हिन्दी साहित्य का नया प्रवेश द्वार सृजित करता है महासम्राट

हिन्दी साहित्य का नया प्रवेश द्वार सृजित करता है महासम्राट

विश्वास पाटील मराठी भाषा के लोकप्रिय लेखक हैं, हाल ही में राजकमल प्रकाशन से उनके दो उपन्यास दुड़िया और महासम्राट का पहला खंड झंझावात का हिन्दी अनूदित संस्करण  प्रकाशित हुआ  हैं। दोनों ही उपन्यास अनुवाद की दृष्टि से बहुत ही सार्थकता के साथ सामने आए हैं। दुड़िया जहां नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है वहीं महासम्राट विद्रोही चेतना के महानायक और हिंदवी साम्राज्य की अलख जगाने वाले योद्धा छत्रपति शिवाजी के जीवन संघर्ष पर केंद्रित है। इन दोनों ही उपन्यासों का हिन्दी प्रकाशन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करता है। हिन्दी लेखक रवि बुले,  जिस तरह से अपना मौलिक लेखन करते रहे हैं उसी त्वरा के साथ उन्होंने इन दोनों ही उपन्यासों का अनुवाद किया है। दोनों ही उपन्यास अपने पाठकों को यह नहीं महसूस करने देते कि वह कोई अनूदित कृति पढ़ रहे हैं बल्कि अनूदित कृति सहज ही मूल कृति का स्वाद महसूस कराती है और इसी चमत्कार के सहारे पाठकीय वर्जना भी तोड़ती है।

फिलहाल अभी हम बात  कर रहे हैं महासम्राट की। महासम्राट का हिन्दी में प्रकाशित होना हिन्दी साहित्य के लिए एक अलग प्रवेश द्वार सृजित करता है। हिन्दी उपन्यास के नायक अक्सर इतिहास के नायक नहीं रहे हैं। इतिहास और खास तौर पर हिन्दी पट्टी से जुड़ा हुआ इतिहास लगभग ना के बराबर ही हिन्दी साहित्य में ध्वनित होता है। ऐसे में महासम्राट का हिन्दी प्रकाशन हिन्दी भाषी लेखन को भी एक नई दृष्टि देने का काम करता है। 29 अध्याय में लिखा गया यह उपन्यास महासाम्राट का पहला खंड है, जिसे ‘झंझावात’ नाम दिया गया है। पहला खंड होने के बावजूद यह अपने आप में एक लंबा इतिहास समेटे हुए है।  झंझावात में शिवाजी के जन्म से पूर्व या फिर स्पष्ट शब्दों में कहें तो उनकी माँ के बिवाहो परांत मायके वापस आने की यात्रा से कथानक की शुरुवात होती है और शिवाजी द्वारा अफजल खान की सेना को पराजित करने तक की यात्रा समाहित  है। तारीख के आँकड़े में यह यात्रा 1624 से 1659 तक के इतिहास के सरोकार के साथ सामने आती है।

यह उपन्यास बुनियादी तौर पर शिवा जी पर केंद्रित जरूर है पर यह उस समय के सामाजिक, राजनीतिक, रचनात्मक, आर्थिक, शैक्षिक और कलात्मक जैसे लगभग हर जरूरी विषय पर बहुत ही मजबूत दृष्टि के साथ सामने आता है। इसी वजह से इस उपन्यास को पढ़ते हुए हम सहज ही यह महसूस करने लगते हैं कि हम इतिहास की पृष्ठभूमि पर कोई सिनेमा देख रहे हैं। जिसके हर फ्रेम में एक जीवांत गति, आवश्यकता अनुरूप शानदार संवाद और आँखों के पारित: आभासी तौर पर किन्तु यथार्थ सा दृश्य विधान चित्रित होता जाता है।  इस उपन्यास की सबसे पहली मजबूत ताकत यह है कि यह बिना किसी चित्र के किसी चित्रकथा का थ्रिल पैदा करता है और इस थ्रिल का बहाव इतना बेग पूर्ण है कि बस एक पाँव रखते ही आप स्वयं को उसके हवाले कर देते हैं और बिना किसी प्रतिरोध के बहते चले जाते हैं। भाषा शिल्प, कथानक, दृश्य संरचना और संवाद यह चारों ही खंभे समान सम्मोहन के साथ अपने पाठक को अपना सहचर्य बनाने की ताकत रखते हैं।

महासम्राट के इस खंड में शिवा जी के पिता शहाजी राजे के संघर्ष की दास्तान और शिवाजी के विद्रोही तेवर के प्रारम्भिक शौर्य की गाथा बड़ी सजीवता के साथ दिखती है पर मैं इस खंड को शिवाजी की माता जीजाऊ (जीजा बाई) की जीवन दर्शन और पित्र-सत्तात्मक राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था के बीच एक स्त्री के दुस्साहस के रूप में देख पा रहा हूँ।  इस उपन्यास की कथा यात्रा जीजाऊ की यात्रा से शुरू होती है और उपन्यास का पहला संवाद “राज करने वाले शासक और जनता के बीच कोई पर्दा नहीं होना चाहिए” के रूप में जीजाऊ द्वारा बोला जाता है।  यहीं से स्पष्ट हो जाता है कि इस उपन्यास में हम एक ऐसी स्त्री के साथ यात्रा शुरू करने जा रहे हैं जिसकी वैचारिक स्पष्टता भविष्य को नई दिशा देने के लिए व्यग्र है।

वह अपने इतिहास को भी यहीं रेखांकित करते हुए बताती हैं, “ हाँ, हम जाधव यानी तीन-साढ़े तीन सौ बरस पुराने देवगिरी के यादव हैं”। दौलताबाद के अपने किले पर निजामशाही के चाँद-तारे वाले हरे झंडे को देखते हुए वह कहती हैं कि, “यह कभी सोने की नगरी थी। यहाँ से उत्तर में दिल्ली-आगरा और दक्षिण में रामेश्वरम-मदुरै तक बारहों महीने हाथी-घोड़ों का आना जाना लगा रहता था।  देवगिरी के पहाड़ अपने ही थे। इस पहाड़ को पार किया कि सामने यक्ष-किन्नरों और देवी-देवताओं को अपने कंधे पर बैठाकर झुलाने वाली वेरोल की पवित्र धरती भी अपनी थी”। अपना सब कुछ निजाम शाही के हाथों छीन लिए जाने की टीस लिए आगे बढ़ती जीजाऊ किस तरह से बिना हथियार उठाए एक अपर्चित विद्रोह का बीज ना सिर्फ बोती हैं बल्कि उसकी हर तरह से हिफाजत की हर संभव कवायद भी करती हैं। निजाम शाही और मुगलिया सलतनत दोनों के खिलाफ हिंदवी साम्राज्य के जिस सपने के लिए पहले उनके पति शहाजी राजे और बाद में उनके पुत्र शिवाजी राजे ने अपने शौर्य की परिधि का बिस्तार किया है वह पूरी तरह से जीजाऊ का ही सपना है जिसे संघर्ष के शिखर पर भी वह अपनी आँख के आँसू  से विछलाने नहीं देती हैं। जीजाऊ के इस चरित्र से गुजरते हुए जिस स्त्री के दर्शन होते हैं वह दुनिया की हर स्त्री के लिए ‘स्त्री-शक्ति’ का एक नया प्रस्थान विंदु रचते हैं।  

निजाम द्वारा अपने पिता और भाइयों का कत्ल होने के बाद जीजाऊ खुद ही तलवार लेकर “शत्रु का खून पीने” निकल पड़ती हैं। जीजाऊ उम्र पर्यंत किसी कुशल नीतिज्ञ की तरह अपने पति को दिशा दिखाती हैं और पति के दूर रहने के दौरान  अपने पुत्र शिवाजी का पालन पोषण भी वह किसी कुशल शिक्षिका की तरह करती हैं। 

शिवाजी राजे के पिता के जीवन संघर्ष के कई अध्याय इस उपन्यास में समाहित किये गए हैं। कमोवेश पहली बार शहाजी राजे पर इतनी विनम्र दृष्टि साहित्य ने डाली है। शहाजी के चरित्र के माध्यम से इतिहास का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सिरा मिलता है जो स्पष्ट करता है कि वह समय राजनीतिक युद्ध जरूर था पर उसमें धार्मिक घृणा नहीं थी। शहाजी राजे के जन्म का एक किस्सा उपन्यास में भले ही संक्षिप्त रूप से दर्ज है पर वह समय के सूचकांक पर तात्कालिक धार्मिक भावनाओं का जरूरी दस्तावेज बन जाता है।

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समय बीतने के बावजूद मालोजी राजा के घर संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। एक दिन उनकी धर्मपत्नी दीपाबाई अहमदनगर के मुसलमान बाबा शहाशरीफ़ जी के दर्शनों के लिए गई। भावुक दीपाबाई ने पूरी श्रद्धा के साथ बाबा से अपनी वंश बेल बढ़ने का आशीष मांगा और वचन दिया कि होने वाले पुत्र को वह उनका नाम देंगी। इसके बाद मालोजी भोसले की वंश बेल हरी हुई और उन्होंने पीर बाबा की याद में पूरी श्रद्धा से अपने बड़े बेटे का नाम शहाजी और छोटे का शरीफजी रखा

यह छोटा स किस्सा बहुत ही सहजता से उस समय के धार्मिक दृष्टिकोण को सामने ला देता है और स्पष्ट कर देता है कि उस समय धार्मिक विभाजक रेखा आम जीवन का हिस्सा नहीं थी बल्कि संघर्ष सत्ता का था। हिन्दू-मुस्लिम के बीच धार्मिक घृणा का कोई नजरिया विकसित नहीं हुआ था। स्थानीयता का संघर्ष जरूर उगना शुरू हो गया था और अप्रत्यक्ष तौर पर इस संघर्ष का नेतृत्व शहाजी राजे  की पत्नी जीजाऊ ने तब शुरू किया था जब निजाम शाह ने उनके पिता और भाइयों की छल से हत्या कर दी थी। जीजाऊ ने पहले अपने पति के माध्यम से इस विचार से आगे बढ़ाया और बाद में उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी राजे के माध्यम से इस विचार को विद्रोह में बदल दिया और हिंदवी साम्राज्य का सपना पूरे मराठा समाज की आँखों में रोप दिया। भारतीय इतिहास में इतनी मजबूत वैचारिक ताकत वाली स्त्री का दर्शन जीजाऊ से पूर्व नहीं मिलता है। इस उपन्यास में भी जीजाऊ को नायिका की तरह से स्थापित भले ही नहीं किया गया हो पर पर उनके चरित्र में जो राजनीतिक समझ और असाध्य परिस्थितियों में भी किसी चट्टान की तरह ठोस बने रहने का जो भाव दिखता है वह उन्हें सहज ही ‘किंग मेकर’ के रूप में स्थापित कर देता है। विषम से विषम परिस्थिति में भी वह किसी अबला का लबादा नहीं ओढ़ती बल्कि पूरी ताकत और स्वाभिमान के साथ परिस्थितियों का मुकाबला करती हैं। 

महासम्राट के इस पहले खंड में शिवाजी राजे के पिता शहाजी राजे के चरित्र पर बहुत ही तथ्यात्मक रेखांकन किया गया है। शहाजी के योद्धाई पौरुष को बड़ी ही खूबसूरती के साथ प्रक्षेपित किया गया है। एक बार जब निजाम को खबर मिलती है कि दिल्ली के मुगल बादशाह जहांगीर ने दौलताबाद को कुचलने के लिये 80 हजार की फौज रवाना की है तो वह घबरा जाता है पर वह अपनी बेगम के सामने इत्मीनान से कहता है कि, “जब तक हमारे खेमे में मालिक अम्बर और वह शहाजी मराठा है, तो डरने का सवाल ही नहीं है”। शहाजी राजे पूरे कथानक में अपने इस वीरोचित भाव के साथ ही मौजूद रहते हैं। जहांगीर की फौज का मुकाबला करने के लिए जब वह मलिक बाबा के साथ निकलते है तो वह प्रश्न भी उठाते हैं जिसकी पृष्ठभूमि इस पूरे कथानक की बुनियाद बनती है। वह मालिक से कहते हैं, मालिक बाबा, कई बार मेरा मन व्याकुल हो जाता है। एक ही प्रश्न पतंगे की तरह भिनभिनाता हुआ परेशान करता रहता है। वह दिन कब आएगा बाबा … जब हम मराठे अपनी मिट्टी से अपना सिंहासन खुद गढ़ेंगे … कब हमारे वीरों की शान का झण्डा हमारे आसमान में लहराएगा! …… बाबा साच कहता हूँ, कभी-कभी दिल उकता जाता है, झुंझलाहट होती है कि क्या हम मराठे दूसरों की धान की बोरियाँ धोने वाले गधे हैं या फिर लड़ाई के मैदान में तोपों को पँहुचाने वाले बैल ! आखिर कब तक ऐसा चलेगा?

 परतंत्रता की इसी पीड़ा के खिलाफ स्वतंत्रता की कामना और संघर्ष के किसी महाकाव्यात्मक आख्यान की तरह पूरा उपन्यास रचा गया है। उपन्यास में जहां युद्ध और राजनीतिक इतिहास की प्रतिध्वनियाँ सृजित हैं वहीं उस समय के सामाजिक जीवन के तमाम श्वेत-श्याम चित्र भी अपनी करूण आस्था के साथ सृजित हैं। सन 1630 के अकाल की भयावहता के मार्मिक आख्यान से जब हम गुजरते हैं तो उस समय का दर्द अपने पाठक के मन पर किसी फफोले सा उग आता है-

राजे, उधर सोलापुर, हैदराबाद के नजदीक तो भूख ने तांडव मचा रखा है। किसी भी हाल में बाल बच्चे जिंदा रहें , इसलिए लोगों ने घर के बैलों को काट दिया। कुछ ने तो घोड़ों का भी माँस भी खाया

राजे भूख की आग ने इंसान को राक्षस बना दिया है। भूख मिटाने के लिए लोगों  ने दिल पर पत्थर रखकर ऐसे काम किये हैं कि कलेजा कांप जाता है। घर के छोटे बच्चों को ही कुछ ने मारकर खा लिया

एक और वाक्या देखते हैं, ऐसा कठिन समय आया है कि बदन पर वस्त्र का एक टुकड़ा भी नहीं रह गया है। मेरी दो जवान बेटियों और दो बहुओं को अपना बदन ढकने के लिए चिंदी तक नहीं बची है। नंगे बदन दिन में बाहर आना उनके लिए संभव नहीं है, इसलिए शरीर धर्म के कामों के लिए बहू बेटियाँ रात के अंधेरे में ही बाहर निकलती हैं। मेरे बेटे अन्न की खोज में परदेश गए हैं। में दरवाजे पर बैठा दिन गुजारता हूँ और बहू बेटियाँ अंदर बंद रहती हैं। आपके एक चादर देने से मेरा भला हो जाएगा। उसे फाड़कर हम चार टुकड़े कर लेंगे तो मेरे बहू-बेटियों की लाज ढक जाएगी।

यह  दृश्य महज समय की मार्मिकता भर नहीं है बल्कि यह उस समय की वह दुरभिसंधि भी है जिसे पार करना आसान नहीं था। जीजाऊ और शहाजी ने इस कठिन काल में स्वराज के जो स्वपन देखे थे वह किसी सामान्य आदमी की कूबत से बहुत बड़े थे। पर कठिन काल के स्वपन और संघर्ष ही किसी आम को खास बनाते हैं। वर्तमान में मीडिया के रंगीन विज्ञापन से महानायक बनने के जो नए टूल्स तराशे जा रहे हैं वह उस दौर में संभव नहीं थे। आभासी सत्य और संघर्ष के सहारे इतिहास के नायक नहीं रचे जा सकते हैं। यह उपन्यास इतिहास की राख से वह चिंगारी हम तक लाता है जिसके सहारे वर्तमान की मशाल रोशन की जा सकती है। शहाजी का पूरा का पूरा जीवन त्याग और वीरता से भरा हुआ है जीवन के कुछ ही वर्ष ऐसे मिलें हैं जिनमें उन्हे राजकीय वैभव, सम्मान और शांति पूर्ण जीवन जिया है, शेष जीवन अशेष झंझावात के कोलाज सा दिखता है। इस कथाई भवितव्य भरे कोलाज को किताब की शक्ल में विश्वास पाटील ने जिस तरह से पिरोया है उसे देखकर समय के उस सबसे शानदार जुलाहे की याद आती है जिसकी बुनाई का हर धागा अनंत रेशे से बंधा होता है पर गांठ का कोई निशान नहीं नजर आता है। यहाँ तो धागे तो क्या हर रेशे पर निहायत बारीक कशीदाकारी की गई है और तुर्रा यह कि कोई भी धागा दूसरे धागे को चाक नहीं करता।

यह उपन्यास बड़ा है पर कथानक और शिल्प दोनों की परिधि इस उपन्यास से भी बहुत बड़ी है जहां जगह-जगह पर जीवन के लिए तमाम सूत्र वाक्य भी किसी मंत्र के लराह बंधे हुए हैं जो अपने पाठक को सतत समृद्ध करते हैं-

  “राज करने वाले शासक और जनता के बीच कोई पर्दा नहीं होना चाहिए।”  

“राजन किसी रत्न पारखी कि नजर अगर एक बार असली लाल मणि पर टिक जाए तो वह दीपक के चारों तरफ मंडराने वाले पतंगे की तरह उसका चक्कर काटता रहता है।”

लोहा जब लोहार की भट्टी में तपता है, जब उस पर हथौड़े की चोट पड़ती है तभी वह किसी सुंदर प्रतिमा का आकार लेता है।

 धर्मशास्त्रों के अनुसार युद्ध और राजनीति में सब कुछ माफ होता है।

जन नदी पार करनी होती है तो सामने वाले किनारे पर उतारने के लिए सिर्फ एक नाव पर भरोसा रखने से काम नहीं चलता।

इस तरह के बहुतेरे वाक्य पूरे उपन्यास में वैसे ही पिरोये हुए हैं जैसे सफेद फूलों के गुलदस्ते के सौन्दर्य को कई गुना बढ़ा देने के लिए उस पर लाल सुर्ख गुलबूटे टाँक दिए गए हों। यह महज सौन्दर्य भर का मामला नहीं है बल्कि यह सूत्र लेखक के व्यापक जीवनानुभव का भी रेखांकन कर देते हैं और इतिहास की मिट्टी से वर्तमान का प्रवेशद्वार भी बना देते हैं।

भाषा के स्तर पर उपन्यास में लोकोक्ति और मुहाबरे भी बार-बार किसी रूपक की तरह आते हैं और पाठक के पाठकीय स्वाद को संवर्धित करते हैं। अनूदित कृतियों में मुहाबरों को बचा पाना कत्तई आसान नहीं होता क्योंकि मुहाबरे, भाषा से ज़्यादा बोली की संपदा होते हैं, पर यहाँ अनुवादक ने उन्हे बचाने में जो कौशल दिखाया है वह इस उपन्यास को मूल भाषा के बरक्स समानांतर तौर पर स्थापित करने में कंही कोई चूक नहीं रखता।

 इस उपन्यास कि एक विशेष खूबसूरती इसके प्राकृतिक संचयन में भी है। प्रकृति के तमाम दृश्य इस उपन्यास में छायावादी कविता कि तरह सजीव भाव से मौजूद हैं। वह किसी पात्र की तरह परिस्थिति का हिस्सा बनकर सामने आते हैं और अपने पृष्ठ के स्पर्श का सुख भी देते हैं।

उस समय की सामाजिक संरचना में जातीय पाखंड के सहारे सत्ता लोलुप चरित्र की शिनाख्त करने का काम भी यह उपन्यास बखूबी करता है। मोहम्मद शाह की जी हुजूरी करते मुरारी पंडित के माध्यम से लेखक ने हिन्दू समाज में मौजूद जातीय दंभनाद का जो चरित्र सामने रखा है वह विचलित ही नहीं आक्रोशित भी करता है। मुरारी पंडित के एक संवाद के माध्यम से इसे बड़े साफ तौर पर देखा जा सकता है- “इस प्रस्ताव को सुनकर मुरारी पंडित एकदम चिल्ला पड़ा, “किस वास्ते हुजूर? मेरे सिर पर अग्निदेवता का वरदहस्त है! किसी का भी विनाश करना मुझे खूब भाता है। किसी का भी नाश, सर्वनाश या सत्यानाश करना है तो मेरी अक्ल घोड़े की तरह तेज दौड़ती है। अब इस पर हम मराठों में किसी के राजा बनने का स्वप्न केवल गाँव के बच्चों के पागलपन जैसा है। मराठों को चुपचाप अपने घोड़े संभालने चाहिए और जो मिले उस गधामजूरी से अपना पेट भरना चाहिए। बेकार क्यों ‘राजा’ बनने के हवाई सपने देखना?”      

 इतिहास में ब्राह्मण अक्सर विदूषक या विश्वासघाती के रूप में चित्रित होते रहे हैं बावजूद इसके शेष समाज की आस्था और विश्वास पर प्रश्नवाचक लगाने के क्रम में ब्राह्मण ही  इतिहास से वर्तमान तक हर बार अगली कतार में खड़े होते रहे हैं। गैर ब्राह्मण हिन्दू के साथ खड़ा होने की बजाय ब्राह्मण समाज बार-बार आक्रान्ताओं के साथ शर्मनाक ढंग से खड़ा दिखता है और धार्मिक पाखंड के सहारे खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाने से भी नहीं चूकता।

 इस उपन्यास में लेखक की सबसे बड़ी ताकत है उनका व्यक्ति निरपेक्ष होना। आज जब एक अदना सा पत्रकार भी तमाम पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखता है तब विश्वास पाटील बहुत ही सहज होकर बिना किसी जाति-धर्म के ध्वजवाहक बने सत्य को सत्य कहने का साहस दिखाते हैं और अपने नायक के खिलाफ खड़े चरित्रों के साथ भी शत्रुवत व्यवहार नहीं करते।

 एक साहित्यिक कृति के रूप में यह हमारे समय का महत्वपूर्ण सृजन है। इसे पढ़ा जाना चाहिए हर स्तर पर यह उपन्यास अपने पाठक को समृद्ध करता है पर आज के जिस समय में यह प्रकाशित हुआ है वह कुछ सवाल भी पैदा करता है। आज जब सरकार हिंदवी नायक के उत्खनन में लगी है और आठ सौ साल के इतिहास के चिन्ह मिटाने का यत्न किया जा रहा है तब इतने बड़े कैनवाश पर शिवाजी को हिन्दू आस्था के केन्द्रीय चिंतन पर स्थापित करने का यत्न क्या किसी राजनीतिक खेल का हिस्सा है या अपने कौशल की पीठ पर सत्ता की शाबासी लेने का कोई प्रयास है? फिलहाल इसका उत्तर लेखक से समय पूछेगा जरूर। दूसरी ओर एक बिरोधाभाषी पहलू भी दिखता है। आज जब तमाम पाठ्यक्रम से मुगल इतिहास को सरकारी उपक्रम के तहत  खारिज किया जा रहा है तब सीधा सवाल उठता है कि क्या मुगल पक्ष को नकार कर हम शहाजी राजे और शिवाजी राजे को बचा साकते हैं? मैं स्पष्ट तौर पर कहूँगा की ‘नहीं’। रेशमी चादर ओढ़कर दैहिक नपुंसकता को पुंसत्व का जामा नहीं पहनाया जा सकता।

फिलहाल इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए और शिवाजी के हिन्दुत्व को विवेक पूर्ण तरीके से आज के राजनैतिक हिन्दुत्व से इतर समझने का यत्न करना चाहिए। शिवाजी का हिन्दुत्व किसी घृणा की बुनियाद पर अपना स्वरूप नहीं धारण करता बल्कि वह मानव जीवन की श्रेषठता और स्वतंत्रता  के प्रति समर्पित दिखता है।

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