गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है-4
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की चौथी किश्त है।
फ्लैस बैक : मेरे बचपन के दिन –रात
आज जब मैं अपने पीढ़ी के लोगों के ग्रामीण जीवन की कथा कह रहा हूँ, मैं अपने जीवन के अस्सी वर्ष पार कर गया हूँ। ये अकेले मेरे बात नहीं है, अपितु अकसर सभी ग्रामीणों की है। मेरी पीढ़ी के बहुत से और लोग जो ग्रामीण पृष्ठ्भूमि के होंगे और जिनके जीवन में अधोलिखित बातें सबके लिए एक खास मुकाम रखती हैं। मेरा मानना है कि दुनिया में जितना बदलाव हमारी पीढ़ी ने देखा है, हमारे बाद की किसी पीढ़ी को “शायद ही” इतने बदलाव देख पाना संभव हो या फिर इससे भी ज्यादा बदलाव देखने को तैयार रहना चाहिए।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने बैलगाड़ी से लेकर सुपर सोनिक जेट देखे हैं। बैरंग ख़त से लेकर लाइव चैटिंग तक देखी है और “वर्चुअल मीटिंग जैसी” असंभव लगने वाली बहुत सी बातों को सम्भव होते हुए देखा है। और यह सब संभव हुआ कम्प्युटर के प्रचार-प्रसार से।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने कई-कई बार मिटटी के घरों और झोंपड़ियों के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं थीं ज़मीन पर पेड़ के पत्तों पर बैठकर खाना खाया है। बेला या कटोरी में डाल-डाल कर दूध अथवा चाय पी थी।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने बचपन में मोहल्ले और मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे जैसे खेल खेले थे ।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने रातों में डीबरी, लालटेन या और दिन के उजाले में चादर के अंदर छिपा कर नावेल पढ़े थे। होम वर्क किया करते थे। बल्ब की पीली रोशनी तो किसी किसी को ही नसीब होती थी।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने अपनों के लिए अपने जज़्बात खतों में आदान-प्रदान किये थे और उन ख़तो के पहुंचने और जवाब के वापस आने में महीनों तक इंतजार करना पड़ता था।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने कूलर, एसी या हीटर के बिना ही बचपन गुज़ारा था और बिजली का तो केवल नाम भर सुना था। हाँ! खेतों की सिंचाई करने के लिए एक सरकारी ट्यूब वैल अक्सर लगे होते थे जिस पर गाँव के छोटे-बड़े स्नान कर लिया करते थे।
- मेरी पीढ़ी के लोग अक्सर अपने छोटे बालों में सरसों का ज्यादा तेल लगा कर स्कूल और शादियों में जाया करते थे। कपड़ों पर घर के तले वाले बर्तनों से स्त्री (प्रेस) किया करते थे।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने स्याही वाली दवात या पेन से कॉपी किताबें, कपड़े और हाथ काले-नीले किये थे। तख़्ती पर सरकंडे की क़लम से लिखा करते थे और तख़्ती को चमकाने और धोने का खुद ही किया करते थे ;
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने टीचर्स से सीसम के पेड़ की कमचियों से मार खाई थी और घर में शिकायत करने पर फिर मार घऱ वालों से मार पड़ती थी ।
- मेरी पीढ़ी के लोगों अक्सर मोहल्ले के बुज़ुर्गों को दूर से देख कर नुक्कड़ से भाग कर इधर-उधर छिप जाया करते थे। और समाज के बड़े बूढ़ों की इज़्ज़त डरने की हद तक करते थे ।
- मेरी पीढ़ी के लोग अपने स्कूल के सफ़ेद केनवास के जूतों पर खड़िया का पेस्ट लगा कर चमकाया करते थे। खड़िया न होने पर मुल्तानी मिट्टी से जूतों को पोत दिया करते थे ।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने गुड़ तो खूब खाया किन्तु गुड़ की चाय कभी-कभी ही पी थी क्योंकि तब तक चीनी का चलन होने लगा था। काफी समय तक सुबह को कोयले का काला या नीम और कीकर की लकड़ी की दातूनों का प्रयोग किया जाता था। दंत मंजन या सफेद टूथ पाउडर किसी बड़े घर में ही इस्तेमाल किया जाता था। और कभी कभी तो नमक को सरसों के तेल में मिलाकर दाँत साफ किए जाते थे। ज्यादातर तो नीम के तने से तूथ ब्रश का काम लेते थे। वह भी जंगल में शौच करने के लिए आते-जाते समय। मेरी पीढ़ी के लोगों के वो लोग रहे हैं, जिनमे से किन्हीं को चांदनी रातों में, रेडियो पर BBC की ख़बरें, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो, बिनाका गीत माला और हवा महल जैसे प्रोग्राम सुनने को मिल जाते थे वो भी उन गाँवों में जो शहरों के पास हुआ करते थे।
- मेरी पीढ़ी के वो लोग हैं जो छत और आँगन में पानी का छिड़काव कर गर्मी बिताने का यत्न किया करते थे। कारण कि घर कम तो आदमी ज्यादा होते थे। चार्पाईयां कम होने के कारण घर के कुछ सदस्यों को गरमियों में छत पर सोना पड़ता था। छ्तों पर जो भी कपड़ा मिला बिछा लिया जाता था और सो जाते थे ।
- किसी-किसी घर टेबल फैन भी देखने को मिल जाता था….उसे चलाते समय उसके राउंडर को फ्री कर दिया जाता तो वह एक पंखा ही सब को हवा के लिए काफी हुआ करता था।
- सुबह सूरज निकलने के बाद भी ढीठ बने सोते रहते थे ।
- मेरी पीढ़ी के लोगों ने वो खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं,जो लगातार कम होते चले जा रहे हैं।
- 1980 का दशक आते-आते काफी कुछ बदल गया था। लगने लगा था कि अब पुराना समय कुछ नया सा होने लगा है। वो पुराना दौर बीत गया जब छ्तों पर चादरें बिछा करती थीं। किंतु जो लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहर की ओर पलायन कर गए उनके लिए काफी कुछ बदलने के अवसर दिखने लगे। अबके तो लोग जितना पढ़ लिख रहे हैं, उतना ही खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन, व निराशा में खोते जा रहे हैं।
- कोविड के दौरान एक दौर वो भी आया कि परिवारिक रिश्तेदारों (बहुत से पति-पत्नी, बाप-बेटा, भाई-बहन आदि) को एक-दूसरे को छूने से डरते हुए भी देखा है। पारिवारिक रिश्तेदारों की तो बात ही क्या करें, खुद आदमी को अपने ही हाथ से अपनी ही नाक और मुंह को छूने से डरते हुए भी देखा है। “अर्थी” को बिना चार कंधों के शमशान घाट पर जाते हुए भी देखा है। “पार्थिव शरीर” को दूर से ही “अग्नि दाह” लगाते हुए भी देखा है।
प्राथमिक स्कूल की राह पर…
