गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-17

केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की सत्रहवीं किश्त है।
यह कहानी तेरी भी है… मेरी भी….
कोई माने या न माने लेकिन हरेक परिवार में एक न एक ऐसी घटना घटित होती ही है जिसका सार्वजनिक खुलासा करना सबके बूते की बात नहीं होती। हाँ! यह बात अलग है कि कोई अन्य व्यक्ति/एजेंसी उस घटना को सार्वजनिक करदे। `लेकिन ऐसा कम ही होता है। ज्यादातर तो घर की बात घर में ही रहे, यही कोशिश की जाती है, चाहे उसके परिणाम कुछ भी हों। इस सत्य को मैं यहाँ एक घरेलू कहानी के जरिए उजागर करने की कोशिश कर रहा हूँ।
मेरी यह किसी एक वक्त की कहानी नहीं है…..बिखरी हुई कहानी है। जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं… बाल्य-काल, बचपन, यौवनावस्था और आखिरिश बुढ़ापा…सबको इन हालातों से गुजरना होता है, किंतु हैरत कि कोई भी जीवन की सच्चाई को स्वीकार नहीं करता, उल्टे उसे कदम-कदम पर चेतावनी देने या फिर नकारने पर उतारू होता है… जो एक मिथ्या विचारधारा काअंग है….समूचे जीवन का तर्क-शास्त्र तो इसे नहीं कहा जा सकता।
पाठक जगत का अक्सर यह मत हो गया है कि जो भी कवि अथवा कहानीकार उत्तम/प्रथम पुरुष में कोई कहानी अथवा कविता लिखता है तो पाठक उसे कहानीकार/कवि विशेष के जीवन से जोड़कर या तो मजाक बनाते हैं या साहित्यिकता का लुत्फ उठाते हैं या फिर कहानीकार/कवि विशेष के जीवन में झाँकने का काम करते हैं।जो साहित्यिक मापदंडों के अनुसार न केवल अनुचित है अपितु साहित्य की गरिमा के प्रतिकूल भी है।… खैर! मैं फिर एक कहानी प्रथम/उत्तम पुरुष बनकर लिख रहा हूँ… इस कहानी के पात्र भी मेरे अपने ही हैं। अब जिस पाठक को जो समझना है समझे,इसकी मुझे इसलिए चिंता नहीं क्योंकि भारतीय समाज के प्रत्येक घर की एक जैसी ही कहानी है। सवाल केवल स्वीकारने और न स्वीकारने का है।
“ शुरुआत एक छोटी सी कहानी से… जब 25 दिन से घर बाहर गया बेटा बापिस नहीं आया तो उसके बुजुर्ग मां-बाप ने थाने में जाकर थानेदार से कहा कि हमारा 25 दिन से घर नहीं आया है। फोन भी नहीं उठा रहा है। मां-बाप का दर्द छलक उठा। बोले – जिसे बोलना सिखाया, वही हमसे बात नहीं करता। हुजूर हमेंउससे मिलवा दीजिए। बचपन में जब वह माता-पिता की उंगली पकड़ कर चलता था, तब लगता था कि बेटा हमेशा हमारा साथ निभाएगा। आज वह इतनी दूर चला गया है कि अपने बुजुर्ग माता-पिता से बात तक नहीं करता। ये अफसोस की बात ही तो है कि जिन्होंने उसे बोलना सिखाया, अगर वही बेटा फोन करने पर कॉल काट दे तो वाकई अभिभावक का दिल नहीं दुखेगा तो और क्या होगा। खैर! बुजुर्ग दंपती ने पुलिस से बेटे का पता लगाने की मांग की। थाना प्रभारी का कहा कि युवक के नंबर को सर्विलांस पर लगाया गया है। जल्द ही बुजुर्ग माता-पिता को उससे मिलवाया जाएगा।
