गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-16

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-16

बकौल अमृता प्रीतम, “अपने-अपने भीतर का सच तो अपने-अपने भीतर से पाना होता है और वह सच शब्दों में नहीं उभरता/उतरता, अनुभव से उतरता है।इस माने में, मेरे शब्द-चित्रोंमें स्वप्न के माध्यम से, मन के भाव सामने आए हैं, जो विशुद्ध रूप से ज़मीनी हैं। एक-दो घटनाओं को छोड़कर सभी घटनाएं, मेरे स्वप्न में उभरी सत्य कथाएं हैं; इसके अलावा और कुछ नहीं। पाठक इनमें अलग-अलग तरह से अर्थ तलाश सकते हैं और स्वभावतः तलाशने भी चाहिएं। किन्तु ऐसा करते समय मानवीय धरातल को सिरे से नकार देना, कदाचित तर्कसंगत नहीं होगा । हां! कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं, जो होने तक ही सीमित रह जाते हैं। किन्तु मैंने उन शब्दों को होठों तक सीमित नहीं जाना। उन शब्दों में जमीन को तलाशा है। भावना के कलेवर में ढाला है। तब ही तो मेरे  शब्द-चित्रहवा प्राप्त कर सके हैं।  कभी-कभी चीजों को समेटने की कोशिश में बहुत-सी चीजें खो जाती हैं। और इनकी खोज में, शेष चीजें भी जैसे बिखर – सी जाती हैं।

यह भी कि प्रत्येक मनुष्य स्वप्न देखता है… कुछ जागृत  तो कुछ सुषुप्त अवस्था में। उम्र भी इसमें बाधा नहीं बनती अर्थात सपनों पर उम्र का कोई भी प्रभाव  नहीं पड़ता… स्वरूप पर पड़ता है। सपने कम उम्र में भी आते हैं, बड़ी उम्र में भी। जाग़्रत अवस्था में अक्सर सपने बुने जाते हैं। सुषुप्त अवस्था में या यूँ कहें अचेतन अवस्था में सपनों का रूप/स्वरूप  जागृत अवस्था में बुने जाने वाले सपनों से नितांत अलग होते हैं….शायद समाज में सुषुप्त अवस्था में आने वाले सपने ही सही दायरे के सपने माने जाते हैं। किन्तु सपनों के संकेतों को समझना अहम बात होती है। मेरी समस्या भी यही रही है। सपनों के भाव कभी भी मुझे समझ नहीं आए। मेरे सपने ठीक वैसे ही हैं, जिनके संकेत मेरी पकड़ में नहीं आते/आए। वैसे भी मैं कोई पीर-फकीर नहीं, जो सपनों की ताबीर जान पाऊं। किंतु हमारी दैन्नदिनी कार्यकालापों और मानसिक अवस्था पर आधारित जैसे लगते हैं। फिर यह भी कि  मेरे सपने वस्तुतः ऐसे दौर के सपने हैं  जिसमें प्रत्येक जगह खून के छींटे ही देखने को मिलते हैं।  शायद यही कारण है कि मेरे सपनों में हास और उजास  नहीं नहीं उभरा। जबकि जरूरत तो हास-उजास की भी है।

ऐसे में यह विषय पाठकों के सोचने के लिए ही रह जाता है। एक बात और, हम-तुममें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सपने न देखता हो। किन्तु ज्यादातर लोग सपनों के अर्थ तलाशते-तलाशते सपनों को ही भूल जाते हैं। लेकिन मैंने इन्हें कागज़ पर उतार दिया है। शायद मन में एक डर था कि कहीं ये खो ही न जाएं। इच्छाएं और आवश्यकताएं दो अलग-अलग तथ्य हैं। दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है। न कभी होगा। इच्छाएं और आवश्यकताएं चेतन/अचेतन दशा को दर्शाती हैं। सुना है कि अक्सर सपनों में दिशा-संकेत होता है । किन्तु मेरे सपनों में खोज का भाव ज्यादा रहा है। पता नहीं क्यूं ? सपने आकाश और पाताल की सीमा से परे होते हैं। मेरे भी हैं। किन्तु ये जमीन को छूते नज़र आते हैं। मैं बहुत-बार टूटा हूं और संभला भी। फिर भी मेरे सपनों ने मुझे कभी भी, किसी डगर पर, अपने से अलग नहीं किया। सच कहूं तो मेरे शब्द चित्र मेरी दैनिक वास्तविक  दिनचर्या  और उसी दिन के सुषुप्त अवस्था आए सपनों का संगम हैं। बतादूं मेरे ये शब्द चित्र मेरे साहित्यिक-कबाड़ से शीलबोधि द्वारा निकाले गए हैं। उन्होंने ही इन्हें सजाने संवारने की हिम्मत जुटाई है। अन्यथा ये शब्द-चित्र एक न एक दिन दफ़्न हो रहते। उनमें सें एक-दो शब्द-चित्र  आपसे रूबरू हैं।

