गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-7
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की सातवीं किश्त है।
नौकरी के लिए संघर्ष
जैसा कि यहाँ ऊपर बताया जा चुका है कि नौकरी तलाश में तो मैं दसवीं पास करने बाद से लग गया किंतु किसी न किसी वजह से बात नहीं बनी और नौकरी की तलाश करते-करते बारहवीं पास करने के बाद सितंबर 1969 में, नौकरी की तलाश में मैं फिर जीजा जी के पास उनके गांव धमैड़ा कीरत (बुलंदशहर) गया। वैसे भी गर्मियों की छुट्टियां मैं अपनी बड़ी बहन के पास ही बिताता था। जीजा जी ने नौकरी के बारे में न तो कोई बात की और न ही मेरे पाँच सौ रुपए लौटाए। हां! इतना काम जरूर किया कि मुझे उन्होंने अपने बचपन के दोस्त “रामभज” के साथ दिल्ली भेज दिया। रामभज जी दिल्ली के इरविन अस्पताल में मैडीकल स्टोर कीपर थे। मेरे पास कपड़ों के नाम पर एक कमीज, एक पाजामा, एक शोलापुरी हल्की सी चादर और किर्मिच वाले कपड़े के जूते भर ही थे। दिल्ली आने का बस किराया भी रामभज जी ने ही दिया था।
दिल्ली में हम करोल बाग की टेंक रोड पर एक छोटे से घर में रहते थे। उसमें दो ही कमरे थे । एक कमरा किराये पर दिया हुआ था। और एक कमरे में हम दोनों रहा करते थे। घर में बाथरूम व पाखाना तक नहीं थे । उस समय संतनगर की पहाड़ियां खाली पड़ी थीं, उस इलाके के ज्यादातर नर-नारी शौंच करने जाया करते थे। आज तो संत नगर में बहुमंजिला मकान बने हुए हैं।
जब खाना बनाने की समस्या का सामना करना पड़ा तो….
टेंक रोड पर लगभग आमजन ही रहते थे। सो तब दिल्ली के इस क्षेत्र में अक्सर मध्यम तबके के लोग खाना बनाने के लिए कोयले की अंगीठी का प्रयोग किया करते थे। अब मेरे सामने सबसे बड़ा संकट ये था कि न तो मुझे अंगीठी लगानी आती थी और न ही खाना बनाना। खैर! धीरे-धीरे ये सब काम सीख लिए। हर शनीवार को रामभज जी गाँव चले जाते थे, इतवार की छुट्टी के बाद सोमवार को सीधे अपने आफिस ही चले आते थे। वो इर्विन होस्पीटल में मेडीकल स्टोर कीपर थे। ऐसे में इतवार और सोमवार को अकेले के लिए खाना बनाना कुछ-कुछ भारी काम लगना स्वाभाविक ही था। बस! रामजीलाल छोले वाले से दस पैसे के छोले लेना और तंदूर की चार रोटी लेकर पेट-पूजा कर लेता था।
जब “ओनिलको कैमिस्ट” के यहाँ दो रु. रोजाना की नौकरी की तो….
यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि 1969 में बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करके जब मैं दिल्ली आया तो दिल्ली में रुके रहने और नौकरी की तलाश में बने रहने के लिए मुझे रामभज जी ने गोल मार्किट की बेयर्ड रोड पर स्थित “ओनिलको कैमिस्ट” नामक एक दुकान पर केवल दो रुपए रोज के वेतन पर कार्य दिला दिया था। रविवार के पैसे कटते थे। यहाँ काम करते हुए दो-तीन ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ा जो मुझे आर्थिक मजबूरी का एहसास कराने के लिए काफी थीं।
- यूं तो दुकान मालिक बहुत ही मृदु स्वभाव के थे, किंतु थे बहुत ही चालाक। दवाई वितरण के अलावा बैंक में जमा कराना जैसे काम भी मैं ही किया करता था। एक दिन ऐसा हुआ कि उन्होंने 1000 रुपए देकर मुझे बैंक में जमा करने के लिए भेजा। मैंने दुकान पर रुपये गिने तो 1100 निकले किंतु मैं अपने को भ्रम में पाकर बैंक में पैसे जमा कराने चला गया। किंतु मेरे मन में संश्य बना रहा कि पैसे हैं कितने। बैक में एक बार पैसों को फिर गिना तो 1100 ही पाया। खैर! मैं बैंक में 1000 रुपए जमा करके दुकान पर आया तो दुकान मालिक को 100 रुपए वापिस कर कहा कि सर आपने 100 ज्यादा दे दिए थे। उन्होंने इस बात से मना किया और कहा कि तुझ से ही गिनती में गलती हो गई होगी। मैंने कहा कि सर मेरी बात छोड़िए क्या बैंक वालों भी गिनने में गलती कर दी होगी। जब कहीं जाकर उन्होंने वो 100 रुपए वापिस लिए और मुस्कराकर मेरे कंधे प्यार से एक हाथ जड़ा। खैर! हर किसी का किसी की ईमानदारी को परखने का एक तरीका होता है। यह कोई बड़ी बात न थी।
- दुकान पर काम करते हुए दुकान मालिक रोजाना सांझ को घर आते समय मुझे कुछ पैसे दिया करते थे जिनका भुगतान मुझे अगले दिन कुछ दवा विक्रेताओं को करने के बाद दुकान पर आना होता था। इसकी भनक उस आदमी को लग गई जिसके माध्यम से मुझे दुकान पर काम दिलाया गया था। उनका नाम था बाबूराम…. उन्हें रोजाना शराब पीने का मर्ज था। एक दिन बाबूराम जी सांझ के समय हमारे कमरे पर आए और देवनगर की किसी गली से, जहाँ दो नम्बरी शराब का धंधा चलता होगा, शराब लाने के लिए कहा। जब मैंने उनसे पैसे मांगे तो कहा कि तू अपने पास से ले आ। मैंने पैसे न होने की बात कही तो वो नाराज होकर बोले – तुझे रोज दुकान से जो पैसे मिलते हैं, उनमें से ले आ। मैंने फिर मना कर दिया कि वो पैसे मेरे थोड़े ही हैं। सुबह को दुकान जाते समय मुझे उनका लोगों को भुगतान करना होता है। उन पैसों में से मैं कुछ भी खर्च नहीं कर सकता। इस पर वो नाराज हो गए और बोले भूल गया कि उस दुकान पर तेरी नौकरी मैंने ही लगवाई थी। इतना कहकर वो मुंह बनाकर बड़ी तेजी से बाहर चले गए। उस दिन मुझे लगा कि किसी के एहसान की कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी ही होती है।
- एक दिन यूँ हुआ कि अचानक तेज आँधी के साथ बरसात आ गई। हालाँकि दुकान मालिक बहुत ही जौली और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। अपने कर्मचारियों से बड़े ही मृदु भाव से बात किया करते थे…किंतु उस दिन उनकी चेहेरे से सादगी और सरल स्वभाव की ऐसी पोल खुली कि मैं मुँह बाए उन्हें देखता ही रह गया। गर्मियों के दिन थे, उनका परिवार अक्सर मकान की छत पर सोया करते थे और सुबह को ओढ़ने-बिछाने के कपड़ों को छत पर छोड़कर नीचे मकान में आ जाया करते थे। बारिश आने पर अब क्या किया जाए…? उस दिन उन्होंने बड़े ही बेहूदगी से मुझसे छत से कपड़े उतारने के लिए कहा। उनके बोलने का सलीका उस दिन मुझे बहुत ही खला। कुछ देर को तो मैं जैसे शून्यता में चला गया और उनका मुंह देखता रहा। और वो मेरा मुंह देखते रहे। उन्होंने फिर से अपना पहले वाला अंदाज दोहराया। अब मुझसे चुप नहीं रहा गया और मेंने उनसे तल्खी के साथ कहा,” सर! एक बात कहूँ कि मेरा आर्थिक स्तर जरूर कमतर है किंतु मानसिक स्तर इतना कमतर नहीं कि मैं अपने आत्मसम्मान को भूल जाऊं। अब आप अपनी नौकरी को रखिए और मैं अपने घर चला।“ इस तरह मैंने वो दो रुपए रोज की नौकर छोड़दी और समय से पूर्व ही घर पर आ गया। जीजा जी ने घर पर आने पर मुझसे जल्दी आने का कारण पूछा तो मैंने सारा वाकया उन्हें सुना दिया। ….मेरी बात सुनकर उन्होंने आव देखा न ताव तड़ाक से मेरे गाल पर एक चांटा रसीद कर दिया और कहा कि बहुत ही बड़ा बनता है….अपनी मजबूरी भी देखनी भी होती है। खैर! मैं चुपचाप सब सह गया। इसके अलावा मेरे पास कोई चारा भी न था।
एक दरवाजा बंद हुआ तो दूसरा खुला…
नौकरी छोड़ने के अगले ही दिन का किस्सा है। जीजा जी (रामभज जी) तो नाराज होकर अपने आफिस चले गए और मैं उनके जाने बाद मन में भविष्य के प्रति निराशा लिए करोल बाग की पदम सिंह रोड पर अवस्थित अमरनाथ कैमिस्ट नामक दुकान पर चला गया। दुकान के मालिक का नाम भी अमरनाथ ही था। उनके यहाँ मैं पहले भी, कभी दवाईयां देने तो कभी लेने, आया-जाया करता था। मैं दुकान के बाहरी काउंटर पर खड़ा हो गया। चेहरा तो कुछ-कुछ उतरा हुआ था ही। अमरनाथ जी अचानक .पूछ बैठे, ” क्यों आज काम पर नहीं गया ? ” मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से बता दिया कि मैंने वहाँ से नौकरी छोड़ दी है। मेरा इतना कहना था कि अमरनाथ जी बोले,” फिर बाहर क्यों खड़ा है, अंदर आ और काउंटर संभाल।” पहले तो मैं कुछ सहमा कि कहीं वो मजाक तो नहीं कर रहे हैं। अमरनाथ जी फिर मुझे अपनी बात दोहराई और कहा कि आज से तू हमारे यहाँ काम करेगा और तुझे महीने के 125 रुपये मिलेंगे। मुझे मन ही मन खुशी हुई कि 60 रुपए की नौकरी के बदले 125 रुपए मिलेंगे तो ठीक। अब मेरे मन में नौकरी छोड़ने का दुसाहस करने का कोई मलाल नहीं था। मैं उस दिन से अमरनाथ जी के यहाँ काम करने लगा। सांझ को घर जाकर मैंने ये कहानी रामभज जी को बताई तो उन्होंने दबे स्वर में महज इतना कहा, ” ठीक है।” वैसे रामभज जी मुझे बेटे जैसा ट्रीटमेंट देते थे। इस प्रकार फिर मेरी गाड़ी पटरी पर आ गई। और मैं सरकारी नौकरी के लिए निरंतर प्रयास भी करता रहा।
कहानी दिल्ली ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग (डी.टी.यू.) में संवाहक बनने की…
1970 में डी.टी.यू. (दिल्ली ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग) में कंडेक्टर (संवाहक) पद की नौकरियों के लिए कुछ रिक्तियों का अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। दिल्ली ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग को आजकल दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन के नाम से जाना जाता है। मैंने भी वो विज्ञापन पढ़ा और उसे अनदेखा कर दिया क्योंकि मेरा मन कंडेक्टर बनने का मन कतई नहीं था। ,लेकिन जीजा जी (रामभज जी) ने वो विज्ञापन देख लिया और मुझे दैनिक दिहाड़ी वाली कंडेकटर की नौकरी के मुझसे फार्म भरवा दिया । मैं उन्हें ना नहीं कह पाया क्योंकि वो ही मुझे दिल्ली लाने वाले थे और अपने साथ ही रखते थे। खैर! कंडेक्टर की नौकरी के लिए लिखित परीक्षा दी और मैं परीक्षा में अच्चे अंकों से सफल हो गया। अब फिजीकल/शारीरिक जांच का समय था। बतादूं की रामभज जी मुझे कंडेक्टर बनाने के लिए इतने उत्सुक थे कि फिजीकल की जांच कराने के लिए मेरे साथ आई. पी. एस्टेट स्थित डी. टी. यू. के हेड आफिस गए। मैं जांच के लिए निर्धारित पंक्ति में लग गया और रामभज जी एक पार्क में जाकर बैठ गए। मेरी फिजीकल जांच में समय लग गया। उधर रामभज जी को बुखार आ गया किंतु फिर भी वो जांच के होने तक वहां ही जमे रहे। जांच का रिजल्ट आया तो मुझे उसमें असफल पाया गया और मैं मैं दिल्ली ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग (डी.टी.यू.) में दैनिक दिहाड़ी पर संवाहक के पद के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया। मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। उसके दो कारण थे एक- वहां दैनिक दिहाड़ी केवल चार रुपए रोज मिलने थे, उसपर यह भी जरूरी नहीं था कि काम रोज मिल ही जाए; दो- इस नौकरी को करने का मेरा मन नहीं था; तीन – मैं उन दिनों 125 रुपए माह की नौकरी कर ही रहा था। लेकिन रामभज जी को इसपर बड़ा ही अफसोस हुआ। किंतु कुछ समय बाद डी टी यू ने फिजीकल/शारीरिक जांच का क्लाज कंडेक्टर की अहर्ता से हटा दिया गया और कुछ ही दिनों में मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया।
जब डी टी यू में कंडेक्टर की नौकरी के लिए Security money जमा करने का मसला उठा तो…
यहाँ उल्लेखनीय है कि कंडेक्टर की नौकरी जाइन करने से पूर्व 400/500 की Security money जमा करनी होती थी। शनीवार को नियुक्ति पत्र मिला और दो-तीन दिन के बीच जाइन करना था। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे। रामभज जी शनीवार को गाँव चले जाते थे और सोमवार को गाँव से सीधे अपने आफिस चले जाते थे। अब अपने बल पर पैसों का जुगाड करना था। खैर! सोमवार को मैं उस दुकान .पर चला गया जहाँ मैं 125 रुपए माह के वेतन पर काम करता था। मेरे चेहरे पर कुछ उदासी देखकर दुकान मालिक अमरनाथ जी मुझसे इस उदासीनता का कारण पूछा तो मैंने डी टी यू में Security money जमा करने के लिए पैसों की किल्लत का मसला उनसे कह सुनाया। मेरी व्यथा-कथा सुनकर अमरनाथ जी बोले, “बस! इतनी सी बात।“ उन्होंने वांछित धनराशि जेब से निकाली और बोले – ले ये पैसे ले और जा सिक्यूरिटी जमा करके नौकरी जाइन करले। मुझे तो दुकन के लि और कोई और बच्चा मिल जाएगा। मैं पहले तो कुछ सहमा किंतु बाद में पैसे लिए और सिक्यूरिटी जमा करने चला गया। और इस प्रकार मैं अंतत: सन 1971 में मैं दिल्ली ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग (डी.टी.यू.) में दैनिक दिहाड़ी पर संवाहक के पद पर नियुक्त हुआ। वह भी केवल चार रुपए रोजाना। कभी काम मिलता, कभी नहीं। बस इसी तरह नौकरी चलती रही।
जब कंडेक्टर की नौकरी स्थाई हुई तो …..
मुझे यह बताने में कोई झिझक नहीं है कि अस्थाई कंडेक्टर्स को दैनिक दिहाड़ी मिलने के इंतजार में ऐसे लाइन में लगे होते थे जैसे कि किसी मंदिर के सामने भगवान के भक्तों की। उस पर भी कभी नौकरी मिली, कभी मिली भी नहीं। खैर! लगभग 6/7 महीने के बाद जब मेरी नौकरी को स्थाई स्वरूप मिला तो दैनिक दिहाड़ी देने वाले लिपिकों ने मुझपर पार्टी देने का जैसे दवाब बनाया। जैसे-जैसे वो पार्टी देने की आवाज उठाते तो मैं होठों-होठों में मुस्करा कर रहता… मगर मैंने उन्हें कोई पार्टी नहीं दी। कारण कि दैनिक ड्यूटी देते समय उन लोगों का इतना अभद्र व्यावहार होता था कि उसको शब्दों में बयान करना मुझे तो न तो अच्छा लग रहा है और न ही जरूरी। अंतत: धीरे-धीरे पार्टी मांगने का मसला टल ही गया। और जब से नौकरी बिना किसी झंझट के चलता रहा। अब मेरे सामने केडेक्टर की नौकरी को छोड़कर कोई और सरकारी नौकरी तलाश करने का मसला था। ज्ञात हो कि रुटीन की नौकरी सुबह-शाम की दो पालियों में हुआ करती थी। इस हाल में मुझे पढ़ाई करने का कोई समय मिल ही नहीं पाता था। मैं इसी ऊहंपोह में लगा रहता था कि पढ़ने का समय कैसे निकाला जाय।
जब एक ऐसी ड्यूटी मिली कि पढ़ने का मौका मिल ही गया तो…
कहा जाता है कि Where there is will, there is way…। मुझे पता चला कि सिंधिया हाउस आपिस से ही एक ऐसी जीप ड्यूटी होती थी जिसे स्टाफ बसों की चैंकिग करनी होती थी। उस जीप पर दो निरीक्षक और एक कंडेक्टर तैनात होते थे। जो प्रतिदिन भौर में चार बजे शुरू होतीं थी और सुबह के दस बजे खत्म हो जाती थी। अक्सर ही कोई कंडेक्टर उस ड्यूटी को करना चाहता था। आफिस को किसी ऐसे कंडेक्टर की तलाश थी जो उस ड्यूटी को स्वेच्छा से कर सके। आख़िर मैंने उस ड्यूटी को करने को प्रमुखता दी। रोज प्रात: चार बजे नौकरी शुरू होती और सुबह के दस बजे ही समाप्त हो जाती थी।
इस प्रकार दस बजे के बाद मेरे पास कोई काम नहीं होता था यानी रात को काम करता तो दिन खाली। इस खाली समय की भरपाई के लिए मैंने टेंक रोड क्षेत्र के पार्षद माननीय बाबूलाल केलकर के माध्य्म से ईस्ट पटेल नगर स्थित “ दिल्ली पब्लिक लायबरेरी” की सदस्यता हासिल करली। तब मैं नित्य 12 बजे पुस्तकालय जाता और साहित्य की विभिन्न विधाओं पुस्तकें लगभग दो घंटे पढ़ने के बाद अपने कमरे पर आ जाता था।
इसी दौरान शाम कोआन बचे समय की उपयोग करने के लिए मेने करोल बाग, अजमल खाँ पार्क के साथ वाली रोड पर एस सी/ एस टी के उन बच्चों के लिए, जो नौकरियों की तलाश करते में लगे होते थे, एक सरकारी फ्री कोचिंग सेंटर था जिसमें मैंने भी कोचिंग करने के लिए दाखिला ले लिया। और फिर यह सिलसिला निर्बाध गति से चलता रहा।
जब रोजगार द़फ्तर के माध्यम से ई. पी. एफ. सी. (भारत सरकार) के आफिस में लिपिक पद की नौकरी मिली तो….
याद आ रहा है कि मैंने डी. टी. यू. में नौकरी करते हुए रोजगार दफ्तर, दरिया गंज में अपना नाम दर्ज करा दिया था। तो जब मैं नौकरी पाने के लिए कोचिंग कर रहा था तो रोजगार दफ्तर से कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार) में लिपिक पद की नौकरी के लिए एक काल लैटर आया। जिसके लिए लिखित परीक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी टाइपिंग का टेस्ट भी होना था। लेकिन मुझे केवल हिंदी टाइपिंग ही आती थी। फिर भी मैंने लिखित परीक्षा में बैठने का निर्णय लिया और परीक्षा वाले दिन कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार) के दफ्तर में लिखित परीक्षा देने पहुँच गया। वहाँ के हैड क्लर्क शैक्षणिक योग्यता के कागज चैक कर रहे थे। स्वभाव से भले लग रहे थे। कागज चैक करते समय उन्होंने मेरी ओर जैसे उत्सुकता से देखा। इसी बीच मैंनै हैड क्लर्क को बताया कि सर! मुझे हिंदी टाइपिंग आती है, अंग्रेजी टाइपिंग नहीं …. । उन्होंने कहा कोई बता नहीं…परीक्षा में बैठो और परीक्षा के बाद मुझसे मिलना।
और भी अच्छा यह हुआ कि मुझे फैमिली पेंशन विभाग में तैनात किया गया। विदित हो कि निजी कार्योलयों में कार्यरत कर्मचारियों को यह सुविधा भी उसी वर्ष लागू हुई थी। हमारे विभाग के हैड क्लर्क माननीय सूद साहेब बड़े ही मस्तमौला और मृदु स्वभाव के थे। लगभग एक/दो मेरा काम देखकर वो स्वतंत्र हो गए और सारा काम मेरी ही जिम्मेदारी पर छोड़ दिया। हमारे इस विभाग में दो-तीन नई-नवेली महिलाएं भी तैनात थीं। हमारा कमरा आफिस की छत पर था। उन लड़कियों को थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ न कुछ खाते रहने की आदत थी। कुछ ही दिनों में हम इतने घुलमिल गए कि वो मुझे भी अपने खाने-पीने में शामिल करने लगीं। मैं इसमें कुछ सहमता भी था क्योंकि उस विभाग में मैं अकेला ही पुरुष कर्मचारी था। उल्लेखनीय है कि समूचे भारत का पहला फैमिली पेंशन का केस मेरे द्वारा ही सैटल किया गया था, वह भी बिना किसी संशोधन के।
जब ई. पी. एफ. सी. (भारत सरकार) के आफिस से मन उछ्टा तो…
यहाँ नौकरी करते हुए अभी लगभग एक वर्ष ही हुआ होगा कि एक ऐसी घटना मेरे सामने आई जिससे मेरे भीतर का मानव ग्लानी से भर गया। हुआ यूँ कि एक दिन एक आदमी यह पूछते-पूछते कि कोई इस आफिस में बुलंदशहर जिले का आदमी काम करता है, मेरे पास आ पहुँचा। दुआ-सलाम हुई। मैंने उसके लिए चाय-पानी का इंतजाम किया और अपने पास उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने बताया – सारी खानापूरी करने के बाद भी 6/7 महीने से उनकी भविष्य निधि का सैटेलमेंट नहीं हो पाया है। और 15/20 दिन बाद उनकी बेटी की शादी होने वाली है। अपनी कहानी बताते-बतातें उनकी आँखें नम हो आई थी। कारण पूछा तो पता चला कि सेवा-शुल्क न देने की बजह से उन्हें मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। अब तक मैं उस कार्यालय की ऐसी गतिविधियों से वाकिफ नहीं हो पाया था। खैर! मैं संबंधित कर्मचारी से मिला और उनका केस एक ही दिन में बिना किसी सेवा-शुलक के सैटल करवा दिया लेकिन मैं अंदर तक हिल गया कि सारी उम्र नौकरी करने के बाद भी अपना ही पैसा लेने के लिए इतना अमानवीय कृत्य झेलना पड़ता है। इस घटना कई बाद मेरा मन ऐसा उछ्टा कीं मैंने मन ही मन कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार) के आफिस से नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया और फिर से कोई और नौकरी की तलाश में लग गया।
क्रमश: ….
वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।