गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है -5
केंद्र से परिधि तक के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक तेजपाल सिंह तेज के संस्मरण। यह उनके संस्मरण शृंखला की पाँचवीं किश्त है।
माँ : बनिया भी, कूटनितिज्ञ भी
अपने गाँव की चर्चा करते समय यदि मैं अपने घर-परिवार की बात न करूँ तो शायद ये उनके साथ नाइंसाफी होगी। जैसा की ऊपर बताया जा चुका है कि गाँव में चार-पाँच परिवार ही ऐसे थे जिनके पास खेती की जमीन नहीं थी। उनमें से एक घर हमारा भी था। पिता के देहांत के बाद घर में बड़े भाई ही अकेले कमाऊ व्यक्ति रह गए थे। पिता जी खेती-बाड़ी में मजदूरी करते थे तो बड़े भाई उस समय जमीन से पानी निकालने वाला हैंड-पम्प लगाया करते थे। भाई जो भी पैसे कमाकर लाते, माँ को सौंप देते थे। यहां यह बताना अतार्किक नहीं होगा कि मेरी माँ अनपढ़ होने के बावजूद पैसे के रख-रखाव के साथ-साथ ज़हनी तौर पर एक राजनेता के जैसी थी। कौन सा काम कब करना है, कैसे करना है, पैसा कब, कहाँ और कितना खर्च करना है, कितनी बचत करनी है, उसे वह बखूबी अंजाम देना जानती थी। माँ के गोरे-चिट्ठे छरेरे बदन और ठिगने कद को देखकर माँ की इस कैफियत के विषय में आसानी से कुछ जान लेना, किसी के लिए भी आसान नहीं था। गाँव में ही नहीं अपितु पड़ोसी कस्बे के जानकार भी माँ को फूफी या बहन के रिश्ते में देखते थे। सबसे अच्छे रसूख रखना उसे बहुत भाता था। एक खेती विहीन मजदूर की पत्नी होने के बावजूद घर में पाँच-छ्ह भैंस रखती थी। पड़ोसी कस्बे सठला के एक जमींदार की पंद्रह-बीस बीघा खेतीहर जमीन को लगान पर अथवा बटाई पर हमेशा लेकर काश्त करती थी।
माँ के समय में हमारे घर की आर्थिक स्थिति गाँव के हिसाब से ठीक-ठाक ही थी। उन दिनों घरों में अलमारी आदि जैसी कोई चीज नहीं होती थी। घर में अनाज रखने के किए कुठला/कोठी या फिर बड़े-बड़े घड़ों का प्रयोग किया जाता था। पैसे रखने के लिए भी यही साधन उत्तम समझे जाते थे। लेकिन माँ पैसे रखने के लिए अक्सर अनाज अथवा दालों से भरे हुए मटकों का प्रयोग किया करती थी। जब मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगी तो माँ अक्सर मुझसे ही पैसे रखवाने का काम करवाती थी। पैसे-धेले के मामले में घर में जहाँ मां का साम्राज्य था, वहीं घर की रसोई और घर की देखरेख का जिम्मा भाभी का था। बच्चों की देखभाल का जिम्मा भी भाभी का ही था। देखा तो यह भी गया कि अच्छे-अच्छे बड़े घरवाले लोग भी माँ के पास अनाज व उधार पैसे माँगने के लिए आया करते थे। माँ थी कि कोई माँगता पाँच सेर, तो देती थी तीन सेर। ऐसे ही पैसे के लेन देन के मामले में देखने को मिलता था। शादी-ब्याह के मौकों पर कई लोग माँ से पैसे उधार मांगा करते थे। यह भी कि माँ गाँव भर जवान लोगों के लिए ‘फूफी’ तो उमरदराज लोगों के लिए ‘बहन’ थी।
