस की व्यवस्था करा दूंगा… बी. टी. पी. पी. बदरपुर कंपाउंड में।

उन्होंने इस बात के समर्थन में आगे बताया कि  बी. टी. पी. पी. ने  बैंक के शाखा प्रबंधक के लिए मकान देने का प्रावधान किया हुआ है।“ मैं उनसे “ना या हाँ” बिना  कुछ कहे ही बाहर आ गया और अपनी सीट पर आकर कुछ हारा-थका सा बैठ गया। मेरे दिमाग में न जाने किस-किस प्रकार के विचार आ-जा रहे थे। आखिर मैंने मकान को बेचने का निर्णय ले लिया।  कहना अतिश्योक्ति नहीं कि वक्त ने एक पल में ऐसी करवट बदली कि मेरा सपनों का पर्वत भरभरा कर ऊंचाइयों से फर्श पर आ गिरा।

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कहा जाता है कि जब किसी के दिन बुरे आते हैं तो अक्सर आस-पड़ोसी तो क्या अपने कहे जाने वाले लोग भी मुँह मोड़ लेते हैं। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। खैर! मकान बेचने के लिए अपने नजदीकी कुछ लोगों को सूचना दे दी। मकान अच्छे मकाम पर था सो मकान खरीदने के लिए ग्राहक भी आने लगे। एक दिन ऐसा हुआ कि मकान को 15000/- रुपए में बेचने का सौदा हो गया। किंतु खरीददार ने मौके पर कोई बयाना राशि न देकर उसी दिन शाम को देने की बात कही। कोई बात नहीं, सौदा होने के बाद मैं विचारों की गंगा में डुबकियां लगाते हुए मैं आफिस पहुँच गया। किंतु मेरे मन में हिचकोले खाते हुए विचार शायद मेरे चेहरे पर उतर आए थे।

अपने बॉस का सहायक होने के नाते मेरी सीट शाखा प्रबंधक के केबिन के दरवाजे के साथ ही लगी  हुई थी। साथ ही शाखा में होने वाले खास-खास कामों के निष्पादित करने का दायित्व भी मेरे ही पास था, जिनमें से सेवा-निवृत्त सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन संबंधी कार्य भी मेरे ही पास था। फलत: कोई न कोई पेंशनर रोज मेरे पास आता ही रहता था। उनमें से कुछ स्थानीय निवासी कभी-कभी बिना काम के भी मेरे पास आकर बैठ जाते थे।

ठीक उसी दिन लगभग सुबह ग्यारह बजे लगभग 70/75 उम्र के एक बुजुर्ग मेरे पास आए। मैंने उनसे बैठने का आग्रह किया…वो बैठ गए और मेरे उतरे हुए चेहरे की ओर टकटकी लगाए काफी देर तक देखते रहे। …कुछ देर ठहर कर चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया, “क्या बात है आज कुछ उदास लग रहे हो?” क्योंकि वह बुजुर्ग एक सुधी पेंशनर होने के साथ-साथ मेरे साथ विशेष स्नेह रखते थे। सो मैंने मकान बिकने वाली सारी कहानी उन्हें सुना दी। ज्यों ही उन्होंने सारी बात सुनी…. वो तपाक से बोले कि आज की तारीख में तो तुम्हारे मकान का कोई भी सौदा फाइनल नहीं होने वाला, ये मान लो। उन्होंने आगे पूछा कि मकान को बेचने मिली राशि का क्या करोगे।“

मैंने कहा कि मकान ही खरीदूंगा। इतना सुनकर वो पुन: बोले,” लेकिन मकान का सुख भोगना तो तुम्हारे हिस्से में आता नहीं लग रहा क्योंकि तुम्हारा बिस्तर तो कई वर्षों तक बंधा ही रहेगा… तब क्या करोगे। चलो! जो भी करो, सोच-समझ कर ही करना।“ इतना कहकर वो तो चले गए लेकिन मुझे विचारों की एक नई नदी में धकेल गए।  मैं आफिस के बाद भिन्न-भिन्न विचारों की पोटली सिर पर लाद कर जैसे ही घर आया और बयाना मिलने की उम्मीद में घर के आगे इधर से उधर, उधर से इधर घूम रहा था कि  मकान के खरीदार ने बड़े ही विनम्रता से मकान खरीदने से ही मना कर दिया। और इस तरह उस पेंशनर की एक बात तो सच हो गई।

सब कुछ भुलाने की कोशिश करते हुए अगले दिन मैं आफिस चला गया। रोजाना के रुटीन कामों में लग गया। लंच के बाद जैसे ही मैं अपनी सीट पर आया तो शाखा प्रबंधक महोदय ने चेहेरे पर मुस्कान लिए मुझे अपने केबिन में बुलाया और बैठ जाने को कहा। मैं बैठ गया तो उन्होंने प्यार जताते हुए कहा.” मुबारक हो …तुम्हारा चयन केंदीय कार्यालय (मुम्बई) के लेखा-परीक्षण विभाग द्वारा ‘सहायक लेखा परीक्षण’ पद (मोबाइल) हेतु किया गया है। एक महीने के अंदर अपने रुके हुए कामों को आराम से निपटालो। फिर अगले महीने यानी मई में  आपको  लेखा परीक्षण कार्यालय लखनऊ के लिए रिलीव कर दूँगा। यह 1980 की बात है। इस सूचना को पाकर मुझे फिर अचानक उस बुजुर्ग पेंशनर की याद आ गई जिसने कहा था कि तेरा बिस्तर तो बंधा ही रहेगा। अजीब इत्तफाक था। क्या सोच रहा था, हो क्या गया।    

इस प्रकार  तमाम दवाबों के चलते जल्दी-जल्दी में मुझे ये प्लाट बेचना ही पड़ा। इस प्रकार मैं फिर से सड़क  पर आ गया। और उस मकान को बेचकर,  मैंनें तुगलकाबाद एक्स्टैंशन में ही अस्सी गज का एक दूसरा प्लाट खरीद कर डाल दिया और मै फिर किराए के मकान में रहने लगा।  इस बीच मैंने पत्नी व बच्चों  के रहने का इंतजाम उसके मायके में कर दिया और तदोपरांत मई 1980 में बदरपुर से लेखा परीक्षण आफिस, लखनऊ (उ.प्र.) के लिए रिलीव कर दिया गया।

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