गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है – 13

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है – 13

एकतरफा प्यार का मतलब ….

  • एकतरफा प्यार का मतलब क्या होता है? एकतरफा प्यार या एकतरफा प्यार वह प्यार है जिसका खुले तौर पर प्रतिदान नहीं किया जाता या जिसे प्रेमी द्वारा इस तरह से नहीं समझा जाता। प्रेमी को प्रशंसक के गहरे स्नेह का पता नहीं हो सकता है, या वह जानबूझकर इसे अस्वीकार कर सकता है, यह जानते हुए कि प्रशंसक उनकी प्रशंसा करता है। यानी एकतरफा प्यार वह प्यार है जिसका खुले तौर पर प्रतिदान नहीं किया जाता या जिसे प्रेमी द्वारा इस तरह से नहीं समझा जाता। प्रेमी को प्रशंसक के गहरे स्नेह का पता नहीं हो सकता है , या वह जानबूझकर इसे अस्वीकार कर सकता है, यह जानते हुए कि प्रशंसक उनकी प्रशंसा करता है।
  • जब आप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो दूसरे व्यक्ति तक पहुंचने और उससे जुड़ने, उनसे चीजों के बारे में बातचीत करने या उनके जीवन के बारे में पूछताछ करने के लिए समय निकाल रहे हैं, तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि यह प्यार एकतरफा है।  किंतु मनोवैज्ञानिकों की राय में एकतरफा प्यार के पीछे महज आकर्षण ही एकमात्र कारण है। कोई भी चीज अगर हमारी कल्पना से मिलती-जुलती है, तो हम उसे पाने की कोशिश में लग जाते हैं। ऐसे में इसे प्यार का नाम तो नहीं दिया जा सकता। क्योंकि इस आकर्षण के चक्कर में वशीभूत होकर तकलीफ के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता।  इसे यूँ भी कह सकते है कि एकतरफा प्यार में दर्द  का अंश होता है। एकतरफा प्रेम महज एक ऐसा परिदृश्य है जिसमें एकतरफ़ा प्यार हो सकता है, चाहे यह कैसे भी हो। संयोगवश  एकतरफ़ा प्यार का दर्द हमेशा के लिए नहीं रहता है। हाँ ! उसकी याद बने रहना एक मानवीय सत्य है।रोमांटिक अस्वीकृति की गहरी पीड़ा बहुत वास्तविक होती है लेकिन यह भी सत्य है कि जब कोई एक दूसरे से अलग होता है तो एक समय ऐसा भी आता है कि सब कुछ ऐसे महसूस होता है कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। एक बार ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ था।
  • वर्ष 1981 में मेरे नियोक्ता भारतीय स्टेट बैंक ने मुझे केन्द्रीय कार्यालय के आडिट विभाग में तैनात कर दिया। यह एक यायावरी (मोबाइल) यानी कि भारतीय स्टेट बैंक  की ही एक शाखा से दूसरी शाखा में जाना….आडिट/ निरीक्षण करना मेरे कार्य का हिस्सा था। मैं और मेरा बोस …. हम दो ही लोग हुआ करते थे। यहाँ यह उल्लेख करदूँ कि मेरे बोस जाति से शर्मा थे…..पूरा नाम था पी. डी. शर्मा ……पर थे कमाल के मिलनसार और निष्पक्ष स्वभाव के धनी। जाति-भाव तो उनके शब्दकोष में था ही नहीं। हम साथ-साथ रहते…साथ-साथ खाते….साथ-साथ नहाते-धोते……उन्हें अक्सर नदी/ नाले में बिना साबुन के केवल मिट्टी शरीर पर रगड़कर नहाना बहुत भाता था। …मेरे लिए नई बात थी…किंतु उनके साथ रहकर मुझे भी इसकी आदत पड़ गई। जहाँ कहीं जाते…. पहले वहाँ के स्टाफ से यही मालूम करते कि हमारे निवास के आस-पास कोई नदी-नाला है कि नहीं।  … नदी-नाला अक्सर मिल ही जाया करता था। सो वो मेरे शरीर पर मिट्टी मलते और मैं उनके शरीर पर….। खैर! प्रेम-प्रसंग की दूसरी घटना सुनाने से पहले यह बताना मैंने जरूरी इसलिए समझा क्योंकि उस घटना का इस दौर से सीधा  संबंध है। एक बात और कि लेखक मिजाज का होने के कारण मैंने अक्सर अपनी जीवन को किसी न किसी शैली में अभिव्यक्त करता रहा हूँ…..मैंने अपनी नजर में छुपाया कुछ भी नहीं है…..कहीं ग़ज़ल में, कहीं कविता में, कहीं कहानी के रूप में…कुछ निबंधों में भी में मैंने अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त है।… हाँ!…. समय के साथ-साथ जो कुछ भी लिखा, उसे पीछे छोड़ते हुए …निरंतर लिखना जारी रखना एक जरूरी उपक्रम बना ही रहा।  उस घटना जो मेरे शिक्षा-काल की है, को कविता के रूप में वर्ष 2000 में  किया था।
  • यह घटना उस समय की है जब हमें स्टेट बैंक की फैजाबाद  शाखा के प्रबंधन ने जिसका हमें निरीक्षण करना था, एक निजी स्कूल के प्रांगण में रहने के लिए मुझे और मेरे बास को दो कमरे मुहैया करा दिए थे…. यहाँ हुआ यूं कि स्कूल में कार्यरत एक अध्यापिका के हृदय में मेरे प्रति एकतरफा आकर्षण पैदा हो गया जिसका आभास मुझे बहुत दिनों तक नहीं हुआ । यह घटना जो वर्ष 1981 की है, को वर्ष 1997 में  मैंने निरी आदमी” शीर्षक से एक कहानी के रूप में लिखा…इस कहानी के बारे में खास बात ये है ये आप-बीती कहानी मैंने संसद मार्ग कार्यालय में लंच के बाद एक ही बैठक में लिख डाली थी। …. उस समय मेरे कार्यालय के एक साथी मि. चावला हुआ करते थे जिन्हें पढ़ने का बहुत शौक था…… मैं पेज दर पेज लिखता गया और वो पढ़ते गए……. जब हाथ रुका तो उन्होंने हैरत भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा और …तपाक से बोले…यार इसे बिना टाइप कराए ही किसी पत्रिका में छपने भेज दो…देर नहीं करनी है….अभी भेज…. फोटोकापी अपने पास जरूर रखले…किंतु इसे आज ही चलता करदो। पहले तो मुझे लगा कि ये मेरी खिचाई कर रहा है…फिर मैंने खुद इस कहानी को पढ़ा और उसी दिन माननीय मणिका मोहिनी जी द्वारा संपादित ख्यात पत्रिका “वैचारिकी संकलन” में प्रकाशनार्थ प्रेषित कर दी। और उन्होंने इसे एक रेखांकन के साथ छाप भी दिया। जाहिर है कि मेरा मन भी गदगद हुआ किंतु इस कहानी के प्रकाशन का श्रेय मेरे उस साथी चावला को ही जाता है जिसने इसे पढ़ा ही नहीं अपितु प्रकाशनार्थ भेजने का परामर्श भी दिया था। यह भी बतादू कि  दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर मणिका मोहिनी दिल्ली, द्वारा प्रकाशित  “वैचारिकी संकलन” नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके बाद ये कहानी बहुत जगह प्रकाशित हुई……. संदर्भ हेतु इतना बता दूँ कि 1981 में हम उत्तर-प्रदेश के फैजाबाद थे जहाँ हिन्दू और मुस्लिम एक बहुत बड़ी आबादी बड़े ही सौहार्द पूर्ण जीवन यापन करते थे… लेकिन 1992 को घटी बाबरी मस्जिद की घटना ने भी इसे बदनाम कर दिया। 
  • उस पूरी कहानी को जानने के लिए आपको कहानी के जरिए हालात को जानना होगा…. उसके मूल रूप को ही मैं यहाँ दे रहा हूँ……बाकी खुलासा कहानी खुद करने का सामर्थ्य रखती है, ऐसा मुझे विश्वास है। कहानी का शीर्षक “निरा आदमी” सरल भी है और आदमी होने का प्रमाण भी। हाल ही (दिसंबर 2024) में इस कहानी को विश्वव्यापि वेब पोर्टल “कविशाला”  ने “चाय-नाश्ता और मैं” शीर्षक से प्रकाशित किया और इस कहानी को अपने दायरे की कहानियों में प्रथम स्थान देकर मेरे साहित्यिक मनोबल को बढ़ावा दिया है।

निरा आदमी

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