ऐसे मौके तो बहुत ही कम देखने को मिले जब माँ से किसी को पैसे देने के लिए मना न किया हो। नकारा लोग तो माँ के पास फटकते ही नहीं थे। होता यूँ था कि पैसे तो घर पर रखे होते थे किंतु वह मांगने वाले से हमेशा यही कहती थी कि अच्छा ठीक है भैया, लाला के पास जाऊंगी, पैसे मिल गए तो तुम्हें दे दूंगी। लाला के पास जाती तो सर्दी-गर्मी में मुझे साथ ले जाती थी। इस प्रकार माँ ने कभी भी किसी को न तो पूरे पैसे दिए और न ही शादी-ब्याह के समय से ज्यादा पहले। यह सब देखकर अनजाने में मुझे बड़ी हैरत होती थी। एक दिन मैंने माँ से उसके इस बर्ताव के विषय में पूछ ही लिया कि वह ऐसा किस लिए करती है। माँ ने कहा तू अभी बालक है, अभी नहीं समझेगा तू। सुन–अनाज माँगने वाले को यदि एक बार में ही मुंह-माँगा अनाज मिल जाएगा तो वो फिर दोबारा जल्दी थोड़े ही आएगा, समझा कि नहीं। और यदि पैसे माँगने वाले को मुंह-माँगे पैसे और वह भी काम के समय से ज्यादा पहले मिल जाएं तो वह फिजूल-खर्ची कर बैठेगा। इस तरह वह पैसे की फिजूल-खर्ची का हमेशा ध्यान रखती थी। इस माने में माँ न केवल एक बनिया थी अपितु सबके बुरे-भले का पूरा ख़याल रखती थी, यह कहना ग़लत न होगा। मेरे प्रति माँ का जो प्यार था वह था कि जब भैंस का दूध निकालती थी तो मुझे रोजाना भैंस के पास बिठाकर ताजा निकाला गया कच्चा दूध पिलाया करती थी।
माँ तो आखिर माँ होती है : तकरार भी ममता भी
एक घटना और याद आ रही है। मैं चौथी या पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा कि एक दिन भाभी और माँ के बीच किसी बात को लेकर कुछ कहा सुनी हो गई। कहा सुनी इतनी बढ़ गई कि भाभी भाई पर ऐसी बिफरी कि भाई के पास भाभी का साथ देने के अलावा शायद कोई और रास्ता नहीं रह गया था। माँ को यह सब गवारा न हुआ। आखिर थी तो वह भी औरत उतर आई जमीन पर। गुस्से में भाई से बोली – ठीक है जोरू के गुलाम, तू मेरे से मर गया और मैं तेरे से। अपनी घरवाली को साथ लेकर इसी टैम निकल जा घर से बाहर। कहीं भी जा…बस! इसी टैम चला जा…इतना सुनकर भाई ने भाभी का हाथ पकड़ा और बढ़ने लगे दरवाजे की ओर…तू-तू मैं-मैं में कुछ और समय गुजर गया। यह सब देखकर मुझसे और कुछ तो बना नहीं, मैं जोर-जोर से रोने लगा और माँ की टांगों से चिपट गया। पर ये क्या, माँ ने मुझसे बड़े ही धीरे से कहा – मुझको छोड़.. भैया को पकड़। मैंने रोते हुए माँ के मुंह की ओर देखा और भाई को छोड़कर भाभी की टांगों जा चिपका और जोर-जोर से रोने लगा। कुछ देर रोता रहा। कभी माँ की ओर देखता तो कभी भाभी की ओर। आखिर भाभी टूट गई और मुझे बाहों में भरकर वह भी सुबकने लगी। हाथ में लगा सामान तुरंत नीचे रख दिया और मुझे लेकर अंदर कोठे (कमरे) में जा बैठी। इस प्रकार माँ और भाभी के बीच की रार अंजाम को पहुंच गई। तूफान के बाद वाली शांति घर भर में पसर गई। आज जब मैं माँ के इस व्यवहार के बारे में सोचता हूँ तो केवल सोचता ही रह जाता हूँ। माँ बच्चों से कितनी ही भी खफा हो जाए किंतु उसके मन में ममता का जो सागर होता है, वह कभी सूख नहीं पाता।
भाभी, मेरी भाभी कम, माँ ज्यादा थी
आज जब मेरे संगी-साथी इस सत्य को जान गए हैं कि मेरे पिता का देहांत मेरे बचपन में ही हो गया था। माँ थी कि उसका ध्यान बस भैंसों और खेतीबाड़ी पर ज्यादा रहता था। चौधड़ात उसके डीएनए में थी। गाँव के झगड़े निपटाने में उसका समय बीतता था। भाई अपने काम-धाम के बाद ग्राम-प्रधान होने के कारण प्रधानी के काम में लगे रहते थे। इसलिए किंतु मैं यह भी सोचता हूँ कि कोई न कोई तो इस प्रश्न के केन्द्र में होता ही है, जिसकी चर्चा करना ही चाहिए। तो वो थी मेरी भाभी..उसके एहसान अदायगी का मुझे इससे अच्छा कोई माध्यम नजर नहीं आ रहा है कि मैं उसके मेरे प्रति लगाव को एक दो उदाहरण देकर आप सबके सामने रखूँ…मेरे इस लिखे का भाभी को तो कोई खबर नहीं होगी किन्तु इसे पढ़कर शायद मेरे मनत्व से आप परिचित हो जाएंगे।
- एक समय ऐसा आया कि मुझे अजीब से सपने आना शुरू हो गए।..अक्सर ही ऐसा होता था कि थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके जैसे ही नींद में घिरता… यानी सोता तो छोटे-बड़े सपनों का आना एक सहज अवस्था होती थी। मैं घर के अगले भाग में बनी दुकड़िया में अक्सर अकेला ही सोता था। भाई-भाभी और उनके बच्चे अन्दर वाले कोठों (कमरों) में सोते थे। अब मैं जैसे-तैसे बारहवीं कक्षा में आ गया था। रात को देर तक पढ़ना मेरा नित्य कर्म बन गया था। कई बार पढ़ते-पढ़ते आँखों में नींद भर आती तो दीया बन्द करता और सो जाता। कुछ घरों में दीए की जगह लालटेन ने ले ली थी किंतु मेरे पास अभी भी दीया ही था। एक दिन की बात है कि मैं पढ़ते-पढ़ते थक-हारकर दुकड़िया का दरवाजा बन्द किए बगैर ही सो गया, दीया भी जलता ही रह गया। सोया ही थी कि मैं स्वप्न की चपेट में आ गया। स्वप्न में एक धवल-वस्त्रा रूपसी उम्र में मुझसे काफी बड़ी, मेरे सिरहाने ऐसे आकर खड़ी हो गई कि जैसे मेरी और उसकी बहुत पुरानी दोस्ती हो। उसका बर्ताव प्रौढ़ अवस्था वाला ही लग रहा था, सिरहाने से झुक कर उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया और कहा, ‘अब तुझे मेरे साथ चलना होगा।’ इतना कहकर वो अचानक गायब हो गई, मेरी नींद भी टूट गई। खाट में पड़ा– पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा। कभी-कभी इधर-उधर ताक-झाँक करके जैसे उसकी तलाश करता, फिर न जाने कब नींद आ गई और मैं सूरज के उगने पर ही उठा।
- ये ग्यारह जनवरी 1968 का दिन था। जब सवेरे उठा तो पाया कि मुझे बड़े जोरों का बुखार चढ़ा हुआ था शायद सपने से घबरा कर। अचानक भाभी दुकड़िया में आई और बोली आज उठना नहीं क्या। मैंने भाभी की ओर मुँह घुमाते हुए उसे देखा…वो मेरा चढ़ा हुआ चेहरा देखकर सकते में आ गई। उसने मेरे माथे पर हाथ रखा और सन्न रह गई। तेज गर्म माथा देखकर..घबरा गई और भरी हुई आँखें लेकर मुझे डांटने लगी, ‘तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं मेरी तबियत खराब है।’ वो मुझे डांटे ही जा रही थी और मैं मूक बना उसका चेहरा देखकर खुद घबरा रहा था। कहता भी तो क्या कहता, मुझे खुद ही कुछ पता नहीं था। भाभी ने मुझे हाथ पकड़कर बिठाया और मेरे पास ही बैठकर जाने क्या-क्या विलाप किए जा रही थी।
- दरअसल भाभी मेरी कुछ ज्यादा ही चिंता किया करती थी। वो मेरी भाभी कम और माँ ज्यादा थी। भाभी के मुझसे पांच-छह महीने बड़ी एक लड़की थी। मुझे बताया गया कि जब मैं बहुत छोटा था तो माँ की एवज भाभी ही मुझे स्तनपान करा दिया करती थी। इस पर किसी को कोई एतराज भी नहीं होता था। मेरे स्कूल आने-जाने का ख़याल करना भी भाभी का ही होता था। भाभी के कोई लड़का नहीं था। वह मुझे ही बेटे के जैसा प्यार देती थी। मेरे हक में जो बात रही वो थी कि भाभी ने ये सारी कहानी बड़े भाई को पूरा दिन गुजर जाने के बाद दी। वैसे वो उन्हें समय से बता भी देती तो उन पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। उन्हें ताश खेलने और नेतागीरी करने के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं था।
- खैर! देखते-देखते भाभी ने तमाम टोने-टोटके कर डाले…मेरी अवस्था बिगड़ती जा रही थी। जैसे मूर्छित अवस्था में था। प्रशिक्षित चिकित्सक तो गाँवों में उस समय होते ही नहीं थे…टोने-टोटके और बाबाओं की दुआओं के बल पर ही गाँव जिन्दा रहा करते थे। सो भाभी ने भी तमाम देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी के भेलियाँ (प्रतीक) बनाकर मेरी खाट के सिरहाने पर तैनात कर दीं…कुछ नीम की पत्ते वाली टेहनियाँ भी मेरे सिरहाने रखदीं। यह सब कुछ मैंने होश आने पर देखा…किंतु पता नहीं क्यों ये टोने-टोटके मुझे जन्म से ही पसंद नहीं आए? स्वत: ही मेरी मानसिकता बनी हुई थी…किसी सोच के तहत नहीं। ऐसे ही एक-दो दिन निकल गए। मैं अक्सर देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी की उन भेलियों को ही देखता रहता, भाभी कुछ पूछती तो इधर-उधर गर्दन हिला देता और ‘कुछ नहीं’ कहकर भाभी से पीछा छुडाता।
- एक दिन मौका पाकर मैंने सभी देवी-देवताओं की भेलियाँ बारी-बारी से दुकड़िया के आगे वाली गंदी नाली में फेंक दीं। ऐसा करने पर भाभी को मेरी इस हरकत से आग-बबूला हो जाती और न जाने क्या-क्या कहकर खुद को ही कोसती रहती। कोसती भी क्यों न मैं जैसे उसका बड़ा बेटा था। मुझे बताया गया था कि जब मैं नवजात शिशु था तो वो मुझे अपने स्तनों से दूध पिलाया करती थी। यहाँ गौरतलब है कि भाभी की बड़ी बेटी लगभग मुझसे केवल छ: माह बड़ी थी। सो इस दूध स्तनपान कराने की बात पर भरोसा किया जा सकता है। वो मुझे खोना नहीं चाहती थी। खैर! दो-तीन माह की बीमारी के बाद मैं ठीक हो गया। मौत के मुँह से तो निकल आया किंतु ग्यारह मई 1968 तक बिस्तर पर रहने के कारण मैं 1968 में बारहवीं की परीक्षा भी नहीं दे पाया।
- अब हुआ क्या कि मुझे कुछ अलग तरह के सपने आने शुरू हो गए। एक रात मैंने सपने में शौंच की। शौंच खुलकर आई किंतु पेशाब की चन्द बूंद ही आईं कि झटके से नींद टूट गई, थोड़ी देर में पुन: सो गया। सुबह उठा तो खबर मिली कि गाँव के ही फलाँ राम का निधन हो गया है। इसे एक संयोग मानकर मैं न केवल शांत रहा अपितु किसी और को भी अपने सपने के बारे में कुछ भी नहीं बताया। कुछ दिनों बाद फिर ठीक पहले जैसा ही सपना फिर आया। सुबह उठने पर खबर मिली कि आज फलाँ राम का निधन हो गया। मैंने सपने की कहानी फिर भी किसी को नहीं बताई और मन ही मन परेशान और मौन रहने लगा। किसी से कोई बात करने का मन ही नहीं करता था।
- कुछ दिन तो यूँही गुजर गए किंतु मेरा मौन भाभी को खटकने लगा, उसे लगा कि मुझे कुछ परेशानी है। वे मुझसे अक्सर मेरी परेशानी का सबब पूछने लगी, क्या हो गया है तुझे? बताता क्यों नहीं… जब चुप रहने को कहा जाता था तो चुप नहीं रहता था और अब जब किसी ने कुछ कहा भी नहीं तो चुप रहने लगा है. क्यों? मैं शांत ही रहा कुछ भी तो नहीं कहा गया मुझसे इस सिलसिले के चलते शाम हो गई। नौ-दस बजे होंगे कि भाभी अपने कोठे (कमरे) में सोने चली गई और मैं दुकड़िया में चुप्पी ओढ़कर सो गया। सोया ही था कि वही पुराने वाला सपना फिर दिखा कि मैं भन्नाकर जग गया और बिना कुछ सोचे-समझे भाभी के पास जा पहुँचा…..ठीक-ठीक समय तो पता नहीं…हाँ! प्रात: के लगभग चार–पाँच बजे होंगे। गौरतलब है कि उन दिनों घड़ी तो कुछ ही नामचीन लोगों के पास हुआ करती थी, हमारे पास नहीं थी। उन दिनों आसमान के तारों को देखकर ही समय का अन्दाजा लगाया जाता था।
उस रोज मैंने भाभी को ऐसे झकझोरा कि जैसे कोई भूचाल आ गया हो। वह बड़ी मुश्किल से उठी। मुझे अपने सामने देखकर जैसे घबरा गई। आब देखा न ताव मुझे अपनी बाहों में भर लिया। मैं अवाक था भाभी को किसी अनहोनी का भान हुआ और उसकी आँखे भर आईं। रुआँसे स्वर में बोली..आ..अब बता क्या हो गया है तुझे …पता नहीं … क्या हो गया है मेरे लाल कू..। इतना होने पर मैंने सोचा कि अब मुझे सब कुछ बता देना चाहिए। मैं अचानक भावावेश में कह उठा, ‘गाँव में कोई और मरने वाला है आज। इतना सुनकर भाभी ने मुझे एक जोरदार चांटा रसीद कर दिया और फिर दुखी मन से बोली, ‘पढ़ता-लिखता तो है नहीं..पता नहीं फालतू की बातें कहाँ से लाता है। इतना कहकर उसने पुन: एक और चांटा मारा। और मुझे सीने से लगाकर खुद-ब-खुद फफककर रोने लगी। मैं भी रोता हुआ दुकड़िया की ओर बढ़ा और सो गया। भाभी अपने कमरे में ही सो गई।
- जैसे ही दिन निकला खबर उड़ी कि आज फलाँ-फलाँ राम मर गया। भाभी ने ज्यूँ ही खबर सुनी। भागी-भागी दुकड़िया में आई और झटके से मुझे जगाया। मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचकर अन्दर वाले कमरे में ले गई। कहा-सुना कुछ भी नहीं..उसने मुझे जोर का झटका देकर खाट पर बिठा दिया, कहा, ‘चुपचाप यहीं बैठा रह…बाहर बिल्कुल मत निकलना…बाहर निकला तो इतना मारूँगी कि रोना भूल जाएगा। मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था.. भाभी ने मुझे कुछ बताया भी नहीं। मैं चुपचाप खाट पर लेट गया। मैंने देखा कि भाभी के चेहरे पर मेरे प्रति गुस्से की एवज चिंता का भाव ज्यादा था। कहा,’आज घर पर ही रहना, स्कूल मत जाना।‘ जब मुझे पता चला कि आज गाँव में कोई मर गया है तो मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि भाभी की चिंता का कारण क्या है।
- कुछ ही दिन गुजरे थे कि मैंने भाभी को फिर किसी और के मरने की बात कही, वह भी भोर हुए। यह सुनकर उसने पहले मुझे ताका और तपाक से एक चांटा जड़ दिया और न जाने अनाप-शनाप क्या-क्या न कहा मुझे। इसके बाद वो मुझे अपनी बाहों में भरकर फफक-फफक कर रोने लगी। पढ़ी-लिखी नहीं थी..अनपढ़ थी। ‘क्या हो गया है मेरे लाल कू’ यह उसका जुमला बन चुका था। अब भाभी को किसी के मरने-जीने का दुख नहीं रह गया था। उसे दुख था तो महज इस बात का कि कहीं कोई भूत-प्रेत तो मेरे सिर नहीं चढ़ बैठा है। आज उसने मुझे न डांटा और न फटकारा.. मुझे अब तक यह भी पता नहीं था कि भाभी ने भाई को भी मेरे बारे में कुछ बताया है कि नहीं। खाना बनाया, खिलाया और रुआँसी सी चुपचाप एक कौने में बैठ गई मगर उसकी नजरें घर के दरवाजे पर टिकी थीं।
- कुछ देर बाद देखा कि भाई के साथ एक तथाकथित भगत’ (बाबा) घर में प्रवेश कर गए..। उसे देखकर मैं भाई से पूछ बैठा, ‘किसलिए लाए हो इसे?’ और मैंने भगत को भाग जाने को जैसे ही कहा कि भाई ने मुझे डांट दिया, ‘एकदम चुप रह।‘ किंतु मैं चुप न रह सका। और इस तरह भगत खुद ही घर से चला गया। बदले में भाई ने एक जोर का चांटा रसीद कर दिया। भाई का यह पहला चांटा था। भाभी तो जाने कितने चांटे मार चुकी थी आज तक मुझे, किंतु भाभी के चांटे और भाई के चांटे में जमीन और आसमान का अंतर था। भाई के चांटे ने मेरा मुँह मोड़ दिया…. किंतु भाभी का चांटा इतना स्नेह भरा होता था कि मुझे हरबार कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करता था। भाभी के चांटे में अपनापन होता था। वह चांटा मार तो देती थी, बदले में चुपके-चुपके खुद ज्यादा रोती थी जैसे उसके द्वारा मारा चांटा उसको ही लग गया हो।
- सपना मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब भी मैं वैसा सपना देखता, किसी न किसी के मरने की खबर जरूर मिलती.. बेशक ये एक संयोग भर ही होगा। जो नित्यप्रति होने वाली घटनाओं से मेल भर खा रहा था, ऐसा कुछ भी न था कि मेरे सिर कोई भूत-प्रेत आ गया हो किंतु भाभी को कौन समझाए। उसकी तो चिंता निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। तरह-तरह के टोटके व बाबाओं के चक्कर में पड़ी रहने लगी। मेरा अंतर्मन भी डोलने लगा था.. तंग आ गया था इस सबसे मैं आखिर एक दिन मैंने सपने वाला भेद भाभी को बता ही दिया। फिर क्या था कि न तो कभी वो सपना ही मुझे आया…और न किसी के मरने का पूर्वाभास ही, जिसे मैं उस सपने की देन मान चुका था। सदैव की भाँति मरना-जीना चलता रहा…किंतु अब मैं और भाभी दोनों सामान्य जीवन की ओर मुड़ आए थे। ठीक होने के बाद मैंने कालिज जाना शुरू कर दिया। अब आप ही बताएं कि ऐसी भाभी को भाभी-माँ न कहूँ तो और क्या कहूँ।
आज जब कभी भी गाँव का कोई आदमी मुझसे मिलने मेरे गाजियाबाद स्थित वर्तमान निवास पर आता है तो गाँव की बातें करते-करते सारी रात आँखों में ही गुजर जाती थी या यूँ कहूँ कि-
गाँव जब-जब भी शहर आवे है, रात आँखों में गुजर जावे है।
रंग धरती का, रहट का मंजर, सहज आँखों में उतर आवे है।
मार अम्मा की, प्यार भाभी का, आके चौखट पे ठहर जावे है।
महक सरसों की, गंध गोबर की, जैसे आँगन में पसर जावे है।
‘तेज’ जानो तो गाँव में हरसू, साँझ हँसती है, सहर गावे है।
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वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध है। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन के कुछ उन दिनों को याद किया है, जब वो दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्षरत थे। अब तक उनकी दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।