गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-3
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की तीसरी किश्त है
खैर! मैंने जैसे-तैसे मुकेश भाई का आदेश पूरा किया
जब नवंबर 2012 के प्रथम सप्ताह में भाई मुकेश मानस का फोन आया कि मैं अपने बचपन के विषय में कुछ लिखूँ। शायद उनको मेरी रुग्णावस्था के बारे में मालूम नहीं था। गौरतलब है कि अगस्त 2009 की इक्कतीसवीं तारीख को भारतीय स्टेट बैंक से उप-प्रबंधक पद से सेवा निवृत्त हुआ था। सेवा-निवृत्ति के बाद मेरे दो-तीन वर्ष ठीक-ठाक गुजर गए किंतु वर्ष 2012 के जुलाई माह की सोलह तारीख को इस कदर बीमार हुआ कि पहले दीपक मैमोरियल अस्पताल में भर्ती किया गया और जब मेरी हालत दीपक मैमोरियल अस्पताल के काबू से बाहर होती चली गई तो दिल्ली के सर संगाराम अस्पताल जा पहुँचा और फिर 03 अगस्त 2012 को माह में घर वापसी हुई।
बेशक मर्णासन्न अवस्था में घर के आने पर सबको लग रहा था कि अब मैं कुछ ही दिन का मेहमान हूँ तो मेरे छोटे बेटे ने पूछ ही लिया …पापा! …किसी का कुछ लेना-देना तो नहीं है?…मुझे भी इसका भान होने लगा था कि अब मेरा अंत समय आ गया है किंतु अच्छी बात यह थी कि यदि मैं इस अवस्था में मर भी जाता तो मुझे न तो किसी का कुछ देना था और किसी से कुछ लेना था। दरअसल मैंने अपने जीवन की जरूरतों को हमेशा अपनी जेब की नाप के हिसाब से ही किया था। इस सबका लाभ ये हुआ कि मुझे घर वालों को कोई भी हिसाब-किताब देने की नौबत नहीं आई। हाँ! बस घर-मकानों के कागजात व बैंक खातों के विवरण मैंने उनको जरूर बता दिए थे। किंतु घर आने के लगभग एक सप्ताह के बाद मेरे शेष बचे 44 किलो वजन में धीरे-धीरे इजाफा होने लगा और मैं अपनी मरणासन्न हालत से उबरता तो चला गया किंतु मेरी सोच-समझ जैसे गायब थी…. खाट पर पड़े रहना ही मेरी नियती हो गया थी…ऐसी हालत में भी जाने किस सोच के चलते मैंने मुकेश मानस से अपने बचपन की बारे में लिखने के लिए ‘हाँ’ तो कर दी… यह खुशी भी हुई कि मुकेश भाई के कहने को मानने से लगा कि शायद ऐसा करने से मेरे मित्रों की कुछ अभिलाषा भी पूरी हो जाए……और मेरे अकेलेपन का शब्दों के साथ मेलमिलाप हो जाय। किंतु मुकेश भाई के फोन बंद करने के बाद में एक विवशता ऐसी आई जिससे मेरा दिलो-दिमाग ऐसे घूम गया कि जैसे किसी चक्रवात में फंस गया हूँ।
मैं सोचने लगा कि आखिर मैं अपने बचपन के विषय में क्या लिखूँ…….. किससे पूछ कर अपने बाल्य-काल्य/बचपन के बारे में लिखूँ… अब घर में मुझसे बड़ा कोई भी तो शेष नहीं रह गया है, जिससे कुछ पूछताछ करके ही अपने बचपन के बारे में कुछ विस्तार से लिख पाऊँ। खैर! अब मुझे जो कुछ याद था या फिर मेरे शुरुआती बचपन के विषय में जो कुछ मेरी भाभी या किसी और के जरिए मैं सुना था, उसी के बल पर अपने बचपन को कागज पर उतारने का प्रयास करना मेरी मजबूरी बन गया है। सबसे बड़ी बाधा जो मुझे खाए जा रही थी, वह है कि अपने बिखरे हुए बचपन को समेटकर कागज पर कैसे किस प्रकार पिरोया जाए। खैर! मैंने जैसे-तैसे मुकेश भाई का आदेश पूरा तो किया किंतु यहीं से मेरी कलम और मन को एक ऐसा बल मिला कि मेरे लिखने में निरंतरता आ गई और मन ही मन जीवनी कहने का मन कुलबुलाने लगा। और अंतत: मैंने अपने बचपन की कहानी लिखकर मुकेश जी को लिख भेजी।
मेरा जन्म : गाँव – अला बास बातरी, जिला – बुलन्दशहर (उ.प्र.)
मैं घर में सबसे छोटा था। सबसे बड़ा भाई, दो बहनें और मैं। मेरा भाई और दोनों बहनें मुझसे बड़े थे। पूरा परिवार शाकाहारी था। बताया जाता है कि मेरे जन्म के समय मेरे माता-पिता की उम्र जैसे पक चुकी थी। यानी मैं बुढ़ापे की औलाद था। शायद इसीलिए भाभी अक्सर मुझे ‘बुढ़ापे की औलाद’ कहकर चिढ़ाती थी। जब मैं इस बात का अर्थ नहीं जानता था।….बड़ा हुआ तो जाना। ज्ञात हो कि मेरे पैदा होने से कुछ दिन पहले ही मेरी भाभी के यहाँ लड़की ने जन्म लिया था। मैंने अपने दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-ताऊ को देखने की बात तो अलग, उनके विषय में कुछ सुना भी नहीं था… और न आज ही मुझे उनके बारे में कुछ पता है।
स्कूली प्रमाण के आधार पर मेरा जन्म बुलन्दशहर (उ.प्र.) जिले के एक छोटे से गाँव ‘अला बास बातरी’ में सन 1949 के अगस्त माह में जब हुआ तब भारत का संविधान लिखा जा रहा था। इसमें कितना सच है, कितना नहीं, मुझे भी कुछ पता नहीं है। ….वैसे भी मुझे तो इस सच का पता हो ही नहीं सकता था ।….. कारण कि मेरे माता-पिता की मेरे बचपन में मृत्यु हो गई थी। और आज जब मैं अपने बचपन की कहानी लिख रहा हूँ, मेरे भाई व बहनें भी जीवित नहीं हैं। यदि जीवित होते भी तो कोई फायदा न होता क्योंकि उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था।… सब के सब अनपढ़ जो थे… वैसे भी अनपढ़ माता-पिता के लिए बच्चे का जन्म ही महत्त्वपूर्ण होता है न कि उसकी जन्म तिथि, उसकी जन्म तिथि से क्या लेना-देना उन्हें। घर में काम करने वाले और दो हाथ निकल आने को ही गाँव-देहात में बड़ी बात समझा जाता था।
भाभी ने बताया था कि मेरे जन्म के समय गाँव में हमारा अपना कोई घर नहीं था….मेरा जन्म मेरे दूर के मामा के बेटे – अमर सिंह के घर हुआ था….. काफी अरसे उनके घर पर ही हमारा परिवार रहा…जाने कब अपना घर बना था… पता नहीं। खैर! मेरे बचपन के विषय में जो कुछ भी यहाँ प्रस्तुत है, उसका शुरू का कुछ भाग मैंने कुछ बड़ा होने पर अपनी भाभी की जबानी ही सुना था। मैं तो उस भाग में केवल एक संदर्भ मात्र हूँ। अब जबकि मैं अपने बचपन को ढूँढने के प्रयास में हूँ, मुझे लग रहा है कि ज़िंदगी ने मेरे बचपन के पल जो समय ने मुझसे असमय ही छीन लिए थे या यूँ कहूँ कि समय के गर्त में ही समा गए थे, लगता है, आज मेरे सामने मुंह चिढ़ाए खड़े हैं।
जब किसी ने भी मेरे खाने-पीने की सुध तक नहीं ली
भाभी ने बताया था कि जब मैं लगभग डेढ़ वर्ष का था तो मेरे बाबा (पिता) हरिसिंह, जिन्हे गांव में ‘हरिया’ के नाम से पुकारते थे, का देहांत हो गया था। आज मुझे ऐसा लगता है कि उस समय बस इतना सा भान तो हो गया था कि बाबा यानी मेरे पिता के देहांत के समय घर के आस पड़ोस के लोग-लुगाई हमारे घर आते,….मेरी ओर भीगी आँखों से देखते… शायद मेरे बचपन में ही अनाथ होने की चिंता पर मन ही मन में…आह भरते …. आँसू गिराते होंगे। कई मेरे सिर पर हाथ रखकर दुख जताते… और चले जाते….। यही हाल महिलाओं का भी था… हाँ! महिलाएं दो-चार आँसू भी गिरा दे जा रही थी… यह तो वैसे भी महिलाओं की प्रवृति में शामिल होता ही है। लेकिन किसी ने भी मेरे खाने-पीने की सुध नहीं ली थी। होश ही किसी को कहाँ था?……..। माँ का तो वैसे ही बुरा हाल होगा। …घर-भर में भीड़ जमा थी और बताया जाता है कि तब मैं चारा काटने की मशीन के हथ्थे को पकड़कर उससे खेल रहा था। किसी के आने-जाने, मरने-जीने से भला किसी डेढ़ वर्ष के बच्चे को क्या लेना-देना। …आज मैं समझता हूँ कि बाल्य्काल्य की सबसे बड़ी विरासत तो यही होती है – न किसी दुख का, न किसी सुख का अहसास; ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर… न कोई अपना, न कोई पराया।
बच्चे का दुनिया से अनजानापन ही उसे दुनियाबी होने से बचाता है। इसीलिए तो उसके चेहरे पर हमेशा हंसी तारी रहती है। बच्चे के लिए न केवल सबकी गोद खुली रहती है अपितु सबके मन में उसके लिए अपनेपन का भाव बना रहता है। केवल भूखा होने की दशा में ही उसे रोना आता है। जैसे–जैसे उसे होश आता जाता है या यूँ कहें कि वह दुनिया की हकीकतों से रूबरु होता जाता है, उसके आस-पास एक ऐसी दुनिया का घेरा बनता चला जाता है जिससे मुक्ति का मार्ग उसे तमाम उम्र नहीं मिल पाता। यही सत्य मेरा भी है….हरेक का होता है। दीन-दुनिया की खबरों से दूर….अपने आप में मस्त…खाना-पीना….खेलना कूदना और शाम को घर आकर रोटी खाकर सो जाना….बस और कुछ नहीं….।
मेरा गाँव के लोग अनपढ़ जरूर थे किंतु थे समझदार
मेरे गाँव के बारे में लिखने से पहले यह बतादूं कि अब मेरा गाँव मेरे लिए केवल कागजों में रह गया है। कारण यह है कि मेरे दिल्ली आने के बाद और भाभी के मरने के बाद, मेरे बड़े भाई डालचंद ने घर और घेर दोनों बेच दिए थे और सबसे छोटी बहन की ससुराल–नानपुर (गढ़) जाकर बस गए थे। इस कारण मेरा भी गांव जाना धीरे-धीरे बंद ही हो गया। खैर! मेरा गांव तो मेरा गांव ही रहेगा…वर्तमान में भी और इतिहास में भी।
यह भी कि मेरा गांव कोई पुश्तैनी गाँव नहीं है। ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुवती ने कुनबा जोड़ा’ वाली तर्ज पर बसे इस गाँव में आजादी से लगभग 10-12 साल पूर्व, एक दूसरे के दूरदराज़ के रिश्तेदार आकर बसे थे। खानदानी कतई नहीं थे किंतु सगे से भी ज्यादा मिल-जुलकर रहते थे। एक दूसरे के दुख-दर्द में एक साथ खड़े होना उनकी प्रवृत्ति में शामिल था। गाँव के सब लोग अनपढ़ जरूर थे किंतु उनकी समझ का कोई तोड़ नहीं था। आपस में लाख लड़ाई-झगड़े हों,…… किंतु मजाल कि कोई बाहर का आदमी गाँव में आकर किसी प्रकार का हस्तक्षेप दर्ज कराने का साहस कर पाए।
जगराम, केसरी, महराज और प्रहलाद चार भाई थे जिनके बारे में सुना था कि उनके जन्म के अवसर पर खाने का इतना टोटा था कि उनकी माँ को उनके जन्म के अवसर पर जच्चा को मिलने वाला खाना भी ठीक तक नहीं मिलता था । केवल गाजर खा-खाकर अपने बच्चों को पाला-पोसा था। उनके बच्चे बड़े होकर इतने बलशाली बने कि वे जब एक साथ होते थे, तो उनके सामने किसी का इतना साहस नहीं होता था कि ऊँची आवाज में बोल सके। इनके बाद मेरे दूर के मामा के बेटे– चिरंजी और हरीसिंह और मेरे सगे भाई डालचन्द के नाम इस सूची में दर्ज थे, उनके हाथों में हमेशा तेल से तर लाठियाँ हुआ करती थीं। यही शारीरिक शक्ति उनकी असली ताकत हुआ करती थी। यहाँ दिवंगत काले तथा तोताराम का नाम लेना भी गैरवाजिब नहीं होगा।
शरीर से बलीष्ठ लम्बा कद, स्याम रंग के मामा हारी राम (दिवंगत) बहुत ही मृदु – भाषी थे। वो ज्यादातर किसी प्रकार के पचड़े में नहीं पड़ते थे…बस अपने काम से काम। सादगी और सज्जनता के नाम पर तो मोमराज और समेय सिंह जी नाम लिया जा सकता है। जैसा कि मैंने कहा कि मेरे समय के सारे लोग अनपढ़ जरूर थे किंतु थे हफनमौला। उनके लिए “मार के पीछे लकीर को पीटना” जैसे कोई मायने नहीं रखता था। यदि गांव से बाहर के यानी नजदीकी गांव वालों ने गांव की ओर बुरी नजर देखा या किसी के साथ कोई छेड़छाड़ की तो दो ही बातें होती थीं। एक – या तो मौके पर ही बदला ले लिया और यदि दिन में हाथ नहीं लगा यानी कि काबू में नहीं आया तो न सही किंतु रात उनकी होती थी यानी रात के अन्धेरे में दुश्मन के घर में घुसकर प्रतिरोधी को मात देना उन्हें भली-भाँति आता था। उनकी सोच बस इतनी भर त होती थी कि मार पीछे केवल पुकार ही होती है, सो जो करना है, कर डालो। आगे की देखी जाएगी।
मेरे गाँव में कुल 40-45 घर थे…….सभी जाटवों के। अब कुछ ज्यादा हैं …..परिवारों का निरंतर विकास जो हो रहा है। जब मैंने गाँव छोड़ा था कुल चार-पाँच मकानों को छोड़कर बाकी सब मकान मिट्टी के बने थे, अब पक्के मकानों की संख्या कुछ ज्यादा है। मेरे समय में आँगन और मकान की दीवारों को गोबर में पीली मिट्टी मिलाकर लीपा-पोता जाता था। बारिश से पहले मकानों की कच्ची छतों को भुस की रैनी ( भूसे का वारीक रेशा) और गोबर को चिकनी मिट्टी में मिलाकर वाटर-प्रूफ किया जाता था। आपको यह जानकर हैरत होगी कि मेरा पूरा का पूरा गाँव अनपढ़ों का था। केवल बादाम सिंह और टूकीराम नौवीं कक्षा तक पढ़े थे।…उनको नौकरी मिली नहीं, या फिर उन्होंने प्रयास ही नहीं किया…….. मुझे पता नहीं…..हाँ! इतना मालूम है कि उनकी नाकामयाबी के चलते उनके घर वालों ने उनकी जल्दी ही शादी कर दी जिससे वो गाँव के ही हो कर रह गए। ….उनकी इस नाकामयाबी का गाँव के बाकी बच्चों पर ऐसा कुप्रभाव पड़ा होगा कि पढ़ने के प्रति सबका रुझान कम हो गया….। खेती के साथ-साथ छोटी-मोटी मजदूरी करना सबकी रोजी-रोटी का साधन था। कुछ परिवारों को छोड़कर अधिकतर गांव वालों के पास थोड़ी-घनी खेती करने योग्य जमीन थी जिससे घर के लालन-पोषण में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी। परिणाम ये कि सब खा-पीकर इतने बलिष्ठ थे कि उनकी लाठी में धुआँ उठता था। दिनभर लाठी को तेल पिलाना उनके रोजगार में शामिल था…. केवल दबंगई ही सबके दिमाग पर हावी रहती थी। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने की चिंता तो किसी को ख्वाब में भी नहीं थी। यहाँ यह उचित ही होगा कि गाँव की दबंगई के बारे में एक-दो वाकयात का खुलासा किया जाय अन्यथा मेरा कथन जैसे एक बड़बोलापन ही सिद्ध होगा।
प्रतिवर्ष घटने वाली एक घटना का उल्लेख शायद मेरी बात के समर्थन में काफी हो …….. गौरतलब है कि गाँव के पूरब में चित्सोना और दक्षिण में मंडोना जाट बाहुल्य गाँव हैं तथा उत्तर में केशोपुर सठला और पश्चिम में बी. बी. नगर अवस्थित हैं। ये दोनों ही कस्बे ब्राहम्ण व वैश्य बाहुल्य कस्बे हैं। जाटवों की अच्छी-खासी संख्या है इनमें। आमतौर पर सभी जातियों के लोग आपस में मिलजुल कर रहते थे। कभी-कभार किसी अप्रिय घटना का होना अपवाद ही कहा जाएगा। मेरी याद में, जातीय दंगों के नाम पर कभी कोई तकरार नहीं हुई। एक दूसरे के यहाँ ब्याह-शादी में भी आना जाना भी होता था।….. गाँव के उत्तरी छोर पर बसे ‘केशोपुर सठला’ में प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन एक आम बात थी…गाँव के पश्चिमी छोर पर बसे बी.बी. नगर में ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम अपेक्षाकृत कम ही हुआ करते थे…हालाँकि बी. बी. नगर केशोपुर सठला से बड़ा ही नहीं अपितु विकसित भी था। बी. बी. नगर में बालक –बालिकाओं के लिए अलग-अलग इंटर कालिज भी थे। कई अन्य सार्वजनिक संस्थाएं जैसे प्राथमिक चिकित्सा हेतु अस्पताल……विकास खण्ड कार्यालय…… पुलिस चौकी (जो आज थाना बन गई है)….. आदि-आदि। और अब तो डिग्री कालेज भी बन गया है।
सठला में प्रतिवर्ष रामलीला का इलाके के हिसाब से भव्य आयोजन किया जाता था। आस-पास के गाँवों से अच्छी-खासी भीड़ जिसमें बच्चे और औरतें भी शामिल हुआ करती थीं, रामलीला देखने आती थीं। जाहिर है रामलीला रात के पहले पहर में ही आयोजित की जाती थी…. तो किसी भी प्रकार के उत्पात का डर बने रहना स्वाभाविक ही होता था….रामलीला के आयोजकों की संभावित उत्पात से निपटना एक सिर दर्द बना रहता था….. । कभी-कभार मैं भी रामलीला देखने जाता था….एक मंच होता था… मंच पर रंग-बिरंगे पर्दे…..पर्दों के ठीक आगे की ओर मंच पर ही दो भौंपू (माइक) लगे होते थे…..समय-समय पर मंच-संचालक कुछ न कुछ घोषणाएं करता रहता था…..कुछ दर्शक रामलीला को जल्दी शुरू करने के लिए…. शोर भी करते दिखाई देते थे….. किंतु रामलीला इस घोषणा के साथ ही शुरू होती कि अब ठीक है …… हाँ! तो प्यारे दर्शको….. अब इंतजार की घड़ी समाप्त हो गई है….. पड़ोसी गाँव बातरी के लोग आ गए हैं ….. अब रामलीला शुरू होती है… सब शांति के साथ रामलीला का आनन्द उठाएं।
….. एक दो बार परदा गिरता…..उठता और रामलीला शुरू हो जाती…। रामलीला समाप्त होती….रात्री को सब अपने-अपने घर लौट जाते ….मगर मेरे मन में एक उत्सुकता घर किए रहती कि आयोजकों ने आखिर यह कहकर रामलीला क्यों शुरू की- “हाँ! तो प्यारे दर्शको….. अब इंतजार की घड़ी समाप्त हो गई है….. पड़ोसी गाँव बातरी के लोग आ गए हैं…….. अब रामलीला शुरू होती है..”। आखिर मैंने एक दिन गांव के किसी बुजुर्ग से पूछ ही लिया कि बाबा … रामलीला शुरू होने से पहले ऐसा क्यों कहा गया था। जवाब मिला….. चल छोड तू क्या लेता है इन बातों से….. बड़ा हो जाएगा…तो … समझ जाएगा। किंतु जब मैं अपनी जिद पर अड़ा ही रहा तो मुझे बताया गया कि बेटा आसपास के गाँवों के कुछ लोग रामलीला के कार्यक्रम में बाधा पहुँचाने की कोशिश करते हैं…. जब हमारे गाँव के लोग रामलीला में पहुँच जाते हैं तो दंगाइयों की माँ मर जाती है….. समझा कि नहीं? तू यूँ जान कि हमारे गाँव वालों के सामने…….सब दबकर रहते हैं। अब समझा कि नहीं …….।
दूसरी घटना–यूँ तो हमारे गाँव के ज्यादातर लोगों के पास खेतीहर जमीन थी/है किंतु फिर भी कभी-कभार गाँव के पड़ोस में पड़ने वाले खेतों में ढोर-डंगरों के लिए कुछ औरतें घास काटने चले जाया करती थीं…… गाँव के पड़ोस में आड़ुओं का एक बाग था। उसका मालिक एक रिटायर्ड फौजी था….. जाति का जिक्र करना मुझे खुद ही अच्छा नहीं लग रहा है….वैसे भी जाति और धर्म के नाम पर क्या-क्या अप्रिय नहीं हो रहा है……. ठीक-ठीक मुझे पता भी नहीं है । हुआ यूँ कि एक दिन उसने गलती से या जानकर किसी औरत को घास काटने से मना करते हुए कुछ उल्टा-सीधा यानी जाति-सूचक गालियों से नवाज दिया। पलभर में ही बात गाँव चौपाल तक पहुँच गई……फिर क्या था….. पलक झपकते ही…..गाँव के कुछ बड़े….कुछ बड़े बच्चे उसके खेत पर पहुँच गए….. उसे पकड़कर चौपाल पर ले आए। …….वो बेचारा बेबस था। उससे कुछ भी कहते नहीं बन रहा था। कुछ कहता भी तो कोई सुनने वाला नहीं था….. उसके हाथ-पाँव बाँधे…. और डाल दिया जमीन पर। ….उसकी लम्बी-लम्बी सफेद मूँछे थीं…. भारी-भरकम शरीर था…वैसे भी फौजी था…. किंतु हर प्रकार से लाचार…….। गाँव वालों ने उससे एक बर्तन में पेशाब करवाया। ….फिर उसके ही पेशाब की एक ..एक बून्द उसके मुँह में डालते और उसकी मूँछ का एक-एक बाल उखाड़ लेते…..यह कार्यक्रम जब तक चलता रहा, तब तक उसने अपनी करनी की माँफी नहीं माँग ली…..। फिर वह कभी भी गाँव की तरफ पलटकर नहीं आया। ….बाद में पता चला कि उसने खेत ही बेच दिया है। और भी बहुत सी घटनाएं हैं जिनका भी यहाँ उल्लेख किया जा सकता है किंतु…… मैं उनके उल्लेख की ज्यादा जरूरत नहीं समझता….. मुझे कहानी तो अपनी लिखनी है ना…।
सच कहूँ तो मेरे गाँव वाले किसी जाति, किसी धर्म, किसी समुदाय या फिर किसी वर्ग के लोगो में विशेष के खिलाफ नहीं थे। बस! उन्हें नाइंसाफी पसंद न थी। उनका अगूँठा छाप होना बेशक उनकी प्रगति में बाधक था किंतु सामाजिक सौहार्दय बनाने में काफी हद तक कामयाब था।
शिक्षा के प्रचार से अब मेरे गांव की सूरत भी बदल गई है। कच्चे घर ईंटों के हो गए हैं। बहुत से बच्चों का रुझान शिक्षा की ओर बढ़ा है। शिक्षा के हर क्षेत्र/स्ट्रीम में शिक्षारत हैं। बहुत से लोग आज अच्छी –आच्छी नौकरियों पर लगे हैं। गाँव में प्राथमिक स्कूल तो है ही, गाँव वालों ने अपने पुरखों की यादों को संजोने के भाव से भव्य “अम्बेडकर भवन का निर्माण भी कर लिया है।
मैं शाखा प्रबंधक के यहाँ खाने पर नहीं जाऊँगा
शायद सन १९८० की बात है। जब मैं अपने नियोक्ता भारतीय स्टेट बैंक के केंद्रीय आडिट विभाग (मुम्बई) की मोबाईल ड्ड्यूटि पर हुआ करता था। घटना कुछ यूँ है – सतना के नजदीकी कस्बे की शाखा का निरीक्षण चल रहा था।
एक दिन शाखा प्रबंधक मुझे अपने घर ले गए। शायद घर पर भोजन कराने का कार्यक्रम था। खाने की मेज पर तरतीब बार नियत संख्या में बर्तन रखे हुए थे। शाखा प्रबंधक ने मुझे इशारे से बताया कि आप साहेब को बता देना कि इस (अमुक) कुर्सी पर न बैठें। इतना सुन मेरा सिर चकरा गया और इसका कारण पूछ ही लिया। डाइनिंग रूम हम दोनों के अलावा और कोई नहीं था फिर भी बी. एम. महोदय मेरे कान से मुँह सटाकर धीरे-धीरे बोले, ‘सिंह साहब बात तो कुछ भी नहीं है किंतु मेरी माँ पूरी जातिवादी है। किंतु हमारे अकाउंटेंट भंगी जाति से हैं, माँ उनको सबके साथ खाना खाने पर आफत काटे हुए है। मैंने बड़े मुश्किल से मनाया है कि अकाउंटेंट जिन बर्तनों में खाना खाएंगे, उन्हें अलग रख देंगे। अब इस बात को अपने तक ही सिमित रखना….।
इस बातचीत के बाद हम बैंक वापिस आ गए। बी. एम. साहेब अपने केबिन में चले गए और मैं अपने बॉस श्री पी. डी. शर्मा जी के पास। …….मैं कुछ देर खड़ा ही रहा किंतु शर्मा जी ने टोका ….कब तक खड़ा रहेगा….बैठ जा न। उनके कहने पर बैठ तो गया किंतु दिमाग में एक तूफान सा आया हुआ था। शर्मा जी फिर कह उठे…अरे! बोल न बात क्या है? मैंने सारी बात शर्मा जी को बतला दी।…. और यह भी कह दिया कि मैं बी. एम. के यहाँ खाने पर नहीं जाऊँगा। …. शर्मा जी भी कुछ चौंके और बोले क्या तुझे उस कुर्सी का पता है जो अकाउंटेंट के लिए नियत की गई है? मैंने हाँ में कहा, जी पता है। इतना सुनते ही शर्मा जी अपनी सीट से उठे और मुझे बाहों में भरके बोले ….तो हो गया समस्या का हल…. बेकार परेशान हो रहा है। …अब ध्यान से सुन, ‘तुझे खाने के मेज पर उसी सीट पर है जो एकाउंटेंट के लिए नियत की गई है। …ठीक है! फिर मैं तुझे उस सीट उठाकर उस सीट पर बैठ जाऊँगा।…हो गया न समस्या का समाधान…अब सामान्य हो जा।…मैंने हाँ में हाँ तो मिला दी किंतु मन में कुछ् न कुछ संशय इसलिए बना रहा कि कहीं मेरे बॉस शर्मा जी की बात में भी कहीं कूटनीति तो नहीं? अकाउंटेंट के लिए नियत कुर्सी पर मुझे बैठने की बात कहीं दोहरी तो नहीं क्योंकि शरमा जी को तो अच्छी तरह मालूम था कि तेजपाल भी तो अनुसूचित जाति से ही है। मेरे उस सीट पर बैठ जाने के बाद यदि किसी दूसरी कुर्सी पर बैठ गए तो जाने-अंजाने वे बी.एम. की बात का ही समर्थन न करदें। किंतु ऐसा हुआ नहीं…।
मैं अकाउंटेंट के लिए नियत कुर्सी पर बैठ गया किंतु बी. एम. महोदय मुझे उस कुर्सी पर से उठने का ईशारा करते रहे किन्तु मेरे बोस शर्मा जी ने मुझे उस कुर्सी से उठाया और खुद बैठ गए। यह देखकर आयोजन कर्ता शाखा प्रबन्धक अपना सा मुँह लेकर रह गए। और अंदर ही अंदर मेरी ओर देखकर जैसे परेशान हो रहे हों। भोजनापरांत जब सब शाखा में आ गए तो मेरे बोस ने बी. एम. को अपने केबिन में बुलाया और उनसे बोले कि जब हम आपकी शाखा में आए थे तो आपने हमारी जाति क्यों नहीं पूछी? मेरे नाम में तो “शर्मा” लगा है पर मेरे सहायक के नाम के साथ अनुसूचित जाति का न होने का कौन सा तमगा लगा था? क्या हमने आपकी और आपके स्टाफ के जाति पूछी थी? क्या हमने आपसे भोजन का निवेदन किया था? इतना सुन कर शाखा प्रबंधक शर्म के मारे बिना कुछ कहे अपने केबिन में चले गए।….शाखा प्रबंधक महोदय ने मेरे बोस को शाखा बंद होने के बाद अपने घर पर आमंत्रित किया किंतु मेरे बोस पी.डी. शर्मा ने उनके इस निमंत्रण को ठुकरा दिया।
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।