दीन-दुनिया से बेखबर, खेलते-कूदते न जाने कब मैं 8-9 साल का हो गया। गाँव में बच्चों के साथ समय बिताने के लिए गिल्ली-डंडा खेलना, भैंस की कमर पर बैठकर गाँव से सटी पोखर में नहाना, कंचे खेलना और न जाने कितने ही ऊट-पटांग खेल ही हमारे मजोरंजन के साधन होते थे। घर वालों में से किसी को भी मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में कोई चिंता न थी। स्कूल में दाखिला तक नहीं दिलाया। माँ घर के काम-काज और डांगरों (पशुओं) की देखरेख में इतनी व्यस्त रहती थी कि उसे कुछ और सोचने की फुरसत ही नहीं होती थी। पैसे-धेले का हिसाब-किताब रखना तथा उसका रख-रखाव करना उसके लिए मुख्य काम था। उसे भी पढ़ाई-लिखाई से कुछ लेना-देना नहीं था। मेरे भाई को थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना जरूर आता था, पर वे भी कभी स्कूल नहीं गए। घर में वे ही एक मात्र कमाऊ व्यक्ति थे। आखिर एक दिन भाभी ने उनसे मेरी पढ़ाई के बारे में कुछ-खरी-खोटी बातें की तो भाई साहब अगले दिन ही वे मुझे गाँव के नजदीक वाले कस्बे ‘केशोपुर सठला’ के प्राथमिक स्कूल में ले गए और स्कूल में मेरे दाखिले की बात की।
जन्म-प्रमाण तो उस समय हुआ ही नहीं करते थे सो मास्टर जी ने अपने हिसाब से मुझे पाँच वर्ष का बनाकर मेरी जन्म-तिथि – 08.08.1949 लिखी और मेरा पहली कक्षा में दाखिला कर दिया। किंतु मुझे घर और स्कूल में कोई अंतर नहीं लग रहा था। मंद-बुद्धि जो था। किसी प्रकार की चंचलता मेरे आस-पास तक न थी। स्कूल में दो-चार दिन आने के बाद पता चला कि गाँव के तीन-चार बच्चे पहली कक्षा में और पढ़ते थे और मुझे जोड़कर अब एक ही गांव के पाँच छात्र हो गए थे। स्कूल गांव से लगभग एक किलो मीटर ही होगा सो अब हम चारों का रोजाना साथ-साथ पैदल ही स्कूल आना-जाना हुआ करता था। किंतु मेरा पढ़ाई-लिखाई के प्रति कोई खास रुझान नहीं था। घर से किताब और तख्ती-किताबों का झोला (बस्ता) स्कूल ले जाना और अक्सर ज्यूँ का त्यूँ स्कूल से घर ले आना ही अपना काम होता था। घर पर कोई कुछ पूछताछ तो करता ही नहीं था। बाकी सब पढ़ने में मुझसे अच्छे थे।
जब स्कूल ही जाना बंद कर दिया….
स्कूल आते-जाते दो साल ही गुजरे होंगे। मुझसे बड़ी बहन अपनी बेटी की बीमारी का इलाज करवाने हमारे घर पर ही आई हुई थी। बच्ची साल-डेढ़ साल की होगी। एक दिन मैं और मेरे जीजाजी उसे डॉक्टर के पास, नजदीक के कस्बे भवन बहादुर नगर साइकिल पर लेकर जा रहे थे। मैं बच्ची को गोद में लेकर साइकिल की पिछली सीट पर बैठा था। गाँव से थोड़ी दूर जाने पर मैंने पाया कि बच्ची का हिलना-डुलना बन्द हो गया है। मैंने साइकिल रुकवाई और जीजा जी से बच्ची को देखने के लिए कहा। उन्होंने बच्ची को देखा और बिना कुछ कहे साइकिल गाँव की ओर मोड़ ली और भारी मन से बोले ‘गई’। मैं बच्ची को लेकर फिर साइकिल पर बैठ गया। घर पहुँचे तो रोआ-राट मच गया। यह जानते देर न लगी कि बच्ची मर गई है। मुझे वह बहुत प्यारी थी। मैं भी फफक कर रो पड़ा। मुझे उस दिन कुछ-कुछ यूँ लगा कि दुनिया के प्रति मेरी बचपन की बेहोशी जैसे छंटने लगी है और दुनियावी सोच के पंखों ने फड़फड़ाना शुरू कर दिया हैं। खैर! हुआ यूँ कि मैंने बचपनी भावना में बहकर स्कूल जाना ही बंद कर दिया।
जब मास्टर जी घर पर ही आ धमके…
