गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की छठी किश्त है।
दसवीं के बाद शिक्षा हेतु संघर्ष
यहाँ यह खुलासा करदूँ कि मेरे बड़े भाई मां के देहांत से पहले जमीन से पानी निकालने वाले नल (नलकूप) लगाया करते थे। लेकिन माँ के देहांत के बाद मेरे बड़े भाई (डालचंद प्रधान) में जो बड़ा एक परिवर्तन आया, वह मेरे लिए बड़ा ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। अब भाई ने शारीरिक श्रम करना यानी नल लगाने का काम बंद कर दिया। माँ की भारी-भरकम जमा-पूंजी (जो बाद में लगभग पैंतालीस हजार रुपए बताई गई थी) जो मां ने किसी के जरिए डाकखाने में जमा कराई थी, ऐसा मैंने सुना भर था। और भैंसों को बेचने से अर्जित धन को एक के बाद दूसरा कारोबार करने में बरबाद कर दिया। इधर मैंने दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी।
जब भाई ने दसवीं के बाद आगे पढ़ाने से मना कर दिया तो…
दसवीं करने के बाद भाई ने मुझे आगे पढ़ाने से मना कर दिया। पर मैं पढ़ना चाहता था। भाभी के कहने का भी भाई पर कोई असर नहीं हुआ। इस पर मैं निराश रहने लगा। कहीं कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही थी। अब मुझे लगने लगा था कि माँ के मरने पर बस्ती वालों द्वारा दिया गया खिताब ‘बेचारा अभागा’ जैसे अब साकार होने की दिशा में था। मुझे अपने चारों ओर खालीपन के अलावा कुछ और दिखाई नहीं दे रहा था। अब माँ का अभाव सताने लगा था। कई बार अकेले में मेरी आँखे नम हो जाती थीं और मैं देर तक रोता रहता था। पढ़ाई के क्षेत्र में आए सकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ के बाद माँ का देहांत, एक ऐसा नकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ था जो शेष जीवन के लिए एक चुनौती बन गया था। अब जीवन में संघर्ष के अलावा कुछ भी शेष नहीं रह गया था। ऐसे में मैं कभी नौकरी तलाशने की बात सोचता तो कभी कुछ काम-धाम करके आगे पढ़ने की। मैं जैसे जीवन के प्रवेश द्वार ही पर ही उलझ गया था। सच तो ये है कि मैं कुछ भी ठीक से नहीं सोच पा रहा था। मुझे लगा कि अब खुद को, जिन्दगी को और दुनिया की हकीकत से रूबरु होने का समय आ गया है।
जब भाई की कहानी मैंने अपनी बड़ी बहन को सुनाई तो…
समय को पकड़ कर रख पाना किसी के हाथ में नहीं होता। हारकर मैं नौकरी पाने के मकसद से अपने बड़े जीजा जी (दिवंगत श्रीराम जी) के पास गया और सारी कहानी उनसे और अपनी बड़ी बहन को कह सुनाई…… सारी बात सुनने के बाद जीजा जी ने मुझसे कहा कि या तो मुझसे नौकरी लगवाले या फिर आगे की पढ़ाई का खर्चा मैं उठा लूंगा। जीजा जी की बात सुनकर मेरा दोहरा दिमाग हो गया… आखिर नौकरी करने का इरादा कर लिया। ये बात मैंने जीजा जी से कहदी। उन्होंने नौकरी लगवाने के लिए किसी को रिश्वत देने के लिए मुझसे घर जाकर पाँच सौ रुपए लाने के लिए कहा। यहाँ उनकी बातों में दोहरापन नजर आया, कहाँ तो वो आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने की बात कर रहे थे, वही वो नौकरी लगवाने की एवज पाँच रुपये भी खर्च करने को तैयार नहीं दिखे। जबकि उनकी अच्छी–खासी खेती की जमीन भी थी। और वो खुद बुलंदशरहर हाईडिल में लाइन मैंन के पद पर नौकरी भी करते थे। मेरे मन में आया कि इतने पैसों का इंतजाम तो जीजा जी खुद भी कर सकते थे, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। सो मेरे मन में यह भी शंका घर कर गई कि शायद मेरी पढ़ाई का खर्च उठाने की बात भी मेरा मन रखने के लिए ही सिद्ध न हो जाए। जीजा जी की बात सुनकर आखिर मैं अपने गाँव वापिस आ गया।
जब मैंने नौकरी लगवाने के लिए भाई से पैसों की मांग की तो…
खैर! मजबूरी थी। मैंने अपने गाँव जाकर अपने भाई को सारी कहानी बताने के बाद पाँच सौ रुपए की मांग की। उन्होंने भी साफ मना कर दिया। हां! उन्होंने इतना जरूर किया कि मुझे गाँव में ही रह रहे दूर के रिश्ते में लगने वाले मामा के बेटे (दिवंगत) श्री हरिसिंह के पास ले गए और उन्होंने सारी कहानी सुनाने के बाद उनसे मुझे पाँच सौ रुपए देने के लिए कहा और साथ में यह भी कह दिया कि इन रुपयों को तेजपाल ही पटाएगा।
इतना सुनकर भाई हरीसिंह को थोड़ा सा गुस्सा आ गया और उन्होंने मेरे सगे बड़े भाई से कहा – फिर तू साथ में क्यों आया है…पैसों के लिए इसे अकेले ही क्यों नहीं भेज दिया… तू केवल सिफारिश करने आया है। अगर इस काम के लिए ये अकेले भी आ जाता तो क्या मैं इसे मना कर देता? इतना कहकर हरिसिंह बैठक से उठकर घर में गए और पाँच सौ रुपए लाकर मुझे दे दिए। पैसे लेकर मैं वापिस जीजा जी के पास गया और उन्हें पाँच सौ रुपए दे दिए। कहना न होगा कि 1969 में पाँच सौ रुपए बहुत हुआ करते थे। उन्होंने पैसे लेकर मुझे सैनेट्री इंस्पेक्टर की नौकरी दिलाने का भरोसा देकर कहा कि अब तू गाँव चले जाना, जब बात बनेगी, तब तुझे बुला लूंगा। कालिज बंद था…गर्मियों की छुट्टियां समाप्त होने को थीं।
इसी इंतजार में कि कब जीजा जी से कोई खबर आएगी, गर्मी की छुट्टियां का लगभग एक महीना गुजर गया किंतु जीजा जी की ओर से कोई खबर नहीं आई। अब क्या करूँ …ये प्रश्न मुझे खाए जा रहा था। हारकर मैंने आगे पढ़ने का मन बना लिया और जैसे-तैसे स्वतंत्र भारत इंटर कालिज में ही कक्षा ग्यारहवीं (विज्ञान) में दाखिला ले लिया।
आगे की पढ़ाई के लिए कुछ यूं जुगाड़ किया…
हेंड पंप लगाना तो मैं सीख ही गया था क्योंकि घरेलू काम था। कालिज की छुट्टी वाले दिनों में मैंने नल लगाने का काम शुरु कर दिया। कभी-कभार स्कूल से बंक मार के भी नल लगाने चला जाता था। महीने में कुछेक नल लगाकर किताबों और थोड़ा-बहुत फीस का काम चल जाया करता था। खाना और कपड़े तो घर से मिल ही जाते थे।
उल्लेखनीय है कि कालिज में मुझे ही नहीं किसी को भी कभी कोई जातीय दुराव देखने को नहीं मिला जबकि मेरे कालिज में तीन-चार अध्यापकों को छोड़कर शेष सभी अध्यापक ब्राहम्ण थे लेकिन उनमें जातिभेद से इतर गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अजीव सी सद्भावना थी कि वे उनकी हर संभव मदद किया करते थे। सभी छात्र भी जातिभेद की भावना से परे एक साथ मिलकर रहते थे।
संस्कृत के जातिवादी अध्यापक ‘गुरू जी‘
लेकिन संस्कृत के एक मात्र अध्यापक ऐसे थे जो जातिभेद से लबालब भरे थे। ….. उन्हें सब गुरूजी कहकर पुकारा करते थे….. ऐड़ी तक का लम्बा धवल कुर्ता और धोती उनके पहनावे में शामिल थी….. पर थे बड़े ही नकचढ़े ……माथे पर न जाने कितनी सिलवटें…….भौएं चढ़ी हुई…..यह उनकी खास पहचान थी। किसी से भी सीधे मुँह बात नहीं करते थे वे….।
एक बार की घटना है कि उन्होंने किसी बच्चे से पीने के लिए पानी मँगवाया….जब बच्चा पानी ले आया…. तो तब वो उससे उसकी जाति पूछ बैठे….. और जब पता चला कि वह बच्चा दलित वर्ग से है तो…. पानी पीने से तो मना तो कर ही दिया…..उल्टे उसी को दोष देने लगे कि गधे पहले क्यूँ नहीं बताया कि तू ………. है। यह घटना मेरे जहन में गहरे से घर कर गई……..गाहे-ब-गाहे मेरे दिमाग में घूमती रहती थी…. गुरूजी के प्रति मेरे मन में ही नहीं अमूमन सारे छात्रों में घृणा घर कर गई थी।
जब पीटी-अध्यापक बाबूराम शर्मा ने मुझसे पीने को पानी मंगवाया तो…
संदर्भवश याद आ रहा है कि जब एक दिन पी.टी. के अध्यापक माननीय बाबूराम शर्मा जी ने मुझसे पीने के लिए पानी लाने को कहा तो गुरू जी (संस्कृत के अध्यापक) का बर्ताव मेरे जहन में ऐसे खटका कि बाबू राम शर्मा जी से कह उठा,” सर! आपको पता है कि मैं जाटव जाति से हूँ…. मैं पानी ले आया….. और आपने नहीं पिया तो मुझे कष्ट होगा। बाबू राम जी ने इतना सुना और मेरे कंधे पर प्यार भरी धौल जमाई और बोले…. गधे मैंने तुझसे पानी लाने के लिए कहा है…….तेरी जाति नहीं पूछी…..चल जल्दी से पानी ला……..चल…।
संयोगवश बाबूराम शर्मा जी की एक और सोच याद आ गई। ज्ञात हो कि कि कालिज में ज्यादातर गरीब परिवारों के छात्र थे…किसी के पास वर्दी होती थी…. किसी के पास नहीं….मेरे पास भी नहीं। जब कालिज में प्रार्थना होती थी तो बच्चों की वर्दी में एकरूपता कतई नहीं होती थी…. यह बाबूराम शर्मा का ही दिमाग था कि उन्होंने कालिज में एन.सी.सी. का कोर्स लागू करा दिया।….नया-नया कोर्स आया था उन दिनों… फिर क्या था… सबसे पहले बाबूराम शर्मा जी ने उन बच्चों को एन.सी.सी. में भर्ती किया जिनके पास पहनने को समुचित कपड़े नहीं होते थे… उनमें से एक मैं भी था….. न कद…. न काठी….। शर्मा जी ने गरीब बच्चों के हितार्थ शारीरिक मापदण्ड को जैसे ताक पर उठा कर रख दिया था। कालिज के प्रधानाचार्य की सहमति उनके साथ थी…फिर काहे का डर…। और हाँ! इस प्रकार उन्होंने गरीब बच्चों की मदद करके न जाने कितने ही बच्चों की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया….।
ऐसे थे हमारे भूगोल के विभागायक्ष श्री मेवा राम शर्मा जी
हमारे कालिज मैं भूगोल के विभागायक्ष श्री मेवा राम शार्मा की जाति विरोधी मानसिकता की चर्चा न की जाय तो यह उनके प्रति उपेक्षा का भाव ही होगा। हमारे कालिज में हर शनीवार को डिबेट हुआ करती थी। शायद मेवा राम जी को किसी अध्यापक में जाति-भाव दिखता होगा … तभी तो उन लोगों को जगाने के उद्देश्य से मेवाराम जी अक्सर डिबेट में मजाकिया लहजे में कहा करते थे :-
“जाट और जटिया में., खाट और खटिया में.
लोटा और लुटिया में, बोलो क्या फरक है।“
उनकी इस पंक्तियों में भरपूर व्यंग्य तो है ही, साथ ही जातिवादी लोगों के लिए एक सबक भी है।
कालेज के प्रधानाचार्य माननीय रामाश्रय शर्मा जी को जैसा मैंने जाना
पाठकों को यह जानकर हैरत होगी कि स्वतंत्र भारत इंटर कालेज, बी.बी. नगर (बुलंद्शहर) में ज्यादातर स्टाफ ब्राहम्ण वर्ग से ही था केवल एक-दो अध्यापकों को छोड़कर….. याद पड़ रहा है कि एक थे एहसान अली सर और दूसरे थे …..सिरोही सर…. ऐसे में सोचा जा सकता है कि गरीब तबके से आने वाले छात्रों की शिक्षा का क्या आलम होगा…. किंतु वैसा कतई नहीं था जैसा आप सोच रहे हैं। गरीब तबकों से आने वाली छात्रों की शिक्षा का ही नहीं अपितु उनकी रोजमर्रा की जरूरतों का भी …..सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से पूरा ध्यान रखा जाता था।
संदर्भ के चलते याद आया कि कालेज के प्रधानाचार्य माननीय रामाश्रय शर्मा प्रार्थना से पहले ही कालेज के मुख्य द्वार पर आ खड़े होते थे….. हाथ में अंग्रेजों वाला छोटा सा रूल…….ऐसे झूलता था जैसे कितने क्रूर होंगे….. किंतु मैंने कभी अपने शिक्षाकाल में, उन्हें उस रूल का प्रयोग कभी-कभार ही करते देखा था। हाँ! तो होता यूँ था कि जो बच्चे प्रार्थना के बाद यानी कि कालेज देर से आते थे….. उनमें से गरीब तबकों से आने वाले छात्रों को वो कालेज के मुख्य द्वार पर ही रोककर मुर्गा बनाकर खड़ा कर देते थे……. और उनके चूतड़ों पर कभी रूल तो कभी घूँसा मारकर उनकी खबर लिया करते थे……. एक बार मैं भी इस जाल में फंस गया……. मुर्गा बनना पड़ा……किंतु मुझे हैरत हुई कि वो हमें सजा देते थे। मेरी दृष्टि में सजा से ज्यादा बच्चों को सीख देने का एक तरीका था। वो ऐसे लेटलतीफ बच्चों से अक्सर कहा करते थे…., “सोरे! तुम्हारी माँ-बहनों के घास खोदते-खोदते पेटीकोट फट जाते हैं……. जब कहीं तुम्हें स्कूल भेज पाती हैं… और सोरे! तुम स्कूल भी समय से नहीं आ सकते…..पढ़ना तो दूर की बात… अमीर घरों बालक पढ़ें …ना पढ़ें …..इन पर कोई फरक नहीं पड़ने का ….. ये तो अमीर घरों के हैं……. दुकान पर बैठके डंडी मारके भी कमा लेंगे… तुम क्या करोगे?… तुम्हारी तो मैं खाल छील दूंगा…. देखता हूँ तुम कैसे नहीं पढ़ते हो…।” उनके इन उदगारों को रखने के बाद मुझे नहीं लगता कि मेरे कालिज के ब्राहमण अध्यापकों के बारे में कुछ और कहना शेष रह जाता है। ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में मेरी तो फीस भी प्रधानाचार्य माननीय रामाश्रय शर्मा ही देते थे। जब कभी दलित-छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति मिलती थी तो कभी-कभी लौटा भी दी जाती …. कभी नहीं भी…… वो इस प्रकार के खर्चे अक्सर अपनी जेब से ही वहन किया करते थे।
1968 : बीमारी के कारण 12वीं की परीक्षा में नहीं बैठ पाया तो…
उल्लेखनीय है कि 1968 में होने वाले इम्तहान सिर पर थे किंतु मैं जनवरी के महीने में बहुत ज्यादा बीमार हो गया। बुखार निमोनिया में बदल गया। और मैं शरीर से एक मानसिक खाका बनकर रह गया था। बीमारी के कारण मैं 1968 में परीक्षा नहीं पाया और 1969 में बारहवीं पास करने के बाद मैं अपने एक रिश्तेदार के साथ दिल्ली चला आया। कहानियां तो और भी बहुत है किंतु सबको यहाँ समेटना विषयांतर हो जाएगा। इस दौरान, बहुत से साथी मुझ बीमार से मिलने आया करते थे। लेकिन हर बार आने वाले छात्र-दोस्तों में से ज्यादातर को यह शिकायत रहती थी कि हमें मिलने वाले वजीफे में से कालेज दो रुपये महीने के हिसाब से कटौती कर लेता है, जो कटौती नाजायज थी। उनकी बात सुनकर मैं भी ये कह देता था कि भई! ये तो सबकी अपनी-अपनी मर्जी का मामला है, जिसको कटवाना है कटवाओ, नहीं कटवाना तो मत कटवाओ जरूरी थोड़े ही है। पता चलाकि उनमें से किसी ने भी उस वर्ष भवन निर्माण के नाम पर वसूला जाने वाला चन्दा, यह कहकर नहीं कटवाया कि तेजपाल ने मना कर दिया है।
विदित है कि 1968 में बीमारी के कारण मैं बारहवीं कक्षा के परीक्षा में नहीं बैठ पाया था। जाहिर है बारहवीं की पढ़ाई जारी रखने के लिए पुन: दाखिले की आवश्यकता थी। कॉलेज खुलने पर मैं प्रधानाचार्य महोदय से मिला। आदेश हुआ, तुम्हें क्या परेशानी है कल आ जाना, दाखिला हो जाएगा। मैं फिर अगले दिन आ गया, दाखिला नहीं हुआ। फिर अगले दिन कालेज आया तो प्रधानाचार्य महोदय ने बड़े ही सहज भाव में कहा कि बेटे! कालेज के हैडक्लर्क है ना बचेश्वर जी, उनका कहना है पिछ्ले वर्ष तुमने कालेज को कुछ आर्थिक हानि पहुँचाई थी। छात्रवृत्ति पाने वाले बच्चों में से किसी ने भी छात्रवृत्ति में से भवन-निर्माण हेतु वसूली जाने वाली राशि नहीं कटवाई। उन बच्चों का कहना है कि उन्होंने ऐसा तुम्हारे इशारे पर किया था। मैं गुमसुम यह सुनता गया। इसके अलावा कोई चारा भी न था। मुझे शांत देखकर प्रधानाचार्य महोदय बोले लेकिन तुम चिंता मत करो, तुम्हारा दाखिला तो होना ही है। ठीक है, देखते हैं, तुम कल आ जाना।
उनकी बात सुनकर उन्हें मैंने बताया कि मगर गुरूजी! मैंने तो वजीफा लेते समय दो रुपये महीने के हिसाब से बड़े बाबू को चन्दा देने की पेशकश की थी। यद्यपि मैं बीमारी की हालत में ही बैलगाड़ी में डालकर वजीफा लेने के लिए लाया गया था, उन्होंने ही वह राशि मुझसे नहीं ली। और मुँह बनाकर कहा कि जब किसी ने भी चन्दा नहीं दिया तो तुम ही क्यों देते हो। उन्होंने मेरी बात सुनी और कहा, कोई बात नहीं, अब घर जाओ, कल आ जाना। इसके बाद मैं अपने कलाध्यापक माननीय लोकमान्य शर्मा जी के पास कलाकक्ष में चला गया। उनके चरण स्पर्श किए, मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर बोले, क्यों क्या हुआ? मुँह क्यों लटका हुआ है? (गौरतलब है कि लोकमान्य शर्मा जी कुछ नाक से बोला करते थे।) बोले- दाखिला हुआ कि नहीं? मैंने सारी कहानी उनके हवाले कर दी। उन दिनों वे चीफ प्रोक्टर हुआ करते थे। सारी कहानी सुनकर बोले- अच्छा ऐसा है, तू अब घर जा, कल आना। मैं घर लौट गया।
बतादूँ कि कालेज और हमारे गाँव की दूरी बामुश्किल दो किलो मीस्टर होगी। अगले दिन सुबह ही कालेज का सफाई कर्मचारी ‘स्वामी’ हमारे घर आया..बोला – बड़े गुरुजी ने दाखिला देने के लिए बुलाया है कॉलेज, चलो। मैं उसका मुँह देखता रह गया, मुझे उसकी बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था। खैर! मैं उसके साथ ही कॉलेज को चल पड़ा, उसने रास्ते में बताया, तुझे पता है कल कालेज में क्या हुआ? हुआ यूँ कि कल लोकमान्य जी ने सभी दाखिलों पर रोक लगा दी और प्रिंसिपल साहब के कहने पर टीचर्स की एक बैठक बुलाई गई। मैं भी उस बैठक में चाय-पानी पिलाने के लिए हाजिर था, तेरे दाखिले की बात उठी तो लोकमान्य सर ने बचेश्वर सर से कहा कि वो तुझ पर लगाए गए इलजाम को लिखकर दें। बस! फिर क्या था, बचेश्वर सर से कुछ कहते नहीं बना, ना ही कुछ लिखकर देने को तैयार हुए। उलटे प्रिन्सिपल सर से माफी और माँगनी पड़ी। समझे आज तुम्हारा दाखिला हो जाएगा, ठीक है। और इस तरह मेरा बारहवीं कक्षा में पुन: दाखिला हो गया। शायद यथोक्त दो घटनाओं के कारण मेरे स्वभाव में संघर्ष की भावना ने घर कर लिया वह आज तक मेरे ज़हन में बरकरार है।
शिक्षक अभिनंदन समारोह
1969 में बारहवीं करने के बाद मैं 1969 में ही नौकरी की तलाश में मैं दिल्ली आ गया था। लेकिन मैं अपने अध्यापकों का सहयोग कभी भी भुला नहीं पाया था। मेरे मन में सदा ये भाव बना रहा कि एक न एक दिन मैं सामुहिक रूप से अपने अध्यापकों का स्वागत करने का प्रयास अवश्य करूंगा। आखिर वह दिन आ ही गया। आखिर में 25.02.1996 को “दृष्टिकोण”, “मानव सेवी संस्था:” तथा “स्टेट बैंक साहित्य मंच” के संयुक्त तत्वावधान में नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिठान में “शिक्षक अभिनंदन समारोह तथा ‘काव्य गोष्ठी” का आयोजन किया गया। जिसमें मेरे कालेज के निष्पक्ष भाव से कुशल अध्यापन करने वाले कुछ अध्यापकों/प्राचार्यों का सम्मान किया गया। समारोह में उपस्थित भारतीय स्टेट बैंक, स्थानीय प्रधान कार्यालय, नई दिल्ली के मंडल विकास अधिकारी व उपमहापबंधक श्री विष्णु मोटवानी तथा बैंक के ही दिल्ली आंचलिक कार्यालय के उप-महाप्रबंधक श्री. ए. पी. एन. पंकज ने स्वतंत्र भारत इंटर कालेज, भवन बहादर नगर (बुलन्दशहर) के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य श्री मूल चंद चौहान तथा सेवानिवृत्त प्राध्यापक (उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित) आदर्श एवं मूल्यों सर्वश्री लोकमान्य शर्मा, सालिग्राम शर्मा तथा दिल्ली के के. बी. सक्सेना और रामभज का शाल तथा पुष्प भेंट करके उनके उत्तम शैक्षणिक एवं सामाजिक हित में रचनात्मक सहयोग के लिये सम्मानित किया गया। इस अवसर पर कालेज के संस्थापक एवं सेवानिवृत प्रधानाचार्य श्री रामाश्रय शर्मा को विशेष रूप से याद किया गया। गौरतलब है कि वे रुग्णावस्या के कारण समारोह में उपस्थित न हो सके। आदर्श एवं कालिज के कुशल संचलन व मानवीय मूल्यों की रक्षार्थ उन्हें 1975 में राष्ट्रपति अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। इस समारोह के पीछ मुख्यतः दृष्टिकोण तथा स्टेट बैंक साहित्य मंच के संयोजक/ अध्यक्ष श्री टी. पी. सिंह की व्यक्तिगत आस्था ही परिलक्षित हुई।
समारोह समता, बंधुता तथा मैत्री का एक स्मर्णीय मिसाल था। यूं समारोह से प्रभावित हो सबको अपना विद्यार्थी काल याद हो आया किन्तु विशिष्ट अतिथि श्री मोटवानी इतने भाव विभोर हो गये कि उन्हें अपना विद्यार्थी काल याद हो आया और सम्मानित अध्यापकों के सामने सहज भाव से नतमस्तक हो गए। श्री पंकज ने समारोह की भूरि-भूरि प्रशंसा की और दुख व्यक्त किया कि आज का युग उपभोक्तावादी हो गया है। नैतिक मूल्यों की रक्षार्थ इससे उबरना होगा। समारोह में जाने-माने कथाकार और पत्रकार श्री मोहनदास नैमिशराय ने भी भाग लिया। दूसरे चरण में कविता-पाठ किया गया जिसमें सर्वश्री श्याम लाल शमी, डा. कुसुम वियोगी, सत्यपाल चावला, अजय शर्मा , डा. रमेश कपूर, अखिलेश उनियाल, हर्ष महाजन, मीना शर्मा, राजपाल सिंह ‘राज’, एल. एन. सुधाकर आदि कई कवियों ने कविता पाठ किया। श्री पंकज के मधुर गीत से सभी झूम उठे। मंच का कुशल संचालन वरिष्ठ शिक्षाविद् श्री के. एल. बालू ने किया। समारोह प्रत्येक दृष्टि से सफल रहा।
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं