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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है

गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है

बात बहुत पुरानी है। शायद 1962/63  की होगी। संभवत: मैं सातवीं या आठवीं का छात्र रहा हूंगा। मेरे भाई ग्राम प्रधान थे। गरीबों को रिहायशी भूखंड आवंटित किए जा रहे थे। पटवारी पट्टे लिखने के कुछ पैसे वसूलता था। हुआ यूं कि एक दिन अचानक मैंने मुफ्त में पट्टे लिखने शुरू कर दिए। करना क्या था, पुराने पट्टे की नकल ही तो करनी थी। बस! आवंटन के प्रार्थी का नाम व पता ही तो बदलना था। गांव वाले लोग बड़े खुश हुए। बस! यहीं से सेवाभाव का कीड़ा मेरे दिमाग में घुस गया।

मैं जब 16/17 साल का ही रहा हूंगा। मेरे भाई की लड़की की शादी होना तय हो गई थी। 60-70 के दशक में बारात दो रात और तीन दिन दुलहन के गाँव में रुका  करती थी। गरीब/मजदूर लोग इस परंपरा को तोड़ने की बात तो करते थे किंतु आगे कौन आए ये साहस कोई नहीं कर पाता था। खैर! मैंने अपने भाई से बारात को केवल  एक रात रोकने की बात की तो उत्तर में मुझे एक जोर का चाँटा मिला । साथ में यह ताना भी कि दो अक्षर क्या पढ़ गया, चला है हमें पढ़ाने…पता है गाँव वाले क्या कहेंगे । यही न कि खाना खिलाने से मुंह चुरा लिया। भाई के  सामने बोलने का मुझमें साहस नही था। लेकिन भाई के चांटे ने मुझे और ताकत दे दी। अब चोराचोरी शादी में  विचौली कर रहे व्यक्ति सी मिला । वो हमारे घर आते –जा-जाते रहते थी इसलिए वो मुझे अच्छे से जानते थे। एक दिन मौका पाकर मैं उनके घर पहुंच गया।

दुआ- सलाम हुई…वो कहने लगे आज कैसे आया भई? अच्छी बात ये थी कि वो भी एक समाज सेवी होने का कर्म निभाने में अग्रीय थे। सो मैंने डर को साधते हुए उन से कहा कि आपसे एक निवेदन करने आया हूँ, लेकिन इसका भाई को पता नहीं चलना चाहिए नही तो वो मुझे मारेंगे। वो बोले कुछ बोल तो, नहीं बताउंगा तेरे भाई को। मैंने अपने मन की बात उन्हें खुलकर बता दी और एक झूठ भी बोला जो एक रात और दिन के खाने में पैसा लगेगा, वह दहेज के रूप में दे दिया जाएगा। वो मेरी ओर आंख फाड़ कर देखने लगे…बोले एक बुराई की तोड़्ने के साथ साथ दूस्ररी बुराई को बढ़ावा..वाह –भई – वाह्। वो हंसते हुए बोले सच बोल दहेज वाली बात झूठ बोल रहा है न? मैंने भी हंसकर उनकी बात बात मिलादी । अंत में उन्होंने बारात के एक रात ही रुकने की बात का समर्थन करते हुए चल ऐसा ही होगा। अब तू जाने या मैं। मुझे नहीं पता की लड़के वालों को कैसे इस बात के लिए

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मनाया और बिचोला ने एक रात बारात रुकने के प्रस्ताव को लड़के वालों की ओर से मेरे भाई से सामने रखवा  दिया। अब भाई के सामने कोई विकल्प शेष नहीं रह गया। लड़के वालों की हां मैं हां मिलानी पड़ी। किंतु भाई ने मुझसे आंखें तरेड़ कर कहा, करली न अपने मन  की।…अब झेलना गाँव वालों के ताने। हुआ भी यही, बारात जाने के बाद गांव वालों ने जाने क्या-क्या न कहा। लगभग दो साल बाद मैं दिल्ली चला आया। और जब पहली बार दिल्ली से गांव गया तो गांव के कुछ लोगों के मुंह से ये सुना कि भैया तुझे लोगों ने एक रात रोकने को लेकार क्या- क्या न कहा पर तूने किसी के सामने मुंह नहीं खोला। सच कहें तेरी इस शरारत ने बहुत से गांव वालों को कर्जा लेने से बचा लिया। यह सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। और जो भी मेरे भाई को मुझसे शिकायत थे वो भी दूर हो गई।

उस समय मैं बारहवीं पास करके नौकरी की तलाश में दिल्ली आ चुका था। इस खुशी का आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से गांव लौट कर वापस गया था। अब परम्पराओं को तोड़ने की ओर मेरा साहस और बढ़ गया। अभी मेरी नौकरी लगा नहीं थी। हाँ! याद आया कि मैं अपने रिश्तेदारों को भी कम से कम  5-6 पृष्ठ के पत्र लिखा करता था। सो पत्र लिखने का मेरा एक पुराना शौक है। जब मैं गांव में रहता था, तब कभी-कभी गांव के लोग भी अपने ख़त लिखवाने आ जाया करते थे। इस प्रकार समाज की समस्याओं से मेरा नाता जुड़ता चला गया।

उल्लेखनीय है कि कालेज में मुझे ही नहीं किसी को भी कोई जातीय दुराव देखने को नहीं मिला जबकि मेरे कालेज में तीन-चार अध्यापकों को छोड़कर शेष सभी अध्यापक ब्राह्मण थे लेकिन उनमें जाति भेद से इतर गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अजीव सी सद्भावना थी कि वे उनकी हर संभव मदद किया करते थे। सभी छात्र भी जाति भेद की भावना से परे एक साथ मिलकर रहते थे।

किंतु दिल्ली आने के बाद मनुवादी दुराचरण गहरे से देखने को मिला। यह बात अलग है कि मैं इसकी गिरफ्त से परे ही रहा। किंतु शासन-प्रशासन की घनी आबादी वाली बस्तियों के प्रति अनेक प्रकार की हो रही अनदेखी दिल को सालती रहती थी। सरकारी शिक्षा संस्थानों की दुर्दशा, बिजली की आँख-मिचौनी, बस्तियों की ऊबड़-खाबड़ गलियां होना जैसे आम बात थी और आज भी है। वैसे इस सब अव्यवस्था का कारण जनता का चुप रहकर मुश्किलों को झेलते रहना ही है ।

     ऐसे में देश की न्यायपालिका और विधायिका जैसी संवैधानिक संस्थाएं आजकल जनता की अभिभावक होने की भूमिका का निर्वाह करने में कमजोर ही नहीं हो गई है बल्कि संज्ञा-शून्य हो गई हैं। गरीब और निरीह जनता के सामने दो ही विकल्प बचे थे। पहला विकल्‍प तो यही बनता है कि वे सरकारी/राजनीतिक झूठे और खोखले वायदों की बैसाखियां फेंक दें और मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने के लिए सामूहिक रूप से सड़कों पर निकल पड़े।

इसका दूसरा सरल सहज विकल्‍प यही बचता है कि वे ईश्वर/अल्लाह की दुआ पर ही जिंदा रहे। किंतु यहां सवाल पैदा होता है-‘क्या ये रास्ते राष्ट्रीय मूल्यों और राष्ट्र की विश्वव्यापीधर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा कर पाएंगे? मेरे विचार से यह कदापि व्‍यवहारिक नहीं है। अतः आवश्यक ही है कि सरकार खुलेपन से देश के अल्पसंख्यकों, दलित-पिछड़ों को समय रहते संवैधानिक सुरक्षा और हक प्रदान करे। समाज का प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग व समुदाय एक दूसरे के हितों और धार्मिक भावना को समझे।इसकेसंरक्षण के लिए अपने दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे।इससे न केवल मानवीय मूल्यों की रक्षा होगी, अपितु परस्पर सद्भाव के सहारे राष्ट्रीय एकता की मूल भावना को बल मिलेगा।

भ्रष्टाचार के मामले में एक प्रवृत्ति चारों तरफ देखने को मिलती है। आमतौर पर भ्रष्टाचार में रसूखदार और मालदार विशेष रूप लिप्त पाए जाते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार का दोष भूखे-नंगे मजदूरों और कमजोर वर्ग पर लगाया जाता है। भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि भूखे को क्या चाहिए? केवल दो वक्‍त रोटी, तन ढापने को कपड़ा औरसिर छिपाने के लिए झोंपड़ा जिसे मकान कह सकते हैं। अगर वह भ्रष्टाचार करेगा भी तो क्‍या-ज्यादा से ज्यादा रोटी की। इससे ज्यादा कुछ  नहीं। वो समझता है कि उसकी चाहत ही उतनी है। जिसने पैसा कभी देखा ही नहीं, उसके लिए पैसे भूख बहुत ही छोटी होती है।

पैसे का मूल्य तो वो जानता है, जिसके पास पैसा होता है। जिसके पास पैसा कल भी था और आज भी है। वह इसका संचय जरूरतें पूरी करने के लिए नहीं करता बल्कि अपनी अय्याशी की भूख मिटाने के लिए करता हो कभी मिटने वाली नहीं है। इस श्रेणी में तथाकथित समाज का अभिजात्य वर्ग यथा-सवर्ण, धर्म के ठेकेदार बाबा,  राजनेता और उद्योगपति आते हैं।

उनके पास धन कल भी था और आज भी उनके ही पास है। वह इसलिए कि उन्‍हें पैसे का स्वाद अच्छे से पता है। सो वो तबका पैसा एकत्र करने के तमाम उपक्रम करता है। फिर चाहे वो नैतिक हो या अनैतिक। अनैतिक तरीके से पैसा एकत्र करना ही तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि पैसा कभी भी नैतिक तरीके से एकत्र नहीं किया जा सकता।           

कोई माने या न माने, जानते सब हैं कि भारतीय समाज एक ऐसा समाज है जिसके बीच हमेशा जातिगत विद्वेष रहा है। सच तो ये है कि भारतीय जन-समूह में अलग-अलग प्रकार की अनेक जातियां है।वे दलित-दमित लोगों के साथ पशुओं जैसा व्‍यवहार करते है। यही हिन्दू-धर्म में निरंतर विघटन का कारण रहा है और आज भी है। स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच की सामाजिक असमानता ने ही धर्म परिवर्तन में चार-चाँद लगाए हैं। किंतु हिन्दू कट्टरपंथी इस ओर से आंखें मूंदें हुए हैं।

कितना अफसोसनाक सत्य है कि एक हिन्दू, एक दूसरे हिन्दू के प्रति मुख्यतः हिन्दुत्व की भावना से व्यवहार करता है। किंतु अपने ही धर्म के अस्पृश्य हिन्दुओं के साथ जाति-भावना से व्यवहार करता है। फिर हिन्दू धर्म में कैसा भी विघटन क्‍यूं न होता रहे? खेद की बात तो ये है कि हिन्दूवादी संगठन तमाम इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के जरिए छोटे से छोटे सीरियल में हिन्दू-धर्म के तमाम देवी-देवताओं के करिश्मे दिखाकर समाज के गरीब और निरीह तबके के हृदयों में डर बिठाकर हिन्दू-धर्म में जारी विघटन की प्रक्रिया को रोकने का निरंतर और भरसक प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु जो करना चाहिए उसकी ओर उनका कोई ध्यान नहीं है।

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इतिहास गवाह है कि आजाद भारत में जब-जब भी कोई बड़ा आन्‍दोलन हुआ, जाहिर तौर पर उसका केन्द्र बिन्दु सामाजिक अथवा व्यवस्था परिवर्तन ही रहा किंतु सब के सब आंदोलन केवल सत्ता परिवर्तन के लिए। यहाँ यह विषय से बाहर की बात नहीं है। इस विषय पर फिर कभी चर्चा करना बेहतर होगा। कहने का आशय है कि भारतीय लोकतंत्र में सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की रही, सामाजिक अथवा व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर ठगी तो आम जनता ही गई। यह सब देख-देखकर, मैं और मेरे जैसे अनेक लोग ऐसी व्यवस्था से लड़ने में असहाय महसूस करके अक्‍सर हाथ मलते रह जाते हैं। आम आदमी के पीड़ा के विषय अक्सर शिक्षा, मीडिया और राजनीति का कलुषित आचरण ही रहा है। मैं जानता हूं कि नौकरी करते हुए ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता था। विभागीय स्तर पर जो कुछ किया जा सकता है, बेखौफ किया।

            मैं 1968 में बीमारी के कारण मैं बारहवीं कक्षा के परीक्षा में नहीं बैठ पाया था। जाहिर है बारहवीं की पढ़ाई जारी रखने के लिए पुन: दाखिले की आवश्यकता थी। कालेज खुलने पर मैं प्रधानाचार्य महोदय से मिला। आदेश हुआ कि तुम्हें परेशानी क्याहै। कल आ जाना तुम्‍हारा दाखिला हो जाएगा।मैं फिर अगले दिन स्‍कूल गया मगर दाखिला नहीं हुआ। फिर अगले दिन कालेज आया तो प्रधानाचार्य महोदय ने बड़े ही सहज भाव से कहा-‘बेटे! कालेज के हेड-क्लर्क है ना बचेश्वर जी, उनका कहना है पिछ्ले वर्ष तुमने कालेज को कुछ आर्थिक हानि पहुँचाई थी। छात्रवृति पाने वाले बच्चों में से किसी ने भी छात्रवृति में से भवन-निर्माण हेतु वसूली जाने वाली राशि नहीं कटवाई। उन बच्चों का कहना है कि उन्होंने ऐसा तुम्हारे इशारे पर किया था।‘मैं गुमसुम यह सुनता गया।

इसके अलावा कोई चारा ही नहीं था। मुझे शांत देखकर प्रधानाचार्य महोदय बोले-‘लेकिन तुम चिंता मत करो। तुम्हारा दाखिला तो होना ही है। ठीक है, देखते हैं। तुम कल आ जाना।उनकी बात सुनकर मैंने उनसे कहा-‘मगर गुरु जी!  मैंने तो वजीफा लेते समय दो रुपये महीने के हिसाब से बड़े बाबू को चंदा देने की पेशकश की थी। यद्यपि मैं बीमारी की हालत में ही बैलगाड़ी में डालकर वजीफा लेने के लिए लाया गया था, उन्होंने ही वह राशि मुझसे नहीं ली थी। उन्‍होंने मुंह बनाकर कहा था-‘जब किसी ने भी चंदा नहीं दिया तो तुम ही क्यों देते हो?

उन्होंने मेरी बात सुनी और कहा-‘कोई बात नहीं। अब घर जाओ, कल आ जाना।‘ इसके बाद मैं अपने कला-अध्यापक माननीय लोकमान्य शर्मा जी के पास कला कक्ष में चला गया। उनके चरण स्पर्श किए। मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर बोले-‘क्यों क्या हुआ?मुंह क्यों लटका हुआ है?(गौरतलब है कि लोकमान्य शर्मा जी कुछ नाक में बोला करते थे।) बोले, दाखिला हुआ कि नहीं?’ मैंने सारी कहानी उनके हवाले करदी। वो उन दिनों चीफ प्रॉक्टर हुआ करते थे। सारी कहानी सुनकर बोले-‘अच्छा ऐसा हैतू अब घर जा, कल आना।‘ मैं घर लौट गया।

खैर! मैंने नल लगा-लगाकर और कालिज के अध्यापकों, खासकर प्रधानाचार्य रामाश्रय शर्मा द्वारा प्रदत्त मासिक फीस व अन्य आर्थिक मदद से जैसे-तैसे 1969 में बारहवीं (विज्ञान) कक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली थी। कभी-कभी तो रामाश्रय शर्मा जी से घर के खर्च के लिए भी पैसे ले लिया करता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि मैंने किसी शनीवार में निजी खर्च के लिए कुछ पैसे मांगे तो रामाश्रय शर्मा जी ने अगले दिन कालिज में आकर पैसे ले जाने के लिए कहा किंतु अगले दिन इतवार का दिन था। मैंने कहा कि कल तो इतवार है गुरुजी…. कोई बात नहीं मैं कालिज आ जाऊंगा तुम पैसे लेने आ जाना। संयोग की बात है कि उस इतवार को घनी बारिश हो रही थी तो मेरे कभी तो कालिज जाने का मन बने और कभी नहीं… आखिर को इस सोच के तहत कि मैं अपने काम के लिए भी यदि कालिज न गया और गुरू जी आ गए तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगे…सो मैं बोरी का घौंसला सिर पर डालकर कालेज जा पहुंचा तो देखा कि शर्मा जी अपने आफिस के गेट पर खड़े होकर मेरे आने का इंतजार करा रहे थे। शायद उन्हें भी बारिश के कारण ये लगने लगा था कि वो अब नहीं आएगा। खैर! अच्छा ही हुआ कि मैं कालिज चला गया था, वर्ना शर्मा जी की नजर में शायद मैं गिर जाता। अंतत: मैं पैसे लेकर भीगता हुआ अपने घर आ गया। दरअसल पैसों की जरूरत तो मेरे भाई को थी। मैंने कहा भी था कि मैं कहाँ से लाऊँ। भाई साहब तपाक से बोले अपने प्रिंसीपल साहेब ले आ… तेरे को मना थोड़े ही करेंगे। भाई के दवाब में आखिर ये सब करना पड़ा… रहना तो घर में ही था न।

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