खेलकूद में लगभग एक सप्ताह गुजर गया, मैं स्कूल नहीं गया। इस पर एक दिन स्कूल में मुझे पढ़ाने वाले अध्यापक – मा. हरपाल सिंह जी अचानक घर आ धमके। उस दिन संयोगवश मैं भी घर पर ही था। खेलने-कूदने कहीं नहीं गया था। घर वालों ने मास्टर जी को आदर सहित खाट पर बिठाया। मास्टर जी ने इधर-उधर देखा और मेरी ओर हाथ का इशारा करके मुझे अपने पास बुलाया। बोले – स्कूल क्यों नहीं आ रहा आजकल तू…..? मैं जड़ बना सुनता रहा। उनके दोबारा पूछने पर मैंने सिर झुकाए हुए ही कहा कि मुझे….मुझे नहीं पढ़ना है। इतना सुनकर मास्टर जी का चेहरा-मोहरा बदल गया और उन्होंने घर वालों – भाई व भाभी से सवाल कर डाला – सुना तुमने ये क्या कह रहा है? क्या तुम भी नहीं चाहते कि ये पढ़े? भाई व भाभी ने मेरे स्कूल न जाने के प्रति अनभिज्ञता जताई और बड़े ही हल्के मन से कहा कि हम तो चाहते हैं कि ये पढ़े।…. इसीलिए तो स्कूल में नाम लिखाया है… इसका।
इतना सुनकर मास्टर जी बोले – ठीक है तुम क्या चाहते हो क्या नहीं, तुम जानो किंतु मैं इतना जानता हूँ कि इसे पढ़ना है। इसका झोला (बस्ता) लाओ।…इसे आज से ही स्कूल जाना है। भाभी मेरा झोला ले आई। लाकर मेरे कंधे पर टांग दिया। मास्टर जी के हाथ में कमची लगी थी जिसे देखकर मेरी हवा खराब हो रही थी। मास्टर जी ने कमची हिलाते हुए मेरा हाथ पकड़ा और मुझे साथ लेकर चल पड़े स्कूल की ओर। मेरी एक आँख कमची पर तो दूसरी झोले पर जमी थी। मास्टर जी ने अब मेरी रोजमर्रा की गतिविधियों पर ध्यान रखना शुरु कर दिया था।
इसका मुझ पर यह असर हुआ कि मैंने रोजाना स्कूल जाना शुरु कर दिया किंतु पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। स्कूल को खाना ले जाने की बात तो थी ही नहीं। हाँ! कभी-कभार आधे पैसे का तांबे वाला सिक्का मिल जाया करता था जिसमें स्कूल के पास लगने वाले बीर बाजार के मैदान में एक पेड़ के नीचे स्थित सीताराम हलवाई की सडक पटरी पर कौने में लगी अस्थाई दुकान से मटर की चाट या आलू के भल्ले लेकर खा लेता था। सीताराम की मटर की चाट बड़े लोग भी चटकारे लेकर खाते थे। कई लोग तो दूर गावों से भी सीताराम के चाट खाने आते थे।
मुफ्त की ट्यूशनिंग….
कब परीक्षा होती थी, कब नहीं, इसका भी मुझे कुछ अता-पता नहीं होता था। पता नहीं, मैं कब और कैसे पांचवी कक्षा में आ गया। पढ़ाई के प्रति अरुचि देखकर, अफसोस भरी सोच मेरे जहन में घर करने लगी थी किंतु किसी भी बालक के लिए इस प्रकार की सोच केवल क्षणिक ही कही जा सकती है, दीर्घकालिक नहीं। यही हाल मेरा था। सोच तो आती थी किंतु मैं तुरंत ही उससे विमुख भी हो जाता था।
स्कूल में दो ही अध्यापक होते थे। एक – श्री हरपाल सिंह और दूसरे – श्री रघुनंदन शरण शर्मा। रघुनंदन शरण जी बुजुर्ग और स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। चौथी व पांचवी कक्षाओं को पढ़ाया करते थे। वे पांचवी कक्षा के सभी बच्चों को बिना किसी जातिगत भेदभाव के सर्दी के मौसम में अपने घर पर रोजाना रात को बिना कोई पैसा लिए ट्यूशन पढ़ाया करते थे। उन्होंने ट्यूशन पढ़ने के बाद बच्चों के सोने के लिए एक बड़े से कमरे में ईख की पताई (गन्ने के सुखे हुए पत्ते) डलवाकर उस पर जाजम बिछवा दी थी। कुछ शरारती बच्चे ऐसे भी थे जो अंधेरे में जला हुआ मिट्टी के तेल से जलने वाला दीया (दीपक) सिर पर रखकर ‘भूत आया……भूत आया’ खेल खेला करते थे। एक दिन मास्टर जी ने देख लिया। सबको खूब डांट पड़ी। सुबह को उठकर सब बच्चे अपने-अपने घर जाते और नहा-धो कर स्कूल को आते थे। स्कूल के बाद घर जाना और खाना खाकर ट्यूशन पढ़ने जाना रोज का काम हुआ करता था।