आज करवा चौथ है। हल्की-सी बारिश के बाद छुटपुट बादल अभी भी आकाश में घिरे हैं। हवा में कुछ ठंडक है। महिलाएं बादलों को देखकर कुछ व्याकुल-सी नजर आ रही हैं। बार-बार छत पर आ-जा रही हैं। शायद सोच रही हैं कि यदि बादल न छटे तो चांद को जल कैसे चढ़ाएंगी। कहीं चांद के दर्शन के बिना पति की लम्बी उम्र और सेहत की उनकी दुआ-अर्चना अधूरी न रह जाए। दरअसल आज करवा चौथ है। हवा में अचानक तेजी आ गई और रफ्ता-रफ्ता सारे बादल छंट गए। अब चंद्रमा निकल आया है। सो महिलाएं अपना व्रत खोलने में जुट गई हैं।

सजी-धजी औरतें बेशक आदर्श पत्नी का सच्चा रूप लग रही हैं। चंद्रमा की रोशनी भी धरती पर फैल गई है। हवा से ठंडक और बढ़ गई है। वैसे भी अक्तूबर का महीना है। रात तो अमूमन ठंडी हो ही जाती है। ठंड में चाय का असर भी ठंडा-सा पड़ने लगता है। फिर भी मैं रसोई में जाकर चाय बनाकर पी लेता हूं। घर में अकेला जो हूं। नींद का अभी अता-पता नहीं है। अब क्या करता? सिगरेट सुलगाकर टेलिविज़न देखने लगता हूं। आधा गाना ही देख-सुन पाया था कि चैनल बदल देता हूं। ‘आज तक’ चैनल पर समाचार आ रहे होते हैं। समाचार भी पूरे नहीं देख पाया कि नींद आने लगी। टेलिविज़न बंद किया और सो गया। सपने में देखता हूँ कि रात के धुंधलके में  चारों तरफ चहल-पहल है। बच्चे उछलने-कूदने में लगे हैं। शायद कहीं कोई उत्सव है। गाना-बजाना हो रहा है। अचानक भंयकर सन्नाटा छा जाता है। लोगों में अफरा-तफरी मच जाती है। सब अपने-अपने घरों में घुस जाते हैं। आज मैं घर पर अकेला हूँ सो छत पर घूम रहा हूँ। देखता हूं कि कुछ लोग सिर पर काली पट्टियां बांधे अजीबो-गरीब लोग में बस्ती में आ घुसते हैं। उनमें कुछ बच्चे-बच्चियां भी शामिल हैं। वे बस्ती वालों पर अचानक हमला बोल देते हैं। चार-चार, पांच-पांच लोगों की टोली घर-घर जाती और घर के मुखिया को बुलाती… उनके कपड़े उतारती… बेरहमी से उसके सीने पर क्रॉस जैसी कोई आकृति बनाती और हत्या कर देती। सन्नाटे को दंगाइयों की आवाज़ बराबर चीर रही थी। यह देख मैं इतना घबरा गया कि कुछ भी कहना-करना दूर की बात हो गई।

      लोग इतने डरे-सहमें हैं कि कुछ करना तो दूर, घर से बाहर आने का साहस भी नहीं पाते हैं। चांद निकल आता है। धरती पर चांदनी उतर आती है। हत्यारे अब किसी दानव की परछाईं-सी दिखने लगते हैं। लोग रात होने का लाभ उठाना चाहते हैं। भाग जाना या घर में छुपने का यत्न करना चाहते हैं। पर चांद की स्वच्छ चांदनी ऐसा कुछ भी नहीं करने देती। यदि कोई घर से बाहर निकलता भी तो हमलावर उसे घेर लेते। कुछ कहते-ना-सुनते । बस! चाकू-छुरी चलती और काम खत्म। हमलावर खुलकर हिंसा पर उतारू हैं। नेता-अभिनेता सब नदारद। किसी को भी जनता की चिंता नहीं। चौकीदार गायब। पुलिस थानों, चौकियों में टेलिफोन की घंटियां तो बजतीं, पर उठाता कोई नहीं।

     हमलावर मौका देखकर फिर आ धमकते हैं। चारों तरफ फिर हाहाकार मच जाता है। पुरुष अपने-अपने घरों की ओर दौड़ने लगते हैं। पर हैरत कि औरतें अपने मर्दों यानी पतियों को घर के अन्दर नहीं घुसने देतीं। कुछ कहती सुनी गईं कि क्या तेरे अकेले के लिए अपने बेटे-बेटियों को मरवा दूं…चल बाहर। कुछ ने अपने-अपने मर्दों को छुपाने का असफल प्रयास भी किया। किन्तु एकदम हताश और निसहाय लोग, एक खाली पड़े मकान में घुस जाते हैं। मैं भी उनमें शामिल हो जाता हूं। कमरे में एक दीवान और कुछ टूटी-फूटी कुर्सियां पड़ी होती हैं।

प्रायः लोग अपनी आंख बंदकर दीवान व कुर्सियों पर बैठकर दरवाजा बंद कर लेते हैं। कुछ खड़े भी होते हैं और एक दूसरे का मुंह ताक रहे होते हैं। सबके चेहरे पर मौत का खौफ स्पष्ट झलक रहा था। कुछेक क्षण ही गुजरे होंगे कि हमलावर दरवाजा तोड़कर कमरे में घुस आते हैं। उनके हाथों में धारदार खंजर लगे हैं। उनमें से एक चीखकर हमें हाथ ऊपर करने को कहता है। अन्य हमलावर हमारी जेबों की तलाशी लेने लगते हैं। जिसकी जेब में जो मिलता, उसको देखते और एक कोने में फेंक देते। पैसे तक नहीं लिए उन्होंने। मेरी और मेरे एक अन्य मित्र की जेब में पाए  ‘प्रेस’ लिखे पहचान पत्रों को वे अपने मुखिया को दिखाते हैं। मुखिया हमारी ओर खारिश भरी नजरों से देखता है और आंख तरेड़ कर हम दोनों को उंगली का इशारा कर कमरे से बाहर चले जाने को कहता है। हम दोनों अपने-अपने घर की ओर बढ़ते हैं। घबराहट में हम अपना घर नहीं ढूढ़ पाते हैं। मुड़कर देखा तो मेरा दूसरा साथी गायब होता है।

मैं अपने को अकेला पा और घबरा जाता हूं। मुड़कर उस कमरे की ओर देखा तो अन्य लोगों को एक-एक कर बाहर निकालते और काम तमाम कर देते। मैं डरकर दौड़ना चाहता हूं। पर सब बेकार…मैं दौड़ ही नहीं पाता। लगा, कोई मुझे पीछे की ओर खींच रहा है। आकाश में सहसा बादल उमड़ आते हैं और हल्के से बरस पड़ते हैं। पानी की छुअन से लाशों से सहसा सडांध आने लगती है। हमलावर उनपर से ऐसे गुजरते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जैसे ही बारिश बंद होती है। हमलावर अपना काम कर लापता हो जाते हैं। अब लोग-लुगाई-बच्चे घरों से बाहर आ जाते हैं। औरतें अपने-अपने मर्दों की लाश तलाशने लगती हैं। सब-की-सब रो-पीट रहीं हैं। कुछ ने अपने हाथों की चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं। वे रोते-रोते चीखने-चिल्लाने लगती हैं कि अब वे किसके सहारे जिएंगी। कैसे पलेंगे अब उनके बाल-बच्चे।

     रोना-पीटना चलता ही होता है कि देखते ही देखते पुलिस की गाड़ियां सायरन बजाती हुई बस्ती में आ जाती हैं। बस्ती मिनटों में ही छावनी बन जाती है। पुलिस जनता से पूछताछ करती है। पर जनता मौन प्रायः पुलिस की ओर देखती रहती है। उनकी आंखों में पुलिस के खिलाफ भी रोष भरा होता है। थोड़ी देर में पुलिस के बड़े अफसर भी आ जाते हैं। पुलिस के जवान उनको सलाम मारने में जुट जाते हैं। पुलिस लाशों को अपनी गाड़ियों में लादकर अपने साथ ले जाती है।… न जाने कहाँ ।

     पुलिस की गाड़ियों के सायरनों की कर्कश और तेज आवाज़ से सहसा मेरा सपना टूट जाता है। घबराहट से उबर आने को मैं किसी को जगाने का प्रयास करता हूं। मेरी सांसे उखड़ रही होती हैं। मैं इतना भी भूल जाता हूं कि घर पर मैं अकेला ही हूं। रात के करीब तीन बज चुके होते हैं। मैं बिस्तर छोड़कर छत पर जाकर घूमने-फिरने लगता हूं। डर और चिंता अभी भी मुझे घेरे होती है। सच्चाई क्या है, क्या नहीं, आज भी ये प्रबल सवाल मुझे घेरे हुए है।

उस समय की बात है, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। मई का महीना था। भोर के लगभग तीन बजे होंगे। मेरा एक करीबी मित्र फटीं-फटीं। होश नाम की कोई चीज तो थी ही नहीं। अंदर आते हो उखड़ी-उखड़ीआखें , माथे पर पसीना ही पसीना, बाल बिखरे-बिखरे,  वो चुपचाप सोफे पर पसर गया। आखिर मैंने ही पूछा, “अमां यार! हुआ क्या है? कुछ बोलते क्यों नहीं?” वह फिर भी नहीं बोला। इस पर मैंने चुटको लो, “क्या भाभी ने घर से बाहर कर दिया है? कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर की होगी तूने ।” वह फिर भी कुछ नहीं बोला। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा, “यदि कुछ कहना-सुनना ही नहीं था तो मेरी नींद क्यों खराब की?” इस पर वो बोल ही उठा। कहा, “बात कुछ ऐसी है जो न मेरी है, न तेरी भाभी की। नितान्त असत्य है। पर पता नहीं क्यों सत्य-सी लगती है। समझ नहीं आता, क्या करूं । अब पत्नी भी तो मेरे साथ नहीं है। सपने की कहानी को सत्य मान बैठी है। फाड़-खाने को आती है। तू तो जानता है कि मैं उसे कितना प्यार करता हूं। ऐसा भी नहीं कि मैं यहां-वहां मुंह मारता फिरता हूं।” शर्मा जी बोले चले जा रहे थे। पर मैं कुछ नहीं समझ पाया। आखिर मैं पूछ ही बैठा, “यार कुछ हुआ भी है या यूं ही गाजरों में गुठली मिलाता रहेगा? कुछ बताना है तो बता वर्ना चलता बन । न सोया न सोने दिया। साला! चला आया मुंह बनाकर।” इतना सुन शर्मा जी जैसे बर्फ सरीखे पिघल गए। आंखों में पानी भर आया। यह देख मैं स्वयं भी पसीज गया। रसोई में गया, चाय बनाई मिल बैठकर चाय पी।

चाय पीते हुए शर्मा जी बोले, “तू कहानी जानना चाहता है तो सुन, आज जब घर आया तो देखा कि बिजली गुल थी। गर्मी तो शुरू हो ही गई है। मेरा कमरा भी छोटा है। आंगन तो है ही नहीं। बच्चों की परेशानी मुझसे देखी नहीं गई पत्नी से परामर्श किया और एक बड़ा सा हवादार मकान,बिल्कुल पास किराये पर ले लिया। आज पहला ही दिन था मैं खाना खाकर ऐसा सोया कि सपनों में खो गया सपना इतना भयंकर था कि मैं झेल नहीं पाया। पत्नी को भी बताने का साहस नहीं जुटा पाया।

 सपना कुछ यू था-सूरज अपने यौवन पर था। अच्छा-खासा मौसम था। न हवा थी न धूल। मेरा मन हुआ कि दाढ़ी ही बनवा लूं। घर के पास ही खाली पड़े प्लाट के सामने वाली गली में एक नाई, मेज लगाए बैठा था। दीवार पर शीशा टंगा था। उसके पास कई बूढ़े और जवान खड़े थे, अपनी-अपनी बारी के इन्तजार में पर अजीव से वार्तालाप में लिप्त थे। एक कह रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री आज के जिन्ना है। चतुर-चालाक हैं। कई-कई मुखौटे हैं उनके पास। पार्टी का अलग, धर्म का अलग, सहयोगी दलों का अलग और न जाने कितने ही और दूसरा बोला, “अरे! सच तो ये है कि हमारे प्रधानमंत्री पढ़े-लिखे हैं, सो शब्दों पर सवारी करते हैं। जैसे चाहें शब्दों को घुमा-फिरा देते हैं। अब देखो न आज़ादी की लड़ाई लड़ने का गुनाह तक उन्होंने किया नहीं, पर आज स्वतन्त्र भारत के प्रधानमंत्री हैं।” तीसरा बोला, “अरे! मूर्ख तो जनता है। कुछ समझती ही नहीं। नारों के बल पर ही जिन्दा हो उठती है। हमारे प्रधानमंत्री जमाने की नस को जान गए हैं। जनता की परवाह नहीं करते। नेताओं से ताल-मेल कर सत्ता पर काबिज हैं। जो नाराज होता है उसे ही मंत्री बना देते हैं।” मेरा मन था कि मैं भी कुछ कहूं। पर अचानक तेज हवा चलने लगी। हवा आंधी में बदल गई। दोमट मिट्टी मरुस्थल में बदल गई। चारों तरफ धूल ही धूल छा गई। कई घरों की चादरों वाली छतें तक उड़ गईं।

मैं जैसे-तैसे घर आया। पर ये क्या? अब न आंधी थी न तूफान, न धूल न धक्कड़। सब कुछ सामान्य था। यह देख मैं चकित रह गया। राहत भरी सांस ली और सोफे पर पसर गया। इस बीच मैडम भाटिया आ धमकीं। पचास वर्ष की जवान। गठा हुआ, गुदाज बदन, शराबी हंसी। चेहरा जैसे लाल गुलाब। एकदम पूरा भारतीय लीपा-पोती नहीं। हाथों में कांच की बस दो-दो चूड़ियां उजला कुरता-पाजामा। इस हालत में उनसे हाथ मिलाने का मतलब था पिघल जाना। मैं सहसा पसीना-पसीना हो गया। सोच ही रहा था कि मैडम भाटिया का रुमाल-भरा हाथ मेरे हाथ मेन आ गया। अचानक मेरी पत्नी आ गई। बच्चे घर से बाहर थे। मैडम भाटिया को मेरे साथ देखकर मेरी पत्नी बिना कुछ कहे दूसरे कमरे में चली गई। मैडम भाटिया को यह अच्छा नहीं लगा।

इसी बीच मिस्टर माटिया और उनकी दोनों बेटियां भी आ गईं। यह एक संयोग ही था क्योंकि भाटिया और मेरे बीच में कोर्ट के प्रकार का  व्यक्तिगत या सामाजिक रिश्ता कभी नहीं रहा। मैडम  भाटिया और मैं एक ही आफिस में काम जरूर करते हैं। बस इतना रिश्ता है हम दोनों में। हाँ, मिस्टर भाटिया कभी-कभार मेरे घर आते जाते रहते थे। मिस्टर भाटिया अपनी पत्नी को मेरे पास देख मन ही मन परेशान थे। कुछ कहा भी नहीं पर अब मैडम भाटिया गायब  थीं। मैं पाखाने चला गया। दरवाज़ा बन्द करने को ही था कि गांव के लोगों ने झटके से दरवाज़े में ठोकर मारी। दरवाज़ा खुल गया। फिर मैं  जोर से चीखा, “तो यहां आके छुपी है साली, निकल बाहर चल, साले शर्मा के साथ मौज मस्ती करती है।” यह सुन मैं जैसे सुन्न हो  गया। मैं पाखाने से तुरन्त ही बाहर आ गया। बोला, “भाटिया क्या हो गया है तुझे? वो तो मेरी पत्नी के साथ बैठी है।” लेकिन भाटिया का पारा नहीं गिरा। पलट कर कमरे में चला गया। मैडम भाटिया के चुटिया पकड़ी और  तड़ातड़ दो-तीन हाथ जड़ दिये। इस पर मैडम भोल के चेहरे पर खारिस-भरी हंसी उभर आई। भाटिया बड़बड़ा उठा, के तू है ना, वैसी ही तेरी औलाद भी…।” दरअसल मेरे और मैडम भाटिया के बीच ऐसा-वैसा कुछ भी तो नहीं था। सो भाटिया की बातें सुन मैडम भाटिया आपा खो बैठीं। बिना कुछ कहे वो सहजता से उठी, बेलन उठाया और भाटिया पर टूट पड़ी। भाटिया तो बच गया, पर बीच बचाव में मुझे दो-चार बेलन जरूर पड़ गए। खैर! बीच-बचाव हो गया ।

इस घटना चक्र के बाद, अब मेरी पत्नी भी मुझे शक की नज़र से  देखने लगी। चुपचाप उठी। मेरी ओर देखा और कपड़े समेटकर घर से बाहर निकल गई। मैं हक्का-बक्का-सा उसे देखता रह गया। कुछ देर बाद उसकी तलाश में, मैं भी घूमता-घूमता पास की एक बस्ती में जा पहुंचा। वहां पानी के लिए मारा-मारी हो रही थी। पता नहीं क्यों, मैं भी पानी के लिए लाइन में लग गया। देखते ही देखते सारे नलके सूख गये। पानी आना बन्द हो गया। सत्ता पक्ष के विरोधियों को भाषण देने का मौका मिल गया। जनता को नारे लगाने का । नुक्कड़ सभाएं होने लगीं। नेताओ के गुरगों ने आसमान सिर पर उठा लिया । मैं अवाक्! यह सब देख ही रहा था कि किसी ने मेरे कंधे पर धीरे से हाथ रखा और कान में यह कहकर चलता बना कि मिस्टर भाटिया चल बसे। मैंने सोचा, “अभी आधा घन्टे पहले ही तो दोनों पति-पत्नी का मेल-मिलाप कराया था…ऐसा कैसे हो गया ?” खैर! मैं घर की ओर दौड़ा। पर कैसा दौड़ना? … चलना भी दूभर हो रहा था । घर से थोड़ा पहले मेरी पत्नी भी मुझे मिल गयी। किन्तु अब वह सहज थी । शायद उसे भी यह ख़बर मिल गयी होगी। वह भी मेरी तरह परेशान थी। घर पहुंचे तो देखा कि घर के आस-पास भीड़ जमा थी । हम पति-पत्नी एक दूसरे को ही देखे जा रहे थे। मन ही मन सोच रहे थे कि हम कल ही तो इस मकान में आये थे। अब क्या होगा हमारा? पुलिस का डर अलग सता रहा था। इस साले भाटिया को आज ही मेरे घर पर मरना था । जाने कैसे-कैसे विचार लगातार आ-जा रहे थे। भीड़ हमें सहानुभूति-भरी नज़रों से देख रही थी। अब तक मैं पूरी तरह टूट चुका था। घबराहट पूरी तरह हावी थी मुझपर। ऐसे में अचानक मेरी नींद टूट गई। नींद टूटी तो पाया कि सब कुछ सामान्य था। पर में सहज नहीं हो पाया। पत्नी को भी कुछ नहीं बताया। सीधा तेरे पास चला आया। शर्मा की कथा-व्यथा सुनते-सुनते मुझे लगा कि शायद मैं भी कोई सपना देख रहा हूँ। 

यहाँ यह सोचने की बात है  – क्या सपनों का व्यक्तिगत अर्थ होता है? हाँ! सपनों का व्यक्तिगत अर्थ हो सकता है, लेकिन यह हमेशा ऐसा नहीं होता है, जैसा हम सोचते हैं। सपने व्यक्ति के मानसिक स्थिति, अनुभव, और व्यक्तिगत संदर्भ पर निर्भर करते हैं। कुछ सपने सिर्फ दिनभर के घटनाओं की प्रतिक्रिया हो सकते हैं, जबकि कुछ गहरे आंतरिक चेतना या आत्मिक प्रक्रियाओं का परिचायक हो सकते हैं। इसलिए, सपनों का व्यक्तिगत अर्थ हो सकता है, लेकिन यह हमेशा व्यक्ति के सभी सपनों के लिए लागू नहीं होता है।  सपनों का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है? सपनों का अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमारे मानसिक, भौतिक, और आत्मिक स्वास्थ्य को समझने में मदद कर सकता है। सपने हमारे अवचेतन मन की गहरी स्तर पर हमारे विचार, भावनाएँ, और दिशाएँ प्रकट करते हैं और वे हमारे जीवन में हो रही घटनाओं का सुझाव देते हैं। सपनों के अध्ययन से हम अपने आत्मा की गहराइयों को समझ सकते हैं, अपने भविष्य को बेहतर तरीके से देख सकते हैं, और अपने जीवन में साझा किए जाने वाले संकेतों को समझ सकते हैं। इसके अलावा कुछ अनर्गल और गहरे अर्थ निकालना सिर पर बोझ लादने से कम नहीं है।

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