मां ने रोते हुए थाना प्रभारी को बताया कि उनका एक ही बेटा है, वो भी हमसे दूर हो गया। जब हम किसी अनजान नंबर से कॉल करवाते हैं तो वह उनसे हमारे सामने बात करता है,लेकिन हमारी आवाज सुनते ही वो फोन काट देता है। बुजुर्ग अवस्था में हर अभिभावाक को अपने बच्चों की जरूरत होती है। अगर वो साथ न हो तो चिंताएं बढ़ जाती हैं। बुजुर्ग दंपती ने बताया कि उनका बेटा सबसे बात करता है,लेकिन हमारा फोन तक नहीं उठाता। उन्होंने बताया कि आखिर वो ऐसा क्यों कर रहा है, इसका कोई कारण भी तो बताए।“
इस लघु कहानी को पढ़ने के बाद मुझे अब लगता है कि तमाम अभिभावकों की कमोबेश ऐसी ही कहानी है। यहाँ हमें यह भी देखना होगा कि जिस नजर से आज हम अपनी औलाद को देख रहे हैं,क्या कभी हमने उस नजर से अपने जन्म-दाताओं को भी देखा है? मुझे तो कम-से-कम ऐसा नहीं लगता…मामला सम्पन्नता का है… बाप सम्पन्न है तो बेटे की मेहनत का परिणाम और… यदि बेटा सम्पन्न है तो उसकी अपनी मेहनत का परिणाम… मेरी पाठकों से यही आशा है कि मेरे यथोक्त कथन को सांसारिक व्यवहार के तौर पर परखा जाना चाहिए।… यह कहानी मेरी भी हो सकती है… किसी और की भी… आपकी की भी… किंतु इसे सामाजिक और साहित्यिक दायरों की सीमाओं के अन्दर रह कर ही देखा जाना चाहिए… अभिव्यक्ति का माध्यम अलग जरूर हो सकता है।
कल का पराभव, आज का वैभव….
बतादूं कि आज मैं अपनी स्मृति का खुलासा यहाँ प्रस्तुत एक परिवार की कहानी के जरिए आपके सामने रख रहा हूं जिसका सांकेतिक रूप में उल्लेख पाठकों को इस कहानी कै अंत में पढ़ने को मिलेगा। कहानी कुछ इस प्रकार है, “एक गाँव में बूढ़े मां-बाप रहते थे। उनकी एक अकेली संतान उनका बेटा ‘संजीव’ ही था। वह पढ़-लिखकर देश की राजधानी में एक बड़े सरकारी पद पर नियुक्ति पा गया। कुछ दिन बीते उसकी शादी एक सुंदर और सुशील लड़की ‘रजनी’ से हो गया। जैसा कि अक्सर होता ही है, संजीव भी अपनी पत्नि को लेकर शहर चला गया। समय बीतता गया किंतु संजीव ने कभी अपने मां-बाप की खबर तक नहीं ली। मां का फोन आया तो संजीव ने अपने मां-बाप को दिल्ली आ जाने को कहा और अपने घर का पता उन्हें लिखवा दिया। उधर संजीव के मां-बाप की हालत बुढ़ापे के चलते दिन पर दिन विगड़ती चली गई। आखिरकार उन्होंने अपने बेटी संजीव के घर आने का मन बना लिया।
कुछेक दिन बाद संजीव के माता-पिता अपने बेटे के पास रहने के विचार से दिल्ली आ गए। लेकिंन ये क्या हुआ। जैसे ही उन्होंने संजीव के घर को देखा तो बेटे का आलीशान मकान देखकर चौंक गए और दरवाजे पर लगी डोर बैल बजाई तो संजीव के घर पर काम करने वाली मेड ने दरवाजा खोला और उनसे बोली,’ क्या हुआ? इतनी घंटी क्यों बजा रहे हो? उन्होंने मेड से कहा, ‘बेटा! ये संजीव का घर है न? ये पता संजीव का ही है न? हमारा बेटा है संजीव। मेड ने पूछा कि तुम दोनों कौन हो? बेटा, हम उसके माता-पिता हैं, सजीव के माता-पिता ने कहा – हम गांव से आये हैं। मेड ने शहरी अंदाज में उनसे कहा, ‘हाँ। ठीक है, आप दो मिनट यहीं रुकिए।‘ मेड दरवाजा बंद करके अंदर चली गई। संजीव के मां –बाप एक दूसरे की ओर देखकर कहने लगे, ‘ देखो हमारे बेटे ने कितना बड़ा और सुंदर घर बना लिया है। लगता है वह बहुत बड़ा आदमी बन गया है। हाँ, अब वह हमें देखेगा तो वह बहुत खुश होगा।
मेड घर के अंदर जाती है संजीव की पत्नी को बताती है – मैडम! सर के माता-पिता आ गए हैं। मेडम ने जैसे ही सुना कि सर के माता-पिता आ गए हैं गाँव से, इतना सुनकर ने माथा पकड़ लिया और बोली’, ‘ हे भगवान! मेरा तो मूड खराब हो गया। मैडम ने मेड से कहा, ‘तुम एक काम करो, जाकर उन बूढ़ी औरतों से कहो कि यह उस संजीव का घर नहीं है, यह किसी और संजीव का घर है। आप गलत पते पर आ गए हैं। इतना कहकर मैडम यानी संजीव की पत्नी बुदबुदाने लगी – ‘अच्छी-खासी मैं पार्टी में जा रहा थी। इन्होंने मेरा मूड ही खराब कर दिया। मैं इन बुढ़िया को घर में घुसने नहीं दूँगी। चाहे कुछ भी हो जाए।‘ खैर! मेड ने हिचकिचाते हुए मैडम के आदेश का पालन किया और बाहर जाकर संजीव के माता-पिता से कहा कि अंकल! यह वह संजीव का घर नहीं है जिसे तुम ढूँढ़ रहे हो। यह संजीव का पता नहीं है? तुम सामने वाली बिल्डिंग में जाकर पता कर सकते हो।
जैसे ही संजीव के माता-पिता लौटने को होते हैं तो संजीव आ जाता है। उसे देखकर वो चौंक जाते है और यकायक पूछ्ते हैं, ‘ अरे बेटा तुम…. कैसे हो बेटा?’ संजीव,‘मैं बहुत अच्छा हूँ पापा और तुम दोनों को देखने के बाद तो मैं और भी अच्छा हो गया हूँ। पर तुम गाँव से कब आए? और तुमने मुझे बताया क्यों नहीं? मैं तुम्हें लेने आ जाता।‘ ‘हम अभी गाँव से आए हैं बेटा ! इसलिए हम तुम्हें ढूँढ़ते हुए यहाँ आए हैं। बेटा, तुम शहर आकर माँ-बाप को भूल गए हो। हम तुम्हें देखने के लिए बहुत उत्सुक थे। बेटा! हम तुम्हें देखने के लिए तरस रहे थे। इसीलिए हम यहाँ आए हैं, संजीव के पिता ने कहा। इस पर संजीव ने कहा, ’तुमने यहाँ आकर सही किया। लेकिन अब चिंता की कोई बात नहीं है। अब हम साथ-साथ रहेंगे। आओ चलें, यही हमारा घर है। चलो! अंदर चलें।‘ ‘लेकिन क्या बेटा! क्या यह हमारा ही घर है? लेकिन बेटा, ये लड़की तो कह रही थी कि ये संजीव का घर नहीं है, वो कहीं और बता रही थी, संजीव के पिता ने कहा।‘
संजीव ने मेड से कहा कि मैं क्या सुन रहा हूँ, कांता? क्या तुमने मेरे माता-पिता को ग़लत घर का पता बता दिया? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ। मुझे जवाब दो। ठीक है। अगर तुमने मुझे जवाब नहीं दिया तो मैं तुम्हें अभी नौकरी से निकाल दूँगा। ठीक है मैं बाद में तुमसे निपट लूँगा।….चलो! पापा अंदर चलें। …. पिता जी बोले, ‘ आओ बेटा, चलो संजीव! चलो अंदर …. रहने दो। वह बेचारी भूल गई होगी। उसे शायद पता नहीं होगा कि हम कौन हैं। कोई बात नहीं बेटा। उसे माफ़ कर दो।‘
संजीव अपने माता-पिता को लेकर जैसे ही अंदर आता है तो अपनी पत्नी से पूछता है – ‘यह क्या है? मेरे माता-पिता नीचे खड़े थे। और तुम यहाँ बैठी हो क्या तुम्हें नहीं पता कि नीचे कोई खड़ा है? अगर मेरे माता-पिता वापस चले गए होते तो क्या होता?’
संजीव!, ‘तुम मुझ पर क्यों चिल्ला रहे हो ? इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। मुझे कुछ पता नहीं। मुझे नहीं पता कि तुम्हारे माता-पिता नीचे खड़े हैं।…. कांता! तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? तुम नीचे क्या कर रही थीं?’ संजीव की पत्नी ने अपनी कड़वाहट का दोष कांता पर रख दिया और उसे शान्त रहने की बात करके संजीव की पत्नी ने उससे कहा कि देखो, संजीव.. कांता को अपने काम की कतई परवाह नहीं है।…ये गलतियाँ करती रहती है। और वह अपनी गलती स्वीकार भी नहीं करती। मैंने तुम्हें इसे नौकरी से निकालने के लिए कहा था किंतु आपने ही इसे नौकरी से नहीं निकाला। देखो संजीव, तुम मुझे क्यों डांट रहे हो? इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। अगर मुझे पता होता कि तुम्हारे माता-पिता नीचे हैं, तो मैं दौड़कर उन्हें ऊपर ले आती। ज़रा सोचो… क्या तुम्हारे माता-पिता की मुझे कोई परवाह नहीं है? वे मेरी सास-ससुर भी हैं। मैं उनसे बहुत प्यार करती हूँ। मैं ऐसा क्यों करूँगी? अगर वे वापस चले जाते तो क्या मुझे बुरा नहीं लगता। लेकिन जैसे ही संजीव किसी काम से बाहर गया तो संजीव की पत्नी संजीव की मां पर चिल्लाने लगी, ‘अरे बुढ़िया, तू अभी 2 मिनट पहले ही मेरे घर आई थी, तूने मेरे घर आकर मेरी नौकरानी को मेरे खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। इसीलिए तो मैंने तुम्हें घर में घुसने नहीं दिया। मुझे तुम्हें धक्के देकर घर से बाहर निकाल देना चाहिए था।‘ इतना सुन संजीव की मां ने कहा कि बहू, तुम ऐसे क्यों बोल रही हो? हम तुम्हारे ससुराल वाले हैं। क्या तुम अपने ससुराल वालों से ऐसे ही बात करती हो? अगर हमारे बदले तुम्हारे माता-पिता यहाँ आए होते तो क्या तुम ऐसे ही बात करती? क्या यही तुम्हारी संस्कृति है? क्या यही तुम्हें सिखाया गया है? संजीव की पत्नी ने फिर उससे कहा कि अरे बुढ़िया। अपना मुँह बंद रखो। मैं तुम जैसे लोगों से बात करना अच्छी तरह जानती हूँ। तुम कौन होती हो मुझे सिखाने वाली?
बहू, मेरे घर की बात क्यों कर रही हो? यह मेरे बेटे का घर है। इसका मतलब है कि इस घर पर हमारा भी हक है, संजीव की मां ने बहू से कहा। पर संजीव की पत्नी ने उनसे कहा कि तुमसे किसने कहा कि ये घर संजीव का है…यह मेरे नाम पर है, सो मकान मेरा हुआ। मैं तुम दोनों को 2-4 दिन चैन से रहने देती। लेकिन नहीं… तुम दोनों मुझसे बहस करना चाहते हो। तुम मेरे साथ बदतमीजी करना चाहते हो। ठीक है…मैं तुम जैसे अनपढ़ लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकती।…मेरे घर से अभी निकल जाओ। … पत्नी की इतनी बात सुनकर संजीव सकुचाया सा खड़ा-खड़ा देखता रहा… अपनी पत्नी से कुछ भी तो नहीं कह पाया। सारांशत: यहाँ एक प्रश्न उठना निश्चित है कि यदि यही मकान संजीव के नाम पर पंजीकृत होता तो क्या उसकी पत्नि संजीव और संजीव के माता-पिता के साथ इस प्रकार दुर्व्यवहार कर पाती….कदाचित नहीं।
यथोक्त के आलोक में, मुझे यह बताने में कतई भी झिझक नहीं है कि संजीव का कहानी में आंशिक रूप से मेरी कहानी का भी प्रतिबिंब है। किंतु एक बात एकदम अलग है और वह है कि संजीव के माता-पिता जीवित हैं और मेरे माता-पिता का मेरे बचपन में ही देहांत हो गया था। उस समय मेरा पूरा गाँव एक अनाथ के रूप में देखते थे … यहाँ तक इस कारण मुझे भी अनाथ होने का अहसास होने लगा था। हाँ इतना जरूर है कि मैंनें बड़े भाई डालचंद प्रधान और कालेज के प्राचार्य रामाश्रय शर्मा जी के मिलेजुले सहयोग से जिला बुलंदशहर के भवन बहादुर नगर में अवस्थित स्वतंत्र भारत इंटर कालेज से बारहवीं कक्षा पास करने बाद दिल्ली आ गया और दिल्ली का ही होकर रह गया। यही .पर घर-मकान भी बना लिए। यहाँ स्पष्ट रूप से यह भी बतादू कि दिल्ली में रहते-रहते मेरी पत्नी की मानसिकता भी संजीव की पत्नि के जैसी ही हो गयी है। दरअसल इस प्रकरण के जरिए मैं कहना यह चाहता हूँ कि मेरे माता-पिता का में मेरे बचपन में देहांत हो जाने का दुख झेलना पड़ा, आज मुझे उस दुख का कद मिट्टी में मिल जाने की असहज प्रसन्नता इसलिए हो रही है यदि वे मेरे आथे जीवन तक भी जिंदा रहते तो शायद संजीव के जैसी ही मेरी भी कहानी होती। और तब संजीव की तरह शायद मेरे माता-पिता को भी अपमान झेलना पड़ता। एक तरह से कहूं तो मेरे कल का पराभव आज वैभव का अहसास कराने जैसा है।
जैसी संगत, वैसी रंगत…
विदित हो कि पहली नियुक्ति भारतीय स्टेट बैंक की नई-नई खुली बदरपुर शाखा में हुई थी। इस शाखा में मुझे शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में रखा गया। अब तक मैं अंग्रेजी टाइपिंग भी सीख गया था। शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में मेरी तैनाती अन्य लिपिकों को खलने लगी क्योंकि इस शाखा में मेरे साथ भर्ती हुए सभी कर्मचारी बी. ए. या फिर एम. ए. थे। वे सब थे भी दिल्ली के ही…. और थे भी अपने दलित समाज के ही। उनमें मैं ही केवल बारहवीं पास था वो भी दिल्ली के बाहर बुलंदशहर के एक छोटे से गांव का। मेरे शैक्षिक स्तर को लेकर वो आपस में कुछ न कुछ अप्रिय बातें करने से बाज नहीं आते थे।
कहा जाता है कि यदि आप तीन करोड़पतियों के साथ बैठते हैं, तो आप चौथे करोड़पति होंगे। अगर आप तीन रचनाकारों के साथ बैठते हैं, तो आप अगले रचनाकार होंगे। और अगर आप तीन कर्मचारियों के साथ बैठते हैं, तो आप अगले कर्मचारी होंगे। और अगर आप 3 बेरोजगार दोस्तों के साथ बैठते हैं, तो आप अगले बेरोजगार होंगे। यह कर्लड मिरर इफ़ेक्ट है। यानी जितना ज़्यादा आप अपने साथ रहने वाले लोगों को देखेंगे और सुनेंगे, उतनी ही संभावना है कि आप भी उनके जैसे बन जाएँगे।
मेरी मामले में भी शायद इस प्रकार कथनों का प्रभाव देखने को मिलता है। बतादूं कि शाखा के अन्य कर्मचारियों, जो मेरी शिक्षा के स्तर को लेकर ऊल-जलूल बातें किया करते थे,, उनसे दूरी बढ़ाने लगा और मैने लंच आवर में उनके साथ न रहकर शाखा प्रबंधक और अन्य अधिकारियों की संगत में रहने लगा। उसका लाभ मुझे ये मिला कि बैंक की बदलती नीतियों और कार्यप्रणाली का ज्ञान मिलने लगा और अधिकारियों की संगत मुझे और अधिक भाने लगी। और यह भी कि शाखा के अन्य कर्मचारियों, जो मेरी शिक्षा के स्तर को लेकर ऊल-जलूल बातें किया करते थे,, उनसे दूरी बढ़ाने का मुझे यह लाभ भी मिला कि 1975 में मैंने स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मेरठ यूनिवर्सिटी (अब: चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी) में दाखिला लिया और पत्राचार पद्धति के तहत जरिए 1977 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। इसके मुझे दो फायदे तो मिले ही: एक- मैं अपने कार्यालयीन दोस्तों के तानों से भी बच गया ; दो- मुझे दो एडीशनल इंक्रीमेंट भी मिल गईं। और अधिकारियों की संगत में रहने से मुझे जो बैंकिग ज्ञान मिला उसके आधार पर 1980 में मेरा चयन बैंक के केंद्रीय कार्यालय, मुम्बई के सेंटरल आडिट विभाग में सहायक निरीक्षक के रूप में नियुक्त कर लिया गया। और वहाँ से लौटकर 1982 में सहायक अधिकारी के पद हेतु पदोन्नति हो गई।

वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अब तक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।