यदि मास्टर हरपाल सिंह जी न होते तो तेजपाल सिंह ‘तेज’ ‘तेजू’ बनकर रह जाता
उस समय पांचवी की परीक्षा बोर्ड की होती थी। परीक्षा से पहले कुछ दिन की छुट्टी हुआ करती थी। फरवरी-मार्च के महीने में सर्दियां कुछ कम हो ही जाती हैं। खेलकूद में छुट्टियां न जाने कब खत्म हो जाती थीं, कुछ पता ही नहीं पड़ता था। इस दौरान मेरे साथ एक दुखद घटना ये घटी कि खेलकूद में मेरे दाईं टांग के घुटने में गहरी चोट लग गई। उधर परीक्षा सिर पर आ गई। चोट पक गई और घुटने में मवाद पड़ गई थी। ऐसे में कैसी पढ़ाई, कैसी लिखाई। घुटने में दर्द के कारण वैसे ही पढ़ने में कौन सा मन था। परीक्षा नजदीक के दूसरे कस्बे भवन बहादुर नगर (बी.बी.नगर) में होनी थी। अब मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल था कि परीक्षा देने कैसे जाया जाएगा। घरवालों का भी इस ओर कोई ध्यान नहीं था। खैर! परीक्षा से पहले मेरी चोट के बारे में मा. हरपाल सिंह जी को पता लग गया था। वे परीक्षा से एक दिन पहले घर आ पहुंचे। मेरा हाल जाना और दुख जताते हुए मेरे भाई से मालूम किया कि घर पर कोई खटोला है कि नहीं। (छोटी खाट को गावों में आज भी खटोला ही कहते हैं। यदि नहीं तो आस-पडोस से मांगकर ले आवें। खटोले का इंतजाम तो कर दिया गया किंतु मास्टर जी को छोड़कर सबके दिमाग में एक ही प्रश्न था कि आखिर इस खटोले का होगा क्या। मास्टर जी से यह सब पूछने की हिम्मत भी किसी ने नहीं जुटाई। मास्टर जी ने मुझसे कहा कि कल परीक्षा देने चलना है – समझ गया कि नहीं। सुबह तैयार रहना। इतना कहकर मास्टर जी चले गए।
देहातों में कैसी तैयारी? दिन निकला, हाथ-मुंह धोए, कमीज पजामा पहना और हो गए तैयार। अगले दिन सूरज थोड़ा ही चढ़ा था कि मास्टर जी अपने साथ छ:-सात बच्चे लेकर घर आ गए। मुझे खटोले पर डाला, बच्चों ने खटोला उठाया और चल पड़े परीक्षा केन्द्र की ओर। परीक्षा समाप्त होने पर बच्चे ही मुझे खटोले पर डालकर घर पर छोड़ गए। परीक्षा के समाप्त होने तक यही सिलसिला चलता रहा। मैं भी पांचवी कक्षा में पास हो गया। यदि आज मैं ये कहूँ कि यदि मास्टर हरपाल सिंह जी न होते तो आज का तेजपाल सिंह ‘तेज’ देहात ही में ‘तेजू’ बनकर रह जाता। इधर-उधर चाकरी में लगा होता।
इस तरह मैं सातवीं कक्षा में आ गया। कालिज में सातवीं कक्षा के तीन सेक्शन होते थे। प्रत्येक सेक्शन में लगभग पैंतालीस-पैतालीस छात्र होते थे। स्कूल में साल में तीन परीक्षाएं हुआ करती थीं- तिमाही, छमाही और सालाना। तिमाही परीक्षा का परिणाम आया तो जाना कि मेरा एक साथी तीनों सेक्शनों में पांचवे नम्बर पर आया। मुझे इसकी खुशी तो थी किंतु पता नहीं क्यों, मुझे अचानक इस बात का दुख भी सताने लगा था कि मेरा कोई नम्बर क्यों नहीं। साथी छात्रों के संसर्ग में रहकर मेरी सोच का पंछी जैसे किसी खाई से निकलकर मैदान में आने को आतुर होने लगा था। अब सोते-जगते यही सवाल मेरे ज़हन में घूमता रहता। फलत: किताबों से कुश्ती करना शुरू कर दिया। इसके बाद पढ़ाई के प्रति मेरी रुचि इस कदर बढ़ी कि मुझे पढ़ाई के अलावा कुछ और भाता ही नहीं था।
मेरी इस हालत को देखकर,मेरी भाभी कभी-कभी सोचने लगती कि पता नहीं इसे क्या हो गया है। अब न तो ये खेलने जाता है और घर पर भी चुप-चुप ही रहता है। भाभी ने ये बात माँ से भी शिकायती लहजे में कही होगी। माँ ने मुझसे कुछ कहा तो नहीं किंतु मुझ पर नज़र रखने लगी। दुकड़िया में मुझे देखने आती और मुझको पढ़ता हुआ देखकर वापिस हो जाती, फिर सारा किस्सा भाभी को सुनाती थी। जब कहीं मेरे ना खेलने और हमेशा चुप-चुप रहने का मामला उनके दिमाग से उठ गया था। पढ़ाई के प्रति बढ़ते रुझान के चलते, छमाही की परिक्षा में मुझे अप्रत्याशित सफलता मिली। इस बार मैं लगभग 135 बच्चों यानी पूरी कक्षा में दसवें-ग्यारहवें पायदान पर पहुँच गया। सीधे-सादे और सामान्य दर्जे के छात्र का अचानक छलांग लगाना, मेरे कुछ साथी छात्रों को खला भी, जो स्वाभाविक ही था।
मेरे ही गाँव का साथी अमरनाथ तो मुझसे ऐसे ख़फा-ख़फा सा रहने लगा जैसे मैंने उसका नम्बर ही छीन लिया हो। अब सालाना परीक्षा की बारी थी। मैं और मन लगा कर पढ़ने लगा। सालाना परीक्षा सिर पर थी। कई बार तो सर्दियों के मौसम में रात को पढ़ते-पढ़ते मैं सो जाया करता था और मिट्टी के तेल का दीया (डिबिया) जलता ही रह जाता था। उसे माँ या भाभी में से कौन, कब बंद करता होगा, नहीं मालूम। पढ़ाई के लिए और तो कोई खास सुविधा थी नहीं, ना घड़ी, ना मेज। खैर! सातवीं की सालाना परीक्षा भी समाप्त हो गई। रिजल्ट आया तो जाना कि पूरी कक्षा में इस बार मेरी सातवीं पोजीशन थी। मैं बेहद खुश हुआ। टीचर्स भी मेरी निरंतर बढ़त को देखकर मुझे प्यार की नज़र से देखने लगे थे। अचानक इतना बड़ा परिवर्तन किसी और को तो क्या आज मुझे भी नहीं पच रहा है। ये सब कैसे हुआ? मैं खुद नहीं जानता कि आखिर मुझे हो क्या गया था कि पढ़ाई के अलावा मुझे कुछ और सूझता ही नहीं था। यदि मैं ये कहूँ कि सातवीं कक्षा का वह वर्ष ही पढ़ाई के मामले में मेरे लिए एक सकारात्मक ‘टर्निंग पाइंट’ था तो अनुचित न होगा।
बचपन की भूल-भुलैया से बाहर निकला ही था कि…
अब मैं आठवीं कक्षा में था। पढ़ाई का सिलसिला पहले जैसा ही चलता रहा और मैं दिनोंदिन पढ़ाई से जुड़ता चला गया। अध्यापकों और तरक्की पसंद साथियों का भरपूर सहयोग मिल रहा था। जब भी चाहूँ कोई भी परामर्श लेने की छूट, मुझे सभी अध्यापकों से मिल गई थी। मेरे लिए अब वो समय था जब मैं अच्छे और बुरे की समझ से रुबरू हो रहा था। हकीकत ये है कि छोटेपन में मुझे छोटे-बड़े के सम्मान का कोई ख़याल नहीं था। सबको ‘तू’ कहकर ही संबोधित किया करता था किंतु अब सबके प्रति सम्मान का भाव स्वत: ही पनपने लगा था। मैं बचपन की भूल-भुलैया से जैसे बाहर आने लगा था। किंतु अचानक माँ का स्वास्थ्य गिरने लगा और वो इस कदर बीमार हो गई कि खाट पकड़कर रह गई। अब घर का सारा काम भाभी के कंधों पर आ गया था। माँ की सेहत निरंतर गिरती चली गई। एक दिन माँ ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे सौ का एक नोट देकर सिर पर हाथ फेरते हुए धीरे से बोली – ले इसे अपने पास रख ले। मैंने नोट लिया और उसे पैसे रखने वाले मटके में ही रख आया तो जाना कि माँ इस दुनिया को छोड़ चुकी है।
अब मेरे बचपनी महल की बुनियादें जैसे बुरी तरह हिल गईं। अब केवल भाई और भाभी का ही आसरा शेष रह गया था। माँ के गुजरने के बाद बस्ती वालों से एक खिताब जो मुझे मिला, वह था ‘बेचारा अभागा’, शायद इसमें उनका मेरे प्रति प्यार और मेरे भविष्य के प्रति चिंता का भाव निहित था। किंतु माँ के गुजरने के बाद भी मेरे प्रति भाई-भाभी के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया था इसलिए कुछ ही दिनों में माँ-बाप की बिदाई जैसे मेरे दिमाग में भी धुंधली पड़ने लगी थी और धीरे-धीरे एक समय ऐसा आया कि मुझे लगने लगा कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। फलत: पढ़ाई के प्रति मेरा रुझान जस का तस बना रहा। आठवीं कक्षा में भी मैं अच्छे अंक लेकर पास हुआ। इस बार भी मेरी पांचवी-छटी पोजीशन ही रही। कहने की जरूरत नहीं कि मेरे बचपन का यही अंतिम पड़ाव भी था।
मेरी शिक्षा और मेरी कद-काठी की चौपाल पर चर्चा
जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि सातवीं कक्षा में आने से पूर्व मेरा पढ़ने-लिखने में कम ही मन लगता था। बस! खेलना-कूदना साथियों के साथ मार-पीट करना प्रत्येक शर्त पर अपनी बात को ही मनवाना, जाने क्या-क्या मेरी शरारतों में शामिल था। पूरा गाँव परेशान रहता था मेरी शरारतों से। सबकी नज़र रहती थी मुझ पर। सबकी जुबान पर बस एक ही सवाल रहता था, पता नहीं पढ़-लिखकर क्या करेगा ये छोरा। इसका कद भी तो इतना छोटा है कि ये पुलिस में भी तो भर्ती नहीं हो सकता अभी तक तो इस गाँव में कोई कुछ बनना तो क्या ठीक से पढ़ा-लिखा भी नहीं है। बादाम को देखो, टूक्की को देखो, दसवीं भी पास नहीं कर पाए। शादी करके गाँव के ही होकर रह गए। फिर ये ही क्या कर लेगा, पाँच फुटा तो वैसे ही है। डाकू-बदमाश भी तो नहीं बन सकता। कुछ कहते कि अरे! ये सब इसकी बचपनी शारारतें हैं, अभी नादान है, कुछ समझ नहीं है अभी इसे। समय शायद इसे ठीक रास्ते पर ले आए। इसने ये सब शरारतें छोड़ दीं तो कुछ आशा की जा सकती है पर ऐसा लगता तो है नहीं। ऊपर से न बाप है और न माँ, भाई है पता नहीं आगे पढ़ाए न पढ़ाए।
मेरे बारे में जाने क्या-क्या सोचते रहते थे मेरे गाँव वाले। एक बात साफ कर दूँ कि वे ये सब बातें मेरे पीछे नहीं, मेरे सामने ही किया करते थे। कुछ मुझे चिढ़ाने के भाव से तो कुछ मुझे समझाने के आशय से। जाहिर है कि इस प्रकार की बातें किसी को भी अच्छी नहीं लगेंगी, मुझे भी अच्छी नहीं लगती थीं। तब मैं इतना समझदार भी कहाँ था, सब कुछ सुनता रहता और बचपनी हंसी में उड़ा देता। उनकी बातें सुनकर कभी-कभी तो मुझे भी उनकी बातों में दम लगता था और मैं अन्दर ही अन्दर भविष्य के प्रति निराशा ओढ़कर मौन अवस्था में चला जाता था। आज जब मैं ये सत्य लिख रहा हूँ, मेरे वो अपने शेष नहीं रहे हैं किन्तु उन सबकी सूरतें आज भी रह रह कर आँखों से टकराती रहती हैं। सब के सब अंतर्ध्यान हो गए है। अब जब मैं अस्सी साला हो गया हूँ तो मुझे अपने उन बुजुर्गों की बातों का ख़याल आता है तो मुझे खुली आँखों सपने से दिखने लगते हैं। सपने भी कमाल होते हैं ना? खुली आँखों देखे जाते है और नींद में भी।
वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है कि किस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं