गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-2
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की दूसरी किश्त है
मैंने थोड़े ही कहा था, ‘मेरा टिकट भी ले लेना’
1969 की बात है कि बुलन्दशहर रोजगार कार्यालय के माध्यम से सरस्वती कॉटन मिल, अबोहर (पंजाब) में बंडल चेकर की नौकरी के लिए अबोहर गया। मेरे साथ एक लड़का और था। हम दोनों दिल्ली से साथ-साथ अबोहर गए थे। कंपनी की तरफ से है हमें वहां रहने के लिए अलग-अलग कमरे दिए गए लेकिन कंपनी में हमें बंडल चेकर की नौकरी न देकर साधारण बुनकर की नौकरी दी जबकि रोजगार कार्यालय बुलंद्शहर ने हमें बंडल चेकर की नौकरी के लिए भेजा गया था। मेरे हाथों में छाले पड़ गए। बाद में हमने हम हमने दिल्ली वापस आने का फैसला लिया। हमने दिल्ली से अबोहर जाने के लिए रेल गाड़ी पकड़ी। मैंने अपने साथ की साथी शेरा से मेरा टिकट लेने के लिए भी कहा लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने उससे कहा कि वह मैंने भी तो दिल्ली से अबोहर का तेरा किराया भी तो दिया था।… कम से कम से कम वही पैसे मुझे लौटा दो लेकिन वह नहीं माना। कहा कि मैंने तेरे से थोड़े कहा था कि मेरा टिकट भी ले लेना, तूने अपने आप ही तो लिया था। हमारे पास में गाड़ी में बैठे दो-तीन सरदार हमारी बातें सुन रहे थे उनमें से एक सरदार ने मेरे साथी को पकड़कर उसे मेरे पैसे लौटाने के लिए कहा। वह फिर भी पैसे देने के लिए तैया नहीं हुआ तो फिर उन तीनों सरदारों ने उस पर दबाव बनाया और तब और तब उसने मेरे पैसे मुझे लौटाए। अब सरदारों ने मुझे ट्रेन से उतारा और कहा कि अब आप जाओ। मेरे साथी को उन्होंने वहां पकड़ कर रखा। इस प्रकार मैं दिल्ली से बुलंदशहर तक आया। बुलंदशहर आते आते मेरी जेब में कुछ नहीं था फिर मैं पैदल ही अपने बहन की ससुराल पैदल ही गया। मैं इस वाकये को अभी तक भी नहीं भूला हूं।
इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से इस पेड़
स्कूल के रास्ते में आम और अमरूद के बाग पड़ा करते थे। आम के मौसम में तेज हवा और आंधी चलने पर कच्चे-पक्के आम अक्सर पेड़ से टूटकर जमीन गिर जाते हैं। चोरी-छुपे हम बाग में घुस जाते और जमीन पर पड़े कच्चे-पक्के आम उठाकर भाग जाते थे। अमरूदों के मौसम में अमरूदों के बाग में सबका एक साथ घुसना और इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से इस पेड़ की डालियों को झुकाकर कच्चे-पक्के अमरूद तोड़कर झट से बाहर सड़क पर आ जाना, हमारा दैनिक उपक्रम हुआ करता था। कुछ अमरूद खाना, कुछ को चखकर फेंक देना, हमारे लिए खेल जैसा हुआ करता था। कई बार पकड़े भी जाते थे। पिटाई तो होती नहीं थी क्योंकि सभी बागवाले जान-पहचान वाले होते थे। ज्यादा से ज्यादा वे हमारे घर पर हमारी शिकायत कर देते थे। सो घर पर डांट तो जरूर पड़ती थी लेकिन डांट का असर थोड़ी-बहुत देर ही रहता था। अब मैं कुछ बड़ा हो गया था तो शरारत भी बढ़ती चली गईं।
ऐसी शरारत फिर किसी के साथ भी की तो पिटेगा बहुत
बीरवार के दिन पास के कस्बे सठले में बीर बाजार (पैंठ) लगा करती था । मैं भी बाजार जा रहा थी कि रास्ते में बाजार जाते हुए भाई मनीराम मिल गए । उनसे राम-राम की और पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं, भाभी सुमरती तो एक आदमी के साथ खेतों की ओर जा रही थी।….. मनीराम जी का इतना सुनना था कि उलटे पावँ खेतों की ओर दौड़ लिए… देखा कि वहाँ तो कोई भी नहीं था। अब वो समझ गए कि ये शरारत तेजपाल की ही है। अब वो दोनों पति पत्नी मेरी तलाश में गाँव-भर को नाप गए। जब मैं उन्हें नहीं मिला तो वो हमारे घर आ गए। वहाँ तो मुझे मिलना ही था।…..हंसते हुए दोनों मेरे पास आए और गुस्से और प्यार से मेरे कंधों पर हलके के धौल जमाई और बोले बदमाश ! आगे से कोई ऐसी शरारत किसी के साथ भी की तो पिटेगा बहुत्। इतना कहकर दोनों हंसते हुए अपने घर चले गए। और मैंने भी अंदर-अंदर ही शर्म महसूस और कभी ऐसी शरारत न करने की ठान ली।
अब क्या सोच रहा है- ये ले साईकिल की चाबी
उल्लेखनीय है कि बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दिल्ली आने पर बेयरड रोड, गोल मार्केट, नई दिल्ली स्थित “ओनिल्को कैमिस्ट” के यहाँ काम करने के लिए मुझे एक साईकिल की जरूरत थी। किंतु मेरे पास न तो साईकिल थी और न ही साईकिल खरीदने के लिए पैसे। संयोगवश थोड़ी देर बाद ही रामभज जी के एक मित्र – हकीकत राय टेंक रोड (करोल बाग) स्थित घर पर आ गए। चाय पानी हुई…फिर वो दोनों अपनी बातों में लग गए। मैं बैठा-बैठा उनकी बातें सुनता रहा। अचानक हकीकत राय रामभज जी से मेरे बारे में जानकारी लेने लगे। जब सारी जानकारी हकीकत राय जी को दे दी गई तो रामभज जी के मुंह से अचानक निकल पड़ा कि अब इसे एक साईकिल की जरूरत है। हकीकत राय जी बिना किसी सोचविचार के बोले ये भी कोई बड़ी बात है। मैं आज साईकिल पर ही आया हूँ… कल ही खरीदी है। अब इसकी हो गई। हकीकत राय जी बोले…ले साईकिल की जरूरत तो पूरी हो गई…और बता। मैं साईकिल के कीमत पूछने लगा। तो हकीकत राय जी ने पैसे न लेने की बात आगे करदी। किंतु मैंने कहा कि सर मुफ्त में तो मैं साईकिल नहीं लूंगा…कीमत बतादें … मैं दस रुपये महीने की किस्तों में अदा कर दूंगा।… हकीकत जी और रामभज जी एक दूसरे की ओर देखने लगे। आँखों-आँखों में ही कुछ बात हुई और हकीकत राय जी बोले…ठीक है पैसे देने ही हैं तो एक हजार रुपये 10 रुपये महीने की किस्तों में देते रहना। इतना सुनकर मैं सकते में आ गया कि नई रोबिन हुड साईकिल कीमत केवल 1000/- रुपये.. हकीकत राय जी बोल उठे मैं समझ रहा हूँ कि अब तू क्या सोच रहा है। अब कुछ भी सोचना बंद कर और ये ले साईकिल की चाबी।
तुम्हारे मन में मेरे प्रति जो भी भावना बनी हुई है उसे निकाल दो
लगभग 1987-88 की बात होगी। मैं अपने नियोक्ता भारतीय स्टेट बैंक के संसद मार्ग पर स्थित “दिल्ली आँचलिक कार्यालय, में स्टाफ के विभिन्न भुगतान करने वाली सीट पर कार्यरत था। उल्लेखनीय है कि मैं लगभग 13 वर्ष निरन्तर ऑफिस एडमिनिस्ट्रेशन अनुभाग में रहा था। यह भी कि उन दिनों LFC के बिलों पर एक नियत राशी से ऊपर की राशि पर आयकर काटने का सरकारी आदेश था। सयोगवश हमारे सहायक महा प्रबंधक श्री बत्रा जी का L.F.C. का एक बिल मेरे पास भुगतान हेतु आया। इस प्रावधान के तहत मैंने बत्रा जी के बिल की राशि में से आयकर काटकर उन्हें बता भी दिया था। बत्रा जी ने मुझसे तो कुछ नही कहा किन्तु बत्रा जी ने मेरे अनुभागाध्यक्ष श्री पी.के. पाठक से कहा कि टी पी से कहो कि मेरे LFC के बिल से आयकर न काटे। मेरे इंचार्ज ने मुझसे इस बाबत बात की। किन्तु मैंने अपने स्तर से ऐसा न करने को अपने अनुभागाध्यक्ष से यह कह दिया कि सर बिल तो आपने ही पास करना है मैं बिल की देय राशि की गणना करके आपके पास भेज देता हूँ, आप बिल को पास करते समय आयकर के रूप में काटी गई राशि को अपने स्तर से न काटकर बिल का भुगतान कर देना किन्तु अपने स्तर पर मैं ऐसा नहीं कर पाऊँगा। ….मेरे अनुभागाध्यक्ष ने धीरे से मुझसे कहा– यार समझा कर बत्रा जी एक तेज-तर्रार AGM हैं.. कर दे न। कुछ देर बाद ही मैंने बत्रा जी के बिल से आयकर काटकर अपने अनुभागाध्यक्ष के पास भुगतान हेतु पास करने के लिए भेज दिया। उन्होंने मुझे बुलाया और बोले, यार मैने बिल को तो ज्यों का त्यों पास कर दिया है। पर ये AGM बहुत खतरनाक है, मौका मिलते ही डंक मार देगा।….उनकी बातें सुनकर मैं तनावग्रस्त अपनी सीट पर आकर बैठ गया। इस घटना के बाद मेरी और बत्रा साहब के अनेक बार दुआ-सलाम हुई किंतु उन्होंने हमेशा मेरी नमस्ते का हँसकर ही जवाब दिया।
बिल वाली घटना को गुजारे हुए कई महीने हो गए। बिल की बात भी आई-गई हो गई। एक दिन बत्रा जी ने मुझे अपने केबिन में बुलाया किंतु यह खबर पाकर मेरे मन में कुछ कुछ डर का माहौल पैदा होने लगा क्योंकि उनका कोई भी काम मेरी डेस्क पर बाकी नहीं था। खैर! मैं बत्रा जी के केबिन में पहुंच गया। बत्रा जी खड़े हुए थे। मुझे पहुंचते ही मुस्कराते हुए बोले – बैठो! किंतु मैं नहीं बैठा । मैंने कहा, सर आप खड़े हैं तो मैं कैसे बैठ जाऊं। तब वह कुर्सी पर बैठ गए। मुझसे कहा अब तो बैठ जाओ। अब मैं बैठ गया लेकिन मन में अभी भी कुछ-कुछ डर भरा हुआ था। बत्रा जी अपनी कुर्सी से उठे और अपनी अलमारी खोली… उसमें से एक बहुत अच्छा पैन-सेट निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने उसे ले लिया फिर वह बोले अब मेरा ट्रांसफर हैड ऑफिस हो गया है। कभी कोई काम पड़े तो बताने से मत झिझकना । उनके साथ काम करने वाले लोग बत्रा जी को फायरिंग मैन के रूप में जानते थे।एक दिन अचानक बोले कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई बात नहीं है। और जो तुम्हारे मन में मेरे प्रति भावना बनी हुई है उसे निकाल दो। मेरे दिमाग में आपकी छवि एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी के रूप मे उसी दिन बन गई थी जब आपने बिना किसी झिझक मेरी बात को सीधे नकार दिया था अन्यथा बहुत से लोग तो मेरा नाम सुनते ही…।
मेरे आफिस में मुझे कई निक नामों से पुकारा जाता था
यहां यह भी उल्लेख करना विषय से बाहर न होगा कि मैंने बैंक में कार्य करते हुए जिस कार्य कुशलता का परिचय दिया, उसके बल व बैंक प्रबंधन और अधिकारी संघठन के सहयोग के चलते अपने 35 वर्ष के सेवा काल में से लगभग 23 वर्ष स्थानीय प्रधान कार्यालाय / दिल्ली आँचलिक कार्यालय, नई दिल्ली में ही कार्य रत रहा। मुझे बैंक में कई निक नामों से जाना जाता था…. यहाँ काम करते हुए मुझे कोई तो चलता फिरता ट्रेनिंग सेंटर कहता तो कोई विदुर या फिर कवि कहता।
देखते हैं – आप इस सीट पर कब तक रहते हैं
मैंने मई 1980 से 1982 मी तक केंद्रीय कार्यालय के लेखा परिक्षा में निरीक्षक सहायक के रूप में कार्य किया था। 1982 में ही मेरा प्रोमोशन हो गया और राजस्थान की सीकर शाखा में नियुक्त कर दिया गया। सीकर से 1985 में दिल्ली वापिस आया तो मुझे दिल्ली आँचलिक कार्यालय के ऑफिस मैनेजर अनुभाग में नियुक्त किया गया। मुझे स्टाफ व सामान्य विलों के भुगतान वाली सीट इस शर्त पर नियुक्त किया गया कि इस सीट पर आज तक छ: माह से ज्यादा कोई नहीं टिका है देखते हैं कि आप इस सीट पर कब तक रहते हैं। खैर मैंने सीट का चार्ज ले लिया। देखा तो लगभग 6/7 महीने के बिलों का भुगतान लम्बित पडा था। पहले तो थोड़ा मनोबल गिरा लेकिन मैंने धैर्य पूर्वक काम किया और पेंडिंग काम को लगभाग एक माह की अविधि में ही क्लियर कर दिया। इसके बाद मेरे ऑफिस मैंनेजर कार्य कुशलता और कार्य करने की क्षमता को देखकर आश्चर्य चकित हुए और मेरी पीठ भी थपथपाई। इस कारण से इस सीट पर साढ़े नौ वर्ष तक काम किया। केंद्रीय कार्यालय लेखा परीक्षा (मोबाईल) में काम करने का बहुत अधिक लाभ मिला।
जब मुझे प्रथम बार इंटरव्यू बोर्ड में शामिल किया गया
ऐसे मिटीं आपस की दूरियां
शायद आठवीं क्लास की बात होगी, मेरे एक स्कूली मित्र और मैं दोनों अक्सर ही साथ- साथ स्कूल जाते थे और साथ-साथ स्कूल से घर आ आते थे। एक बार मुझमें और उस में किसी बात को लेकर तू-तू मैं-मैं हो गई। बात तू-तू मैं-मैं तक ही रहती तो ठीक होता किंतु बात मार-पीट में बदल गई। गर्मियों के दिन थे सो दोनों पसीना-पसीना हो गए। मेरा मित्र मुझसे एक क्लास पीछे था यानी मुझसे छोटा था। खैर! मार-पीट समाप्त होने पर दोनों अपने-अपने घर चले गए। घर जाने पर मुझे महसूस हुआ कि आज जो कुछ भी हुआ ठीक नहीं हुआ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने बस्ता रखा और मनमुटाव मिटाने के भाव से अपने मित्र के घर जा पहुंचा। ऊसके घर का दरवाजा अंद्र से बंद था। मैंने दरवाजा बजाया किंतु उसने दरवाजा नहीं खोला। मैंने फिर उसे आवाज लगाई और दरवाजा खोलने के लिए कहा लेकिन फिर भी उसने दरवाजा दरवाजा नहीं खोला।
उसका मुझसे नाराज होना स्वाभाविक ही था। आखिर मैंने रोते हुए उससे कहा कि जब तक तू दरवाजा नहीं खोलेगा मैं भी घर नहीं जाऊंगा। आखिरकार उसने दरवाजा खोल दिया और हम दोनों एक दूसरे से मिले तो सही किंतु दोनों जड़वत। आखिर मेरी आँख भर आईं फिर क्या था संतराम और मैं रोते-रोते एक हो गए। बाद में मैं अपने घर वापिस आ गया। इस तरह हमारे बीच की दूरी मिट गई और फिर वही पुराना सिलसिला चालू हो गया। यहाँ तक की हमारी दोस्ती और गहरी हो गई। उल्लेखनीय है कि मेरा मित्र पढ़ने में इतना होशयार था कि उसने आर्ट साइड में होते हुए दसवीं और बारहवीं में प्रथम श्रेणी प्राप्त की। फलत: योग्यता के आधार पर उसकी नौकरी भारतीय डाक सेवा में लगने पर सीधा मेरे पास ही दिल्ली आया। हालाँकि जब मैं दिल्ली परिवहन अंडरटेकिंग में अस्थाई संवाहक की नौकरी कर रहा था किंतु मेरे मित्र की नौकरी लगने की बात सुनकर मैं इतना खुश हुआ कि जीजा जी से चिल्लाकर कह उठा कि जीजा जी इसकी नौकरी लग गईं। इतना सुन जीजा ने मुझसे कहा कि मुझे पता है… पहले तू घर आया कि तू …..। हम दिल्ली में भी कुछ महीनों साथ-साथ भी रहे।
अब तो रिजल्ट देखना ही बाकी है
जब मैं बारहवीं कक्षा में था तो गांव का एक ओर जना 12वीं कक्षा में ही था। उससे काफी नजदीकियां भी थी। उसने मुझसे कहा के कुछ किताबें आप खरीद लो और कुछ किताबें मैं खरीद लूंगा, इस प्रकार हम एक सेट से ही पढ़ाई कर लेंगे। मैंने तो निर्धारित किताबें खरीद लीं और पढ़ने के लिए दूसरे लड़के को दे दीं । जब उसने मेरे सेट को पढ़कर वापिस किया तो मैंने उससे उसके द्वारा खरीदी गईं किताबें पढ़ने के लिए मांगी तो उसने कहा कि मैं तो किताबें पैसे न होने के कारण खरीद ही नहीं सका। इस प्रकार मैं कुछ किताबें जो नोटबुक के रूप में थी, नहीं पढ़ सका। हां! पाठ्य पुस्तक मैंने जरूर पढ़ीं थी। अब बारहवीं की फाइनल परीक्षा पास आ गई लेकिन उस लडके ने मेरी किताबें तो पढ़ ली और मुझे उसने अपनी किताबें पढ़ने के लिए नहीं दीं। उल्लेखनीय है उसको उसकी शादी में मेज कुर्सी साइकिल व घड़ी आदि उपहार स्वरूप मिले थी। जाहिए है कि वह अपनी पढ़ाई कुर्सी-मेज पर ही करता था; संयोगवश फाइनल परीक्षा का आखरी पेपर देने के बाद हम घर वापस आ रहे थे तो मैं सीधे उसके के घर ही चला गया। उसके घर जाकर देखा कि उसने मेज पर बोरी डाल रखी थी मैंने उसे एक हाथ से खीच कर हटा दिया तो पाया कि उस बोरी के नीचे उसने वो किताबें छिपा रखीं थीं। यानी कि उसने को किताबें जो खरीदने के लिए उसके हिस्से में थीं वो किताबें उसने खरीद ली थी लेकिन मुझ से मना कर दिया था कि मैंने किताबे खरीदी ही नहीं।
मेज पर बोरी के नीच छुपाई गई उन किताबों को देखकर अवाक रह गया। जब मैंने उससे से इस बाबत बात की तो मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया था लेकिन मैं मन मसोसकर रह गया चल गया उसका सिर शर्म से कुछ देर के लिए झुक जरूर गया था किंतु उसे इस हरकत का मलाल कतई नहीं था। पेपर तो हो ही चुके थे, मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उससे से कहा कि अब तो पेपर हो गए हैं। अब तो रिजल्ट देखना ही बाकी है। देखते हैं क्या होना है। रिजल्ट आने तक हम दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिले रिजल्ट आया तो वह बारहवीं कक्षा में फेल हो गया और मैं 12वीं में पास हो गया। (मैं उस छात्र का नाम जानकर नहीं दे रहा हूँ क्योंकि किसी को नीचा दिखाना मेरा मकसद नहीं अपितु मानव को घात-प्रतिघात से सावधान करना ही मेरा मकसद है।)
वह मेरे लिए वह दिन मेरे लिए बहुत बड़ी सीख का दिन था मुझे शिक्षा मिली कि जहां विश्वास होता है अविश्वास भी वही होता है। घात-प्रतिघात के माने मैं पूरी तरह समझ गया था और भविष्य में अक्सर सदैव सजग रहने का प्रयास किया। किन्तु यदि किसी के मन की शान्ति को कोई बलात भंग करता है तो पीड़ित इस प्रकार की दुर्दांत पीड़ा को जीवनपर्यंत याद कर-करके, यदा-कदा ही सही, दुखी हो उठता है क्योंकि उसे मन की शांति छीने जाने का कारण मालूम होता है….कि नहीं?
किसी पेड़ की आड़ लेकर मैं खुद ही दूध पी जाता था
वृतांत है कि मेरे जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं किंतु सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है। विदित हो कि गाँवों भैंस या गाय जब ब्याती (बच्चा देती है) हैं तो उसका पहला या जैसे भी संभव हो एक सप्ताह के अंदर लोकल देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं। यह लोक परम्परा का एक अटूट हिस्सा है। हमारे घर चार/पाँच भैंस रहा करती थीं। सो एक-दो महीने में एक ना एक भैंस बच्चा देती ही थी। तो मां हमेशा ही मुझे ही चामुंडा माई पर दूध चढ़ाने भेजा करती थी। यह सिलसिला मेरे पांच-छ: साल का होने से बदस्तूर शुरु हो गया था। मां मुझे मिट्टी की कुल्लो में दूध देकर चामुंडा माई पर दूध चढ़ाने के लिए भेज दिया करती थी और मैं चामुंडा माई तक जाने वाले रास्ते एक बरसाती नदी के किनारे किसी पेड़ की आड़ लेकर दूध को खुद ही पी जाता था। और घर आ जाता तो मां पूछ्ती…बड़ी जलदी आ गया। मैं मां को बहका दिया करता था कि…भागकर गया था…भागकर ही जो आया हूं …सो जल्दी आ गया। मामला खत्म हो जाता था। फिर खेल-कूद शुरु …. दरअसल ऐसा करने के पीछे कोई ग्यान नहीं था, बस दस-बीस ईटों का मठ बनाकर उनकी पूजा करती महिलाओं देखकर पता नहीं क्यूं मन-ही-मन घृणा होती थी…मन ही मन सोचता था कि भला ऐसा करने से क्या हो जाएगा ?
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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है भाग